प्रदीप सिंह।
क्या देश में दो विधान हैं। एक हिंदुओं के लिए और दूसरा बाकी पंथों को मानने वालों के लिए। यह सवाल देश की बहुसंख्यक आबादी के मन में बार बार उठता है। यह धारणा किसी नेता के कहने से नहीं अदालतों और सरकारों के समय समय पर किए गए निर्णयों और कामों से बनती है। नेता उसके बाद आते हैं। ताजा संदर्भ देश की सर्वोच्च अदालत के रवैए का है। उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा पर एक रुख और केरल में बकरीद में बाजार खोलने के केरल सरकार के फैसले पर दूसरा रुख। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है।
उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा रुक गई
कोरोना महामारी का खतरा अभी टला नहीं है। अब तीसरी लहर की आशंका बढ़ती जा रही है। ऐसे में सरकार और अदालतें इस बात की चिंता करें कि ज्यादा लोग कहीं इकट्ठा न हों और कोविड प्रोटोकॉल का पालन करें तो इसका स्वागत होना चाहिए। इसीलिए जब सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में हर साल सावन में होने वाली कांवड़ यात्रा की खबरों का स्वतः संज्ञान लिया तो अच्छा लगा कि शायद राज्य सरकार जो खतरा नहीं देख पा रही वह अदालत ने देख लिया। कांवड़ यात्रा पच्चीस जुलाई से शुरू होने वाली थी। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कह चुके थे कि पूरे कोविड प्रोटोकॉल के तहत सीमित मात्रा में यात्रा होगी। पर सुप्रीम कोर्ट ने दस दिन पहले ही सरकार से कहा कि पुनर्विचार कीजिए, नहीं तो हम रोक देंगे। कांवड़ यात्रा रुक गई।
केरल सरकार की घोषणा
फिर केरल सरकार ने घोषणा की कि बकरीद के लिए मुसलमान खरीदारी कर सकें इसलिए अट्ठारह से बीस जुलाई तक दूकानें खुलेंगी। एक पक्षीय न लगे इसलिए यह भी कहा कि इस बीच हिंदू सबरीमाला मंदिर जा सकते हैं। अब केरल में इस समय कोरोना के सबसे ज्यादा केस हैं। वहां संक्रमण की दर दस फीसदी है और उत्तर प्रदेश में दशमलव दो फीसदी। केरल में रोज दस हजार नये मामले आ रहे हैं और उत्तर प्रदेश में सौ भी नहीं। पूरे देश को उम्मीद थी कि बस अभी सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेगा और केरल सरकार को रोकेगा। किसी ने अट्ठारह जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और सारे तथ्य रखे। सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार से जवाब मांगा जो सोमवार देर रात आया। कहा गया कि व्यापारियों के दबाव में आदेश दिया। सवाल है कि फिर सबरीमाला में दर्शन की छूट क्यों दी। सुप्रीम कोर्ट ने बीस जुलाई को सरकार को लताड़ तो लगाई। पर आदेश रद्द नहीं किया। क्योंकि उसकी मियाद उसी दिन पूरी हो रही थी।
ऐसा क्यों
इस बात का मकसद सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर सवाल उठाना नहीं है। और न ही इस मुद्दे के कानूनी पहलुओं पर कोई टिप्पणी करने का है। सवाल अलग अलग रवैए से बनने वाली आम धारणा का है। कहते हैं न कि न्याय होना ही नहीं चाहिए होते हुए दिखना भी चाहिए। ऐसा बार बार क्यों होता है कि अदालतें हिंदू त्यौहारों के प्रति एक रवैया अपनाती हैं और दूसरे त्यौहारों के प्रति दूसरा। इसी से करोड़ों लोगों के मन में सवाल उठता है कि क्या देश में दो विधान हैं। यदि नहीं तो फिर ऐसा क्यों होता है कि एक ही कानून की जो व्याख्या हिंदुओं के मामले में प्रस्तुत की जाती है वह दूसरे पंथों के मामले में बदल जाती है। देश में कहीं से इस पर कोई आवाज नहीं उठती। इसे सामान्य बात मानकर स्वीकार कर लिया जाता है।
मुसलमान वोटरों को लुभाने के लिए हिंदुओं का विरोध…
ऐसा लगता है कि कानून के व्याख्याकार भी अपने को सेक्युलर कहने वाले राजनीतिक दलों की ही तरह सोचते हैं। ये राजनीतिक दल और इनके नेता हिंदुओं के खिलाफ किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। कभी भगवा आतंकवाद तो कभी साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक के जरिए कहा जाता है कि दंगा होने पर हिंदू ही आरोपी होंगे और उन्हें ही साबित करना होगा कि वे निर्दोष हैं। क्या इन राजनीतिक दलों को हिंदुओं के वोट की जरूरत नहीं है? मुसलमान मतदाताओं को लुभाने के लिए क्या हिंदुओं का विरोध जरूरी है? पता नहीं पर हो तो ऐसा ही रहा है।
जाति से प्रेम, धर्म का निर्वाह
नेता ऐसा क्यों करते हैं? अदालतें और सरकारें ऐसा क्यों करती हैं? उसकी वजह इन सबको अच्छी तरह से पता है। इस सचाई को जानकर ही राजनीतिक दल और नेता हिंदुओं को अपमानित भी करते हैं और वोट भी लेते हैं। क्योंकि हिंदू कभी हिंदू की तरह नहीं सोचता। वह अपनी धार्मिक अस्मिता पर जातीय अस्मिता को वरीयता देता है। वह सामान्य तौर पर जातीय पहचान के अनुरूप ही आचरण करता है। हिंदुओं के मन में अपने धर्म के प्रति एक तरह की उदासीनता का भाव है। उन्हें जाति चले जाने का जैसा दर्द या डर होता है वैसा धर्म के चले जाने से नहीं होता। जाति से लगाव है, धर्म सामाजिकता है। तो जाति से प्रेम करते हैं और धर्म का निर्वाह। मुसलमान इसके ठीक उलट है। उनके लिए धर्म देश से भी पहले है। उनके लिए धर्म पर खतरा अस्तित्व पर खतरा है। वह संगठन की शक्ति को पहचानता है। इसलिए संख्या में कम होने पर भी वह समाज, सरकार से लेकर न्यायालय तक ज्यादा प्रभावी है। इसलिए अदालत भी मुसलमानों के बारे में किसी विषय पर विचार करते हुए यह तसल्ली कर लेना चाहती है कि इस मुद्दे पर शरिया या इस्लाम में क्या कहा गया है।
देश का न्यू नार्मल
तो देश में संविधान एक है। संविधान की नजर में सारे नागरिक बराबर हैं। पर दोनों समुदायों के लिए उसी संविधान के प्रवाधानों की व्याख्या अलग अलग की जाती है। हिंदुओं के रीति रिवाज पर्यावरण और लोगों की सुविधा- असुविधा की कसौटी पर कसे जाते हैं। बाकियों के रिति-रिवाज, त्यौहार उनकी धार्मिक मान्यताओं की कसौटी पर। यह इस देश का न्यू नार्मल हो गया है। हमने स्वीकार कर लिया है कि यही वास्तविकता है और इसे बदला नहीं जा सकता है। देश की सर्वोच्च अदालत भी हिंदुओं के बारे में कोई फैसला देती है तो संविधान की नाक की सीध में चलती है। जैसे ही मुसलमानों का मामला आता है जज साहबान कुर्सी पर कसमसाने लगते हैं कि इस फैसले का असर क्या होगा।
तब तक पिटते और पिछड़ते रहेंगे
भारतीय जनता पार्टी को हिंदुत्ववादी कहा जाता है। उसका मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय संस्कृति की बात करता है। हिंदू संस्कृति बोलने से बचता है। हिंदू या सनतान संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है यह कहना पोलिटिकली करेक्ट नहीं माना जाता। भाजपा को भी वोट हिंदू के नाम पर नहीं मिलता। उसे भी जातियों का गणित बिठाना पड़ता है। धर्म आत्मा है और राजनीति शरीर। यह बात जब तक सनातन धर्म को मानने वालों की समझ में नहीं आएगी तब तक पिटते और पिछड़ते रहेंगे।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)