प्रदीप सिंह।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस सूर्यकांत ने नुपूर शर्मा मामले में जो टिप्पणी की है उसे लेकर देश में नया विमर्श खड़ा हो गया है। जजों को आजकल एक शौक हो गया है नेता बनने का। उनको लगता है कि इस तरह के बयान देकर वे समाज सुधारक हो गए हैं। उनका काम संविधान और कानून के अनुसार फैसला देने का है। देश के विभिन्न हाई कोर्ट के कई बेंच के जजों की ओर से जब अनावश्यक टिप्पणियां की जाने लगीं तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने कहा था, “जजेज शुड स्पीक टू दियर जजमेंट। व्हाटएवर डू नॉट फॉर्म ज्यूडिशियल रिकॉर्ड मस्ट बी अवॉयडेड (जजों को सिर्फ फैसले को लेकर बोलना चाहिए। जिस बात को अदालत के रिकॉर्ड में नहीं रखा जाता है उसे बोलने से जजों को बचना चाहिए)।” सुप्रीम कोर्ट को इसी कसौटी पर जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस सूर्यकांत को नूपुर शर्मा के मामले में की गई टिप्पणियों पर परखना चाहिए।
आपकी टिप्पणी का समर्थन कर रहा अलकायदा
जस्टिस पारदीवाला अब बार-बार कह रहे हैं कि सोशल मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा लांघ रहा है। क्या उन्होंने अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी? उनके सामने तो केस के मेरिट पर फैसला देने का मुद्दा था ही नहीं। उनको बहुत सीमित मुद्दे पर फैसला देना था कि एफआईआर को सुनवाई के लिए एक साथ मिलाया (क्लब किया) जा सकता है या नहीं। अदालतों की आम परंपरा रही है कि अगर एक ही आरोप में कई एफआईआर हुए हैं तो उन सबको क्लब कर दिया जाए। उस पर उन्होंने इतना लंबा-चौड़ा भाषण दे दिया। अब उनको ऐतराज है कि सोशल मीडिया जजों पर व्यक्तिगत हमले कर रहा है, आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर वे टिप्पणी करते हैं। आपने जब नूपुर शर्मा के केस में टिप्पणी की तो आपको पूरी जानकारी थी क्या? आपको जब नूपुर शर्मा के वकील ने कहा कि न्यूज चैनल के एंकर ने उकसाया तो आपने कहा कि एंकर पर भी एफआईआर किया जाए। मतलब आपको पता ही नहीं था कि एंकर ने क्या किया? डिबेट में मौजूद तस्लीम रहमानी नाम के सज्जन ने शिवलिंग के बारे में, भगवान शिव के बारे में जो कुछ कहा उसके बारे में आपको पता नहीं था या फिर आपने जिक्र करने की हिम्मत नहीं जुटाई या उसको जरूरी नहीं समझा। आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर आपने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह दीं। आपको मालूम था कि आपकी बातें मीडिया की सुर्खियां बनेंगी, तब भी आपने कह दिया। आपको इस बात की चिंता है कि सोशल मीडिया में आलोचना हो रही है लेकिन आपको इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आपकी टिप्पणी का समर्थन अलकायदा का प्रवक्ता कर रहा है।
इस्लाम को लेकर क्यों डर जाती है न्यायपालिका
आपने कितना बड़ा नुकसान किया है देश का, समाज का, सांप्रदायिक सौहार्द के वातावरण का- इसका अंदाजा लगाइए। जहां तक लोगों की आलोचना का, उनके बोलने का मामला है, जिस मीडिया की बात आप कर रहे हैं, माननीय न्यायाधीश महोदय यह मत भूलिए कि एडमिरल नंदा के पोते, जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा जैसों को सजा नहीं मिलती अगर मीडिया ने हंगामा न किया होता। वे तो अदालत से बरी हो चुके थे। मीडिया ने इन मुद्दों को उठाया और उसके बाद फिर से मुकदमे खुले, फिर से जांच हुई और दोषियों को सजा मिली। मीडिया की भूमिका को आप इतना कमतर करके आंक रहे हैं। अगर आप अपनी आलोचना के प्रति इतने ही संवेदनशील हैं और आप कह रहे हैं कि जजमेंट के बारे में आलोचना करने वाले नहीं जानते हैं, संविधान के बारे में नहीं जानते हैं तो मेरा सीधा सवाल है कि सोशल मीडिया पर आपकी या किसी भी जज की आलोचना फैसले को लेकर हो रही है क्या? आपने नूपुर शर्मा के मामले में जो फैसला दिया उस पर किसी ने आलोचना नहीं की है। आपने जो टिप्पणियां की उसकी आलोचना हो रही है- जो बेवजह थीं। अगर आप समझते थे कि जो टिप्पणियां कर रहे हैं वह इतनी गंभीर बात है- इतनी सही बात है- तो आपको साहस दिखाना चाहिए था उसको अपने जजमेंट में लिखने का। आपमें लिखने का साहस नहीं था। दरअसल, जब भी इस्लाम की बात आती है, जब भी कुरान की बात आती है, जब भी कुरान की कुछ आयतों की बात आती है तो भारत की न्यायपालिका इसी तरीके से डर जाती है।
क्या इस्लाम हिंसा को बढ़ावा देता है?
