प्रदीप सिंह।
आचार्य रजनीश यानी ओशो ने कहा है- “धर्म जीवन को जीने की कला है, जीवन को जीने का विज्ञान। हम जीवन को उसके पूरे अर्थों में कैसे जिएं, धर्म उसकी खोजबीन है। धर्म यदि जीवन कला की आत्मा है तो राजनीति उसका शरीर। लेकिन भारत का दुर्भाग्य समझा जाना चाहिए कि हजारों वर्षों से राजनीति और धर्म के बीच कोई संबंध नहीं रहा।“ धर्म और राजनीति के इस संबंध को फिर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। इसलिए इसकी विरोधी ताकतें जी-जान से इसे रोकने की कोशिश कर रही हैं। क्योंकि उनके लिए धर्म से निरपेक्ष राजनीति ही श्रेष्ठ राजनीति है। डराया जा रहा है कि इससे बहुसंख्यकवाद हावी हो जाएगा। यह भी कि यह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में पहला कदम है।
गंगा-जमुनी तहजीब का पाखंड
बात केवल इतनी ही होती तो समस्या उतनी गंभीर न होती। समस्या इससे भी बड़ी है। बताया यह जा रहा है कि राजनीति यदि सनातन धर्म से जुड़ेगी तो देश और समाज रसातल में चला जाएगा। पर राजनीति यदि किसी दूसरे मजहब/ पंथ से जुड़ेगी तो प्रगतिशील और आधुनिक होगी। इस तरह की पंथ निरपेक्ष राजनीति को वैधता दिलाने के लिए गंगा-जमुनी तहजीब नाम का पाखंड बहुत पहले रचा गया था। इस तहजीब के पैरोकारों से कोई पूछे कि यदि देश में गंगा-जमुनी तहजीब थी तो धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की मांग क्यों हुई। देश के बंटवारे की मांग करने वाले कोई बाहर से तो आए नहीं थे। उस समय वह गंगा-जमुनी तहजीब कहां चली गई थी जब लाखों लोगों का कत्लेआम हुआ।
अतीत को नहीं भूलना चाहिए
कहते हैं कि अतीत को भूलना नहीं चाहिए। इसलिए नहीं कि बदला लेना है। इसलिए कि फिर उस दौर से न गुजरना पड़े। पर लगता है देश का एक वर्ग अतीत को भूल गया है। इसलिए उसे दोहराने पर आमादा है। हाल ही में हरिद्वार में एक धर्म संसद हुई। उसमें साधु वेश में कुछ लोगों ने जो बात कहीं उसे किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता। उसकी निंदा भी हुई और देश के कानून के मुताबिक जो कार्रवाई होनी चाहिए, वह हो भी रही है। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी उसका संज्ञान लिया है। किसी भी कानून के राज्य में ऐसा ही होना चाहिए। पर अफसोस की बात है कि ऐसी ही बातें दूसरे मजहब/पंथ की ओर से कही और की जाती हैं तो उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस्लाम की किसी बात की आलोचना करने वाले का या तो सिर कलम कर दिया जाता है या उसका सर कलम करने का फतवा जारी हो जाता है। इस पर एक अजीब सा सन्नाटा रहता है। ताजा उदाहरण वसीम रिजवी हैं जो अब जीतेन्द्र नाथ त्यागी हो गए हैं। उन्होंने इस्लाम या पैगम्बर साहब पर कोई सवाल नहीं उठाया। केवल कुरान की कुछ आयतों पर सवाल उठाया कि किसी सभ्य, आधुनिक और जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी मजहब में ऐसी बातें कैसे की जा सकती हैं। आप उनकी राय से अहमत होने के लिए स्वतंत्र हैं। उनकी आलोचना या निंदा भी कर सकते हैं। कह सकते हैं कि उनके तर्कों में कोई दम नहीं है। पर उन्हें जान से मारने का फतवा जारी करना कौन से कानून के तहत जायज है। इस बात का और ऐसे फतवों का कोई अदालत संज्ञान क्यों नहीं लेती। इसके खिलाफ देश के एक वर्ग में वैसा आक्रोश, विरोध क्यों नहीं दिखता।
