राजू सजवान।
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के यूट्यूब चैनल पर अमेजन के जंगलों में रह रहे त्सिमाने जनजाति पर लगभग 15 मिनट की एक डॉक्यूमेंटरी है। जिसकी शुरुआत होती है, 78 साल के एक ऐसे व्यक्ति से, जो अपने भोजन के लिए तीर कमान लेकर निकले हैं। वे हर उस काम को करते हैं, जो उनसे कम उम्र के युवा करते हैं। एक और दादी हैं, जो पेड़ों पर चढ़ जाती हैं, दर्जनों केलों को काटकर सिर पर लादते हुए लगभग दौड़ते हुए चलती हैं। दरअसल यह कहानी इस प्रजाति उन लोगों पर है, जिनकी उम्र तो बढ़ रही है, लेकिन उम्र का असर उनके शरीर पर नहीं हो रहा है।
आदिवासियों की इस प्रजाति पर वैज्ञानिक अध्ययन भी हो रहे हैं। बीबीसी की यह रिपोर्ट बताती है कि यहां के लोग औसतन रोजाना 40 हजार कदम चलते हैं। उम्र का शरीर पर असर न दिखने की वजह वैज्ञानिक उनके खानपान को बताते हैं। वो लोग जो उगाते हैं, वही खाते हैं। या जंगल से बीन कर खाते हैं। जानवरों का मीट खाते हैं।
लेकिन पिछले कुछ सालों से अमेजन के जंगलों में आग लग रही है। जंगल में आग लगने के यूं तो कई कारण हैं, लेकिन दो बड़े कारण हैं। इनमें एक तो ग्लोबल वार्मिंग और दूसरा इंसानी गतिविधियां हैं, जो जानबूझ कर इन जंगलों में आग लगा रहे हैं। लेकिन जंगलों की इस आग ने इन आदिवासियों का जीवन ही बदल दिया है। उन्हें खाने के लाले पड़ गए हैं। जंगली जानवर या तो जल कर मर चुके हैं या वहां से भाग चुके हैं। उन्हें जंगली फल नहीं मिल पा रहे हैं। उनके उगाए फल सब्जियां भी अब नहीं हो रही हैं। उन्हें नजदीकी इलाकों से अनाज, सब्जियां या फल खरीद कर लाना पड़ रही है। जिंदा रहने के लिए गाय पालनी पड़ रही है।
खानपान में आए इस बदलाव का असर अब उनके शरीर पर दिखने लगा है। वो मोटे होने लगे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि वो दिन दूर नहीं, जब उन पर सामान्य लोगों की तरह उम्र का असर उनके शरीर पर दिखने लगेगा और वे बीमार होकर मरने लगेंगे।
बेशक यह कहानी हम भारतीयों के पास हजारों मील दूर अमेजन के जंगलों से अब पहुंच रही है, लेकिन हकीकत यह है कि हम से एक या दो पीढ़ी पहले हमारे बुजुर्ग भी लगभग इसी स्थिति में थे। हिमालय के पहाड़ों में रहने वाले लोगों की ही अगर बात करें तो मात्र तीन दशक पहले तक वहां की औसत आयु 90 साल के आसपास रही होगी। लोग खूब पैदल चलते थे। जंगली फल खाते थे या अपने गांव के आसपास बनाए गए सीढ़ीदार खेतों में उगाया अन्न, सब्जियां खाते थे। साफ हवा उनके फेफड़ों को ऐसी जान देती थी कि वे बिना हांफे पहाड़ों पर दौड़ते-दौड़ते चढ़ जाते।
लेकिन शहरीकरण की ऐसी ‘हवा’ यहां रह रहे लोगों को लगी कि सब कुछ बदल गया। अमेजन की तरह जंगलों में आग लगने लगी। पेड़ काटे जाने लगे। उत्तराखंड में शुरू हुए चिपको आंदोलन का असर यह हुआ कि साल 1981 में पेड़ काटे जाने पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि हकीकत यह थी कि चिपको आंदोलन की शुरुआत स्थानीय लोगों के जंगलों पर अधिकार को लेकर हुई थी। लोग चाहते थे कि सरकार जंगल का अधिकार व प्रबंधन उन्हें सौंपे, लेकिन आंदोलन को मिली अंतरराष्ट्रीय ख्याति की वजह से पेड़ों की कटाई पर ही पाबंदी लगा दी गई।
हाल यह हुआ कि सरकार ठेके देकर पेड़ काटने लगी। विकास परियोजनाओं के नाम पर पेड़ काटने लगी, लेकिन स्थानीय लोगों को इसकी इजाजत नहीं दी गई। लोगों ने जंगलों को बेसहारा छोड़ दिया। इस वजह से जंगलों में आग लगने लगी। अपने रोजगार के लिए लोग पहाड़ छोड़ने लगे। खेती छोड़ दी। जो लोग वहां बचे, उनके लिए सरकारों ने राशन का इंतजाम कर दिया। लेकिन सार्वजनिक वितरण योजना के तहत मिले इस राशन ने उन्हें बीमारियां देनी शुरु कर दीं। क्योंकि केमिकल फर्टिलाइजर व कीटनाशकों के बूते उगे गेहूं-चावल ने उनके शरीर को खोखला करना शुरू कर दिया।
वे मैदानी इलाकों में इंजेक्शन लगा कर उगाई गई साग-सब्जी खाने लगे। कभी रोजाना कई-कई किलोमीटर पैदल चलने वाले लोग मोटर के इंतजार में घंटों बिताने लगे। पहाड़ पर रहने वाले लोगों को वो सब बीमारियां होने लगीं, जो शहरों में रहने वाले लोगों को होती हैं। ब्लड प्रेशर, हाइपरटेंशन, हार्ट अटैक, कैंसर जैसी जीवन शैली पर आधारित बीमारियां लगने लगी हैं और औसत आयु भी कम हो गई है। हालांकि इस पर व्यापक अध्ययन की जरूरत है, लेकिन इसके प्रमाण स्पष्ट दिख रहे हैं।
(लेखक पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ से जुड़े हैं)
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