इसका दूसरा उदाहरण भी देता हूं। 20 जुलाई, 1984 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के हिमांशु चक्रवर्ती ने एक पत्र लिखा पश्चिम बंगाल के तत्कालीन गृह सचिव को। अपने पत्र में उन्होंने कुरान की अलग-अलग आयतों को उद्धृत करते हुए कहा कि ये आयतें हिंसा, शांति भंग करने, धर्म के आधार पर वैमनस्य को बढ़ावा देती हैं। इसके अलावा उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि ये दूसरे धर्मों का अपमान करती हैं- दूसरे धर्म के अनुयायियों की आस्था का अपमान करती हैं- उनके विश्वास का अपमान करती हैं। इस पत्र का कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद उन्हें कलकत्ता के ही चांद मल चोपड़ा मिले। उन्होंने भी गृह विभाग को पत्र लिखा लेकिन उसका भी कोई जवाब नहीं मिला। 20 मार्च, 1985 को उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर दी। याचिका संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी। यह याचिका पहुंची जस्टिस खस्तगीर के पास जिन्होंने दूसरे जज को इसे ट्रांसफर करते हुए कहा कि दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो इस मुद्दे पर फैसला दे सके और दुनिया की किसी अदालत को इस मुद्दे पर विचार करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने सिर्फ दूसरे जज को याचिका ट्रांसफर की थी जिसमें कुरान की आयतों को लेकर सवाल उठाया गया था। इतनी सी बात पर कलकत्ता में दंगे शुरू हो गए। उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। इसी बात पर याचिकाकर्ता की आलोचना होने लगी और उनके खिलाफ बोला जाने लगा। जस्टिस खस्तगीर पर यह दबाव पड़ने लगा कि उन्होंने याचिका दाखिल होते ही क्यों नहीं उसे नामंजूर कर दिया, किसी दूसरे जज के पास ट्रांसफर क्यों किया। चांद मल चोपड़ा को हलफनामा दायर करने के लिए 17 मई की तारीख दी गई थी लेकिन उनका हलफनामा आने से पहले ही 13 मई को याचिका खारिज कर दी गई।
कुरान की आयतें घृणा फैलाने वाली- कोर्ट
इस पूरे मुकदमे को विस्तार से अगर आपको पढ़ना हो तो लेखक, विचारक सीताराम गोयल की “कलकत्ता कुरान पिटिशन” नाम से एक छोटी सी पुस्तिका है जिसमें इस केस का विस्तृत ब्योरा मिल जाएगा। अब आ जाइए 1986 में। दिल्ली की एक मेट्रोपोलिटन अदालत में दो लोगों के खिलाफ एक मुकदमा दायर हुआ। उन पर आरोप था कि उन लोगों ने पोस्टर छापे जिसमें कुरान की 24 आयतों का जिक्र था और कहा गया था कि जब तक ये आयतें कुरान से नहीं हटाई जाएंगी तब तक दंगे नहीं रोके जा सकते। जाहिर है कि उन पर 153ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट का नाम था जेड. एस. लोहत। उन्होंने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया और एक तरह का इतिहास रचा। उन्होंने 31 जुलाई, 1986 को दिए अपने फैसले में कहा, “पाक कुरान शरीफ के प्रति मेरा पूरा सम्मान है लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये आयतें निश्चित रूप से घृणा फैलाने वाली हैं और इससे मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच में विद्वेष और वैमनस्य बढ़ेगा।” उन्होंने उन दोनों आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया। उसके बाद से किसी अदालत ने इसकी जरूरत नहीं समझी कि इस मामले पर विचार किया जाए। बात सिर्फ यही नहीं है कि ये बात गैर-मुस्लिम उठा रहे हैं, उनसे ज्यादा ये बातें मुस्लिम मजहब को मानने वाले उठा रहे हैं। इस्लाम को मानने वाले लोगों में धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनका मानना है कि ये आयतें आज के जमाने के हिसाब से ठीक नहीं हैं।
शरिया जरूरी या संविधान
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने नुपूर शर्मा के मामले में जो टिप्पणी की उससे यह संदेश देने की कोशिश की गई कि इस देश में अघोषित रूप से ईशनिंदा का कानून लागू है। जो बात नूपुर शर्मा ने बोली वह बात कई मुस्लिम बुद्धिजीवी, मौलाना, मौलवी आज से नहीं, सालों से बोल रहे हैं तो उनकी कोई गलती नहीं है। उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। इसका मतलब यही है कि गैर-मुस्लिम ऐसी बात नहीं बोल सकते, मुसलमान बोले तो ठीक है। गैर-मुस्लिम बोले तो यह ईशनिंदा है। दरअसल, इस्लाम का उदय हुआ अरब के मूर्ति पूजक मजहब के खिलाफ। उनके खिलाफ विद्रोह से शुरू हुआ। यह बात इस्लाम में, कुरान में पूरी तरह से समाहित है कि मूर्ति पूजा करने वालों को जीने का अधिकार नहीं है। इस बात पर देश की कोई अदालत सुनवाई करने को तैयार नहीं है, मेरिट पर सुनवाई करने को तैयार नहीं है। नूपुर शर्मा ने जो कहा और अगर उन्होंने कानून तोड़ा है तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए लेकिन पहले इस पर तो विचार होगा कि नूपुर शर्मा ने जो कुछ कहा वह सच्चाई है या नहीं। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कहा है कि जो लोग शरिया के मुताबिक रहना-चलना चाहते हैं वे फिर ऐसे देश में चले जाएं जहां शरिया लागू है। यही सवाल मैंने पहले भी उठाया था कि यह देश शरिया से चलेगा या संविधान से। यह बात जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पारदीवाला को बतानी चाहिए।
संविधान सर्वोपरि तो शरिया की दुहाई क्यों?
