डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
अंग्रेजी दासता के युग में आचार्य जगदीश चन्द्र बसु (1858-1937) एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने तमाम विपत्तियों के बावजूद भारत का नाम विश्व के विज्ञान-गगन पर ऐसा चमकाया कि उसकी चमक आज भी बढ़ती ही जा रही है। भारतीय उपमहाद्वीप में वह आधुनिक विज्ञान के जनक के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने विश्व में पहली बार दूर संचार के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। उन्होंने वैज्ञानिक तरीके से यह सिद्ध किया था कि पेड़-पौधों में जीवन होता है।
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों को संप्रेषण
आज वाईफ़ाई का युग है। धरती से चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहों तक तरंगें भेजी जाती हैं और वहाँ से वापस भी आती हैं। हमारा देश 5 जी टेक्नोलोजी की ओर बढ़ चुका है। 6 जी की ओर जाने की बातें चल रही हैं।
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों को संप्रेषण की शुरुआत विश्व में पहली बार हमारे वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने की थी। सन् 1895 में कोलकाता के टाउन हाल में उन्होंने सार्वजनिक तौर से प्रदर्शन करके यह दिखाया था कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजी जा सकती हैं। उन्होंने ये तरंगे भेज कर 75 फीट दूरी पर एक घण्टी को बजाया था। वे तरंगें इतनी कम फ्रीक्वेंसी की थीं कि उनको नापने वाला कोई यन्त्र भी तब नहीं बना था। जगदीशचन्द्र बसु ने यह शोध कार्य अपने एक कमरे की प्रयोगशाला में किया था।
सन् 1899 में जगदीश चन्द्र बसु ने लन्दन की रॉयल सोसाइटी में एक अपना शोध पत्र प्रस्तुत करके अपने शोध के बारे में सारी दुनिया को बता दिया था। उन्होंने कहा था कि मेरा यह शोध कार्य विश्व में लम्बी दूरी वाले संचार के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।
उनका शोध पत्र रॉयल सोसाइटी के अप्रैल 1899 के अंक में प्रकाशित हुआ था। तब उनकी आयु मात्र 41 वर्ष थी।
बाद में इसी विषय पर इटली के वैज्ञानिक गूल्येलामो मार्कोनी (1874-1937) ने काम किया। लगभग दो वर्ष बाद 12 दिसम्बर 1901 में मार्कोनी ने ब्रिटेन से अटलांटिक महासागर के पार पहली बार सन्देश भेजा था। मानव प्रगति के लिए यह समाचार उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि मनुष्य का चन्द्रमा पर कदम रखना। इस महत्वपूर्ण शोध कार्य के लिए मार्कोनी को नोबेल पुरस्कार मिला था।
मार्कोनी ने अपनी रिसर्च में जगदीशचन्द्र बसु द्वारा किए गए शोध का कोई जिक्र नहीं किया था। ऐसा समझा जाता है कि मार्कोनी ने जानबूझ कर ऐसा किया था। इतना ही नहीं नोबेल प्राइज देने वाली तत्कालीन कमेटी भी शायद भारतियों अर्थात गैर-गोरे लोगों के खिलाफ दुर्भावना से पीड़ित थी। इस कारण उस कमेटी ने भी जगदीशचन्द्र बसु के शोध-कार्य की अनदेखी की।
जगदीशचन्द्र बसु पुरस्कार प्राप्त करने की तिकड़मबाजियों से भी दूर रहते थे। जगदीशचन्द्र बसु का कहना था कि मेरे आविष्कारों में से किसी को भी पेटेंट नहीं कराया जाएगा। ऐसा करना पाप है। हमें अपने ज्ञान का उपयोग हमें अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए नहीं करना चाहिए। हालांकि बाद के वर्षों में किसी के अत्यन्त आग्रह पर बसुजी ने अपने एक आविष्कार को पेटेंट कार्य था।
योगानन्द परमहंस उनसे मिलने गए थे
योगानन्द परमहंस जगदीशचन्द्र बसु से कोलकाता में मिलने गए थे। उन्होंने अपनी बहुचर्चित अंग्रेजी पुस्तक ‘Autobiography of a Yo
पेड़-पौधों में भी जीवन होता है
जगदीशचन्द्र बसु ने क्रेस्कोग्राफ नामक एक ऐसे यन्त्र का आविष्कार किया जिससे किसी पौधे की सूक्ष्मतम गतिविधियों को देखा जा सकता था। इस यन्त्र के माध्यम से बसुजी ने ब्रिटेन में और कोलकाता में भी यह प्रयोग करके दिखाया कि एक पौधा जो धीरे- धीरे बढ़ रहा है और जैसे ही उस पौधे को किसी धातु से स्पर्श किया गया तो उसका बढ़ना रुक जाता है। इतना ही नहीं उस धातु के स्पर्श को जैसे ही पौधे से हटा लिया गया तो उस पौधे में पुन: स्फूर्ति आ गई और वह पुन: बढ़ने लगा।
उन्होंने पौधे पर क्लोरोफार्म लगा कर भी यह दिखाया कि पौधा निर्जीव सा हो गया और फिर विषनिवारक दवा लगाने से पौधे में जान आ गई।
जब अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से जगदीशचन्द्र बसु ने सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है और उनकी भी मनोभावनाएँ होती हैं, तो पश्चिमी देशों के कुछ वैज्ञानिकों को उनके प्रयोग पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। परन्तु बाद में वह भी बसुजी की बात से सहमत हो गए। और अब तो सारा विश्व मानता है कि पेड़-पौधों में जीवन होता है और उनकी भी मनोभावनाएँ होती हैं।
