प्रमोद जोशी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के चुनाव-घोषणापत्र जो तीखा हमला बोला है, वह कई मायनों में विस्मयकारी है। प्रतिस्पर्धी पार्टी के घोषणापत्र की आलोचना एक बात होती है, पर इस घोषणापत्र पर उन्होंने मुस्लिम लीग की छाप बताकर बहस का एक आधार तैयार कर दिया है। यह मुद्दा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। सबसे पहले मेरठ की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में मुस्लिम लीग की छाप है। जो चीजें बच गई थीं उसपर वामपंथी हावी हो गए। इसके बाद अलग-अलग राज्यों में हुई चुनावी रैलियों में भी प्रधानमंत्री ने यह मुद्दा उठाया।
कांग्रेस पार्टी के आर्थिक-कार्यक्रमों में टॉमस पिकेटी, क्रिस्तॉफ जैफ्रेलो और ज्याँ द्रेज़ जैसे विशेषज्ञों के विचार भी दिखाई पड़ रहे हैं। राहुल गांधी खुद को सबसे बड़ा वामपंथी साबित करना चाहते हैं। हाल के वर्षों में कांग्रेस पार्टी की सरकार की सबसे बड़ी भूमिका 1991 के आर्थिक सुधारों के रूप में रही है। पार्टी अब पहिया उल्टी दिशा में घुमाने को आतुर है। पश्चिमी देशों के विशेषज्ञ सायास या अनायास हिंदू समाज-व्यवस्था पर हमले बोल रहे हैं और जो सुझाव दे रहे हैं, उनसे सामाजिक-व्यवस्था के विखंडन का खतरा पैदा हो रहा है।
कौन सी मुस्लिम लीग?
अब हम मूल स्थापना पर वापस आते हैं। प्रश्न है कि मुस्लिम लीग से प्रधानमंत्री का आशय किस मुस्लिम लीग से है, विभाजन से पहले की लीग से या विभाजन के बाद बनी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल)से?भारत में मुस्लिम लीग का सामान्य अर्थ विभाजन से जोड़ा जाता है। वह विभाजन चाहे देश का हो या भारतीय समाज का। अविभाजित भारत की मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए बनी थी, जिसकी परिणति देश के विभाजन में हुई और स्वतंत्रता के बाद भारत में बनी मुस्लिम लीग भी मुस्लिम हितों के रक्षार्थ बनी है, पर उसका लक्ष्य विभाजन नहीं है, बल्कि भारत की सांविधानिक-व्यवस्था में रहते हुए मुसलमानों के हितों की रक्षा करना है।
1947 में जब पाकिस्तान बना तो मुस्लिम लीग का वह धड़ा जो अलग राष्ट्र की माँग कर रहा था, पाकिस्तान चला गया। उसी मुस्लिम लीग में कुछ ऐसे नेता भी थे, जो पाकिस्तान नहीं गए। ये लोग खासतौर पर वे थे, जो दक्षिण भारत में रहने वाले थे। मुस्लिम लीग की ज्यादा बड़ी ताकत उत्तर भारत में थी, जिसके बड़े नेता पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान बनने के बाद दिसंबर 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने भारत में रहने का निर्णय करने वाले पार्टी नेताओं को अपने भविष्य का फैसला खुद करने के लिए कहा। इसके बाद दक्षिण के मुस्लिम नेताओं ने चेन्नई में बैठक बुलाई, जहां आईयूएमएलकी नींव पड़ी।
इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का गठन 10 मार्च, 1948 को हुआ था। भारत में इसका प्रभाव केरल और आंशिक रूप से तमिलनाडु में है। केरल में यह शुरू में वाममोर्चा के साथ गठबंधन में थी और अब कांग्रेस के गठबंधन में है। पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन का एक भी हिस्सा है। लीग के नेता ईअहमद को पहली बार 2004 में विदेश राज्यमंत्री का पद भी मिला था। पिछले 76 वर्षों में इसके भी दो टुकड़े हो गए। एक टुकड़ा वाममोर्चा के साथ गया और दूसरा कांग्रेस के साथ। 1985 में दोनों का फिर से विलय हो गया। बाद में इनके भीतर से इंडियन नेशनल लीग नाम से एक और राजनीतिक दल भी केरल में उभर कर आया, जो वाममोर्चे के साथ है। पाकिस्तान में भी मुस्लिम लीग नाम के कई संगठन आज भी सक्रिय हैं।
धर्मनिरपेक्षता और मुसलमान
सिद्धांततः यह पार्टी भारत की अखंडता और सांविधानिक व्यवस्था की समर्थक है। अलबत्ता यह मुसलमानों के लिए अंग्रेजी, अरबी, और उर्दू शिक्षा का पक्षधर है और मुसलमानों के आरक्षण का समर्थक। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडा का विरोधी है और इस्लाम के अनुसार जीवन पद्धति अपनाने का समर्थक। आईयूएमएल ने अपनी वैबसाइट में राजनीतिक विचारधारा के बारे में बताया है। इसमें कहा गया है कि पार्टी मुस्लिम समुदाय और समाज के अन्य पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने में मदद करना चाहती है।लीग मुस्लिम पर्सनल लॉ की पक्षधर है। उसका कहना है कि पर्सनल लॉ मुस्लिम समुदाय को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो मुख्य रूप से समुदाय के विकास के लिए आवश्यक है।
पिछले साल राहुल गांधी ने अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में मीडिया से बातचीत के दौरान कहा कि केरल में कांग्रेस पार्टी की सहयोगी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ‘पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष’ पार्टी है। उनके इस बयान के बाद भी बीजेपी ने राहुल गांधी और कांग्रेस पर एक ऐसे संगठन का समर्थन करने का आरोप लगाया, जिसने देश के विभाजन का समर्थन किया और उग्रवादी विचारों को जारी रखा। रोचक तथ्य यह भी है कि 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने आईयूएमएल को दंगे-फसाद भड़काने वालों की पार्टी बताया था। उन्होंने इसे मरा हुआ घोड़ा भी कहा। उस समय उसका कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