इसी विवाद के बीच चीफ जस्टिस ने अमेरिका में एक कार्यक्रम में कहा कि भारत में सभी राजनीतिक दल चाहते हैं कि अदालत उनके मुताबिक फैसला करे लेकिन सुप्रीम कोर्ट संविधान के मुताबिक फैसला करता है। हम यही तो चाहते हैं कि संविधान के मुताबिक फैसला कीजिए। कोई नहीं चाहता है कि आप संविधान से बाहर जाकर फैसला कीजिए। कोई नहीं कह रहा है कि आप सरकार या जो विपक्षी दल हैं उनकी मर्जी के मुताबिक फैसला कीजिए। लेकिन संविधान क्या कहता है उसकी सच्चाई पर तो गौर करेंगे, कहीं संविधान की दुहाई देंगे तो कहीं शरिया की दुहाई देंगे, यह दोनों का खेल कैसे चलेगा और कब तक चलेगा। यह जो लोगों की जागरूकता है आप उसको गाली दे सकते हैं। जस्टिस पारदीवाला ने एक कार्यक्रम में कहा है कि भारत की डेमोक्रेसी मैच्योर और इन्फॉर्म नहीं है। मुझे लगता है कि भारत की डेमोक्रेसी अगर मैच्योर और इन्फॉर्म नहीं है तो दुनिया की कोई डेमोक्रेसी ऐसी नहीं है। ये बात वो कह रहे हैं जो भागते हैं आरटीआई (सूचना का अधिकार कानून) से। देश की हर संस्था में आरटीआई हो, पारदर्शिता हो, फैसलों की जानकारी आम लोगों को मिलने का हक हो- लेकिन सुप्रीम कोर्ट में आरटीआई लागू नहीं होगा।
दुनिया की अकेली संस्था
यह दुनिया की अकेली संस्था है जहां ये खुद अपने आपकी नियुक्ति करते हैं। जज कौन बनेगा यह जज ही तय करेगा। नेशनल ज्यूडिशियल अप्वॉइंटमेंट कमीशन बना, संसद की स्थायी समिति से पास हुआ, न्यायाधीश महोदय ने उसे रिजेक्ट कर दिया, लागू नहीं होने दिया। हम ही तय करेंगे कि हममें से जज कौन बनेगा, हम किसको जज बनाएंगे, कौन हाई कोर्ट में जाएगा, कौन चीफ जस्टिस बनेगा, सुप्रीम कोर्ट आएगा, यह सब फैसला हम करेंगे। ठीक है आप करेंगे तो जवाबदेही भी तो आप लेंगे! सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जज जो ऐसी टिप्पणियां करते हैं वे किसके प्रति जवाबदेह हैं यह देश जानना चाहता है। सोशल मीडिया को कंट्रोल करने, उसे रेगुलेट करने की बात कर आप उसी तरह की बात कर रहे हैं जो राजनीतिक दल और सत्तारूढ़ दल करते हैं। मीडिया असुविधाजनक हो जाए तो सत्तारूढ़ दल उस पर नियंत्रण की बात करते हैं। यही बात जस्टिस पारदीवाला बोल रहे हैं कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण करना बड़ा जरूरी हो गया, इसलिए कि उनकी आलोचना हो रही है, इसलिए कि सही सवाल उठाए जा रहे हैं, इसलिए कि लोगों ने चुप रहना बंद कर दिया है। अब लोगों में इस बात का डर नहीं है कि कोर्ट के पास ताकत है कोर्ट की अवमानना की जिसमें जेल भेजा जा सकता है। ऐसे लोगों की संख्या अब कम नहीं है जो इसके लिए जेल भी जाने को तैयार हैं लेकिन सवाल उठाना बंद करना नहीं चाहते। यह कैसे हो सकता है कि आप वह काम कर रहे हैं जिसकी आपसे अपेक्षा नहीं है। आप ही के समुदाय के लोग कह रहे हैं, आप ही के जज जो कह रहे हैं उस पर भी चलने को तैयार नहीं हैं तो मामला यहीं तक रुकने वाला नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का कोई जज अगर गैर-जिम्मेदाराना तरीके से व्यवहार करेगा तो सवाल उठेगा, आलोचना होगी- आलोचना सुनने के लिए आपको तैयार रहना पड़ेगा।