भारत के प्राचीन ग्रन्थों में तो ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। हमारे सनातन धर्म में तुलसी, बरगद, पीपल आदि के पेड़ों की पूजा सदियों से होती रही है। झारखण्ड में इस लेख के लेखक ने देखा कि वहाँ के आदिवासी अपने हर त्योहार में पेड़ों की पूजा करते हैं।
ब्रिटिश सरकार ने ‘सर’ की उपाधि दी
कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर जगदीश चन्द्र बसु के मित्र थे। उन्होंने बसुजी की प्रशस्ति में एक कविता भी लिखी है। क्रेस्कोग्राफ तथा अन्य आविष्कारों के लिए जगदीश चंद्र बसु को ब्रिटिश सरकार ने सन् 1917 में ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया था।
लोहे को भी थकान का अनुभव होता है
सर जगदीशचन्द्र बसु ने अपने आविष्कारों से यह भी सिद्ध किया कि मशीनों आदि में प्रयुक्त धातुओं को भी थकान का अनुभव होता है। बीच-बीच में थोड़ा आराम मिलने से उनमें पुन: ताजगी आ जाती है। इन प्रयोगों के बारे में उन्होंने अपनी अंग्रेजी पुस्तक ‘Response in the Living and Non-Living’ में विस्तार से चर्चा की है। यह पुस्तक www.gutenberg.org पर उपलब्ध है और फ्री में पढ़ी जा सकती है।
भेदभाव वाली व्यवस्था से संघर्ष
जगदीशचन्द्र बसु को भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड रिपन के कहने पर कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया था। उस समय वहाँ भारतीय प्रोफेसरों को गोरे-अंग्रेज प्रोफेसरों की तुलना में कम वेतन दिया जाता था। बसुजी ने इस भेदभाव वाली व्यवस्था को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और वह अपना वेतन नहीं लेते थे। अंतत: बसुजी की मांग स्वीकार की गई और भेदभाव वाली व्यवस्था समाप्त की गई। बाद में बसुजी प्रोफेसर का पद छोड़ दिया था।
जगदीशचन्द्र बसु के दो अद्वितीय विद्यार्थी
जगदीशचन्द्र बसु जब कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रोफेसर थे, तब उनके विद्यार्थियों में दो विशेष नाम थे – मेघनाद साहा (1893-1956) और सत्येन्द्र नाथ बोस (1894-1973)। इन दोनों ने भी विश्व के विज्ञान जगत में भारत की कीर्ति पताका एक बार फिर फहराई।
मेघनाद साहा सुप्रसिद्ध भारतीय खगोलविज्ञानी थे। वे साहा समीकरण के प्रतिपादन के लिये प्रसिद्ध हैं। यह समीकरण तारों में भौतिक एवं रासायनिक स्थिति की व्याख्या करता है। उनकी अध्यक्षता में गठित विद्वानों की एक समिति ने भारत के राष्ट्रीय शक पंचांग का भी संशोधन किया, जो 22 मार्च 1957 से लागू किया गया।
सत्येंद्र नाथ बोस ने बाद में परमाणु के भीतर के उपपरमाणु कणों की जानकारी के लिए नई सांख्यिकी की खोज की, जिसे बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी कहा जाता है। सत्येंद्र नाथ बोस के एक शोध लेख का अल्बर्ट आइंस्टीन ने जर्मन भाषा में अनुवाद करके जर्मनी के रिसर्च जर्नल ‘Zeitschrift fur Physik’ में प्रकाशित करवाया था।
विज्ञान मंदिर की स्थापना
उन्होंने भारत में वैज्ञानिक शोध कार्य के लिए कोलकाता में एक विज्ञान मंदिर की स्थापना की। इस शोध संस्थान में उन्होंने एक मंदिर का भी निर्माण कराया था। सन् 1917 में स्थापित इस विज्ञान मंदिर का नाम आजादी के बाद में हमारी भारतीय सरकारों ने बदल कर बोस इंस्टीट्यूट है। बोस इंस्टीट्यूट की अपनी वेबसाइट है। उससे यह पता नहीं चलता है कि अब वहाँ वह मंदिर है या नहीं जिसका निर्माण अपने शोध संस्थान के प्रांगण में सर जगदीशचन्द्र बसु ने कराया था।
गिरडीह, झारखण्ड में अन्तिम सांस ली
30 नवम्बर 1858 को मेमन सिंह (अब बांग्लादेश) में जन्मे जगदीशचन्द्र बसु का निधन 23 नवम्बर 1937 को गिरडीह, झारखण्ड में हुआ था। तब उनकी आयु लगभग 79 वर्ष थी।
अपनी मातृ भाषा से प्रेम
जगदीशचन्द्र बसु की प्रारम्भिक शिक्षा बंगला भाषा में हुई थी। उन्हें मातृ भाषा से इतना प्रेम था कि उन्होंने विज्ञान पर आधारित अपनी कहानियाँ बंगला भाषा में ही लिखीं। वह बंगला भाषा में विज्ञान-गल्प अर्थात विज्ञान-कथाओं के पहले लेखक थे।
वह बंगला में साइंस फिक्शन के जनक थे
उनके पहले बंगला भाषा में कोई साइंस फिक्शन (science fiction) नहीं था। सन् 1896 में उनकी पहली लघु विज्ञान कहानी प्रकाशित हुई। यह बंगला भाषा में थी और इसका शीर्षक था निरूद्देशेर काहिनी अर्थात खोए हुए की कहानी। इसको बाद में उन्होंने इसको बड़ा किया और कुछ अपनी अन्य कहानियाँ जोड़ कर सन् 1921 में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। शीर्षक था उस पुस्तक का पलतक तूफान अर्थात Runaway Cyclone भगोड़ा तूफान।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)