दोहरे मापदंड क्यों
समस्या की जड़ यही है। जय श्रीराम का नारा लगाना साप्रदायिकता है। मुसलिम लीग, शाही ईमाम और इंडियन सेक्युलर फ्रंट के मौलाना के साथ खड़े होना और चुनाव लड़ना धर्मनिरपेक्षता है। मुसलिम युवाओं को छूट दे दें तो हिंदुओं को छिपने की जगह नहीं मिलेगी। कहने वाले तौकीर रजा का कांग्रेस के नेता ऐसे स्वागत करते हैं जैसे कोई खुदाई खिदमतगार आ गया हो। तौकीर रजा बाटला हाउस एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादियों को शहीद बताता है। वह देश में गृह युद्ध की धमकी देता है। और देश की कथित धर्म निरपेक्ष बिरादरी मुंह सिल लेती है। देश के प्रधानमंत्री की बोटी बोटी काटने की धमकी देने वाले को कांग्रेस में पदोन्नति मिलती है, तो अखिलेश यादव गले लगाने को आतुर नजर आते हैं। और अपनी पार्टी में खुशी-खुशी ले भी लेते हैं। इन सब बातों में असामान्य कुछ नहीं है। इससे शायद गंगा-जमुनी तहजीब मजबूत होती है। जो मजहब इंसान को सुसंस्कृत न बनाकर बर्बर बना दे उस पर सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए। बदलना नहीं बदलना तो बाद की बात है, चर्चा तो होनी चाहिए। उसके लिए भी कोई तैयार नहीं है। तो सनातन धर्म के बारे में कुछ भी कहा, बोला, लिखा और किया जा सकता है। क्यों? क्योंकि हमारे शंकराचार्य उन्माद नहीं पैदा करते। वे हत्या के झूठे आरोप में चुपचाप जेल चले जाते हैं और देश सामान्य रूप से चलता रहता है। किसी और मजहब/ पंथ के किसी अदना से व्यक्ति के साथ ऐसा करके देखिए।
कम से कम सवाल तो पूछिए
तो हरिद्वार में जो कुछ हुआ उसके लिए जिम्मेदार लोगों को फांसी पर चढ़ा दीजिए लेकिन दूसरों से कम से कम सवाल तो पूछिए। पर कोई ऐसा करेगा नहीं। क्योंकि ऐसा करने से धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाएगी। भारत देश में धर्मनिरपेक्षता गैर हिंदुओं की कट्टरता और धर्मान्धता की खाद- पानी से पुष्पित- पल्लवित होती है। जिन लोगों ने आजादी के बाद देश का राष्ट्रीय विमर्श गढ़ा उनकी अवधारणा है कि देश में धर्मनिरपेक्षता तभी तक सुरक्षित है जब तक गैर हिंदुओं को कट्टर से और कट्टर होने की छूट है। पर सनातन संस्कृति की बात करना भी साम्प्रदायिकता माना जाएगा।
सर्वोत्तम मार्ग सनातन की पुनर्स्थापना
समय आ गया है कि भारत के साधू-संतों को खड़ा होना चाहिए सनातन की रक्षा के लिए। ‘कोउ नृप होय हमहिं का हानी’ की सोच ने ही हजार साल गुलाम बनाया। व्यक्ति की जिंदगी, समाज और देश को बदलना है तो अच्छे लोगों के हाथ में सत्ता का होना जरूरी है। पिछले छह दशकों से ज्यादा का अनुभव बताता है कि हमने क्या खोया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि क्या हासिल कर सकते थे जो नहीं कर पाए। सर्वोत्तम मार्ग चुनना है तो वह सनातन की पुनर्स्थापना के जरिए ही हो सकता है। बात शुरू की थी ओशो के कथन से उन्हीं के कथन से समाप्त करता हूं- जीवन को ऊंचा उठाने वाले जो भी सिद्धांत हैं, उन सब सिद्धांतों का इकट्ठा नाम धर्म है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)