अजय विद्युत।
‘हर हर महादेव’ और ‘बम बम भोले’ की गूंज। कहीं कहीं डीजे पर बजता ‘जय जय शम्भू… शम्भू महादेव’। दुनिया के तमाम देशों में रहनेवाले लोग सदियों से इस बात पर आश्चर्यचकित हैं कि हम इतने उत्सवधर्मी क्यों हैं- कैसे हैं? ऐसा कैसे हो सकता है कि लाख समस्याओं से जूझते हैं, तमाम कष्ट, अभाव सहते हुए भी हमारी मुस्कान तिरोहित नहीं होती। यहाँ जीवन तो उत्सव है ही- मृत्यु भी उत्सव है। दरअसल यह सनातन धर्म की विशेषता है। श्रावण मास में भगवन शिव का जलाभिषेक और कांवड़ यात्रा। यह विदेशियों को ही नहीं अपने देश में रहने वाले कुछ लोगों को भी समझ में नहीं आता। प्रकृति के साथ साहचर्य और सामाजिक समरसता का विस्तार- यही सनातन धर्म का मूल है…! यह कोई सैद्धांतिक व्याख्या या थ्योरी नहीं है- इसे जानने के लिए आपको कोई पीएचडी करने की जरूरत नहीं है। श्रावण मास की कांवड़ यात्रा में आप इसे व्यावहारिक रूप से देख भी सकते हैं और कर भी सकते हैं।
यूं तो पूरा संसार ही शिवमय है- लेकिन शिव के प्रिय श्रावण मास में हम अपनी इस सकारात्मक आध्यात्मिक ऊर्जा को जगाकर एक अलग ही स्तर पर ले जाते हैं। पूरे वातावरण में शिवभक्ति व्याप्त होती है। श्रवण मास शिव को इतना प्रिय क्यों है इस पर भी बात करेंगे। लेकिन पहले शिवभक्ति और कांवड़ यात्रा पर बात करते हैं। कांवड़ के साथ तप, कर्म और समर्पण का भाव लिए निकले श्रद्धालुओं के जत्थे स्वत:स्फूर्त एक कठिन यात्रा पर निकल पड़ते हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के शहरों-कस्बों गावों से शिवभक्तों के जत्थे के जत्थे कांवड़ लेकर पड़ते हैं। देश के विभिन्न राज्यों से कांवड़ के साथ तप, कर्म और समर्पण का भाव लिए निकले इन श्रद्धालुओं का अभीष्ट होता है हरिद्वार में हर की पैड़ी से शिवजी के अभिषेक के लिए गंगाजल लाकर अपने स्थानों पर विराजमान भोले का अभिषेक। इन कांवड़ यात्रियों में ज्यादातर किशोर और युवा होते हैं, लेकिन बूढ़े, बच्चे और बारह साल के बच्चे भी आपको आसानी से मिल जाएंगे। विभिन्न स्थानों पर अलग अलग पवित्र नदियों से जल लाकर शिवभक्त भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं।
सामाजिक समरसता की ऐसी मिसाल और कहां मिलेगी जहाँ बमभोले का नाद करते, भजन गाते नौकर और मालिक एक साथ हों। दोनों को ही भोले के दरबार में जाना है- पवित्र जल लाना है- और उससे उनका अभिषेक करना है। रही जाति की बात? आप जाति पूछेंगे तो हर जाति यहां मिलेगी, बामन से लेकर जाटव तक। वंचित से वंचित व्यक्ति के लिए भी सम्राट होने का आश्वासन हैं शिव। सबसे बड़ी बात तो यह कि जिस सामाजिक समरसता के तानेबाने की फिक्र में हम इतने कार्यक्रम और योजनाएं चला रहे हैं, वह यहां वैसे ही है। भाषा अलग, राज्य अलग, जाति अलग लेकन भगवा चोला पहने ‘बोल बम’ कहते ही वे आपस में ऐसे कनेक्ट हो जाते हैं कि लगता है देश में लोगों के बीच सौहार्द्र आज समस्या क्यों है?
हम कहते हैं कि संपूर्ण प्रकृति, संपूर्ण संसार शिवमय है। दरअसल वह शिवमय नहीं- शिव ही है। शिव को हम भूतनाथ कहते हैं। और देवाधिपति भी। भूतनाथ का मतलब संसार पंचभूतों से बना है- पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश। और इन पंच महाभूतों के नाथ हैं शिव। सो संपूर्ण संसार और प्रकृति का संरक्षण ही वास्तविक शिवभक्ति है।
शिव को श्रावण का महीना बेहद प्रिय क्यों?
भगवान को सावन यानी श्रावण का महीना बेहद प्रिय है जिसमें वह अपने भक्तों पर अतिशय कृपा बरसाते हैं। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताते हुए कहा है कि मेरे तीनों नेत्रों में दाहिने सूर्य, बांये चंद्र और मध्य नेत्र अग्नि है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है जो ऊष्मा देता है जबकि चंद्रमा ठंडा है जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिश होती है। इससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोले को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।
एक भ्रांति दूर होनी ही चाहिए
हमारी सनातन आस्थाओं के पीछे सर्वसमावेशी सतत विकास की वैज्ञानिक सोच रही है। भक्त दूर दूर से पवित्र जल लाकर शिव का अभिषेक करते हैं। जल समस्त जगत के प्राणियों में जीवन का संचार करता है, वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। लेकिन छोटी सोच और सनातन धर्म की आलोचना को ही आधुनिक होने का संस्कार मानने वाले कुछ लोगों की नज़र में यह जल का अपव्यय है। वे नहीं जानते कि यह जल का अपव्यय नहीं वरन् उसका महत्व समझकर उसकी पूजा करना है।
पर्यावरण संरक्षण आज सम्पूर्ण मानवता की सबसे बड़ी आवश्यकता है। प्रकृति का असंतुलन और पर्यावरण का प्रदूषण सबसे बड़ी समस्या है। अपनी लालसाओं और सुविधाओं के लिए हम उसके अंग नोचने में भी संकोच नहीं करते। हमारी विलासी लिप्साओं के शिकार होकर पहाड़ खिसक रहे हैं, जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।
जल संरक्षण सबसे बड़ी शिवपूजा
शिवपुराण में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रुप में आराधना का उत्तमोत्तम फल है जिसमें कोई संशय नहीं है।
संजीवनं समस्तस्य जगत: सलिलात्मकम्। भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मन:॥
जल से ही धरती का ताप दूर होता है। जो भक्त, श्रद्धालु भगवान शिव को जल चढ़ाते हैं उनके रोग-शोक, दु:ख दारिद्रय सभी नष्ट हो जाते हैं। भगवान शंकर को महादेव इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह देव, दानव, यक्ष, किन्नर, नाग, मनुष्य सभी द्वारा पूजे जाते हैं।
जल संरक्षण पर ध्यान देना सबसे बड़ी शिवपूजा है। धरती पर कुल जलभंडार का पीने लायक पानी तो सिर्फ 2.7 प्रतिशत ही है। हमारे हिस्से दुनिया भर में मौजूद पीने लायक पानी का सिर्फ 4 प्रतिशत ही है जबकि दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी हिन्दुस्तान में बसी है। यानी अनुपात तो गड़बड़ाया हुआ है लेकिन अपनी मुश्किलों के लिए हम किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। आकलन है कि 2050 तक दुनिया की एक चौथाई जनसंख्या पानी की गंभीर समस्या से सामना करेगी। पीने के लिए, खेतों के लिए, उद्योगों के लिए, पशु-पक्षियों के लिए- सबके पानी जरूरी है।
शिवभक्ति से सराबोर कांवड़ यात्रा हमें यही सन्देश देती है। लोग कितनी कितनी दूर से, कितनी कठिन यात्रा कर के आते हैं पवित्र नदी से थोड़ा सा पवित्र जल लेने। पूरे रस्ते उसका ख्याल रखते हैं कि जल गिरे न। फिर अपने शहर, गाँव, कस्बे लौटकर शिव का जलाभिषेक करते हैं। क्या इस तप में आपको जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिखाई नहीं देता।
प्रकृति की पूजा शिव का आदेश
पाताल भुवनेश्वर : यहां हैं शिव और आदि, अनंत, सृजन व प्रलय के रहस्य
भारत एक मात्र ऐसा देश है जो पेड़-पौधों की पूजा करता है। पेड़-पौधों का हमारे जीवन में अलग ही महत्व है। भारत ने पर्यावरण के साथ विकास की यात्रा हजारों वर्ष तक की है और यह कपोल कल्पित नहीं बल्कि वास्तविक इतिहास है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने में हम खुद भी कुछ भूमिका निभा सकते हैं। छोटा सा काम तो हम सब कर ही सकते हैं। विद्युत के अपव्यय को रोकने के लिए अपने स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। जैसे एयर कंडीशनर आदि उपकरणों का उपयोग कम किया जाना चाहिए। एसी को 23-24 के तापमान पर चलाकर इससे होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
संत एकनाथ अपने साथियों के साथ प्रयाग के संगम से पवित्र गंगाजल लेकर रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक गधा मिला जो प्यास से तड़प रहा था। उन्होंने उस प्यास से तड़पते गधे को अपनी कांवड़ का पूरा जल पिला दिया। मंडली में शामिल तमाम लोगों ने उनसे कहा भी कि आप यह क्या कर रहे हैं। इस पर संत एकनाथ ने जवाब दिया कि गधा भी शिव का ही एक रूप है। कहते हैं कि उधर रामेश्वरम के पुजारी को भगवान की वाणी सुनाई दी- ‘एकनाथ ने जो जल गधे को पिलाया वह मुझे मिल गया है।’ तो यह कहानी एक प्रकार से हमें शिव का स्पष्ट आदेश है कि प्रकृति में जो कुछ भी है, उसकी सेवा ही वास्तविक शिवपूजा है। कांवड़यात्रा इसकी भी जीवंत प्रतीक है।
(‘पाञ्चजन्य’ से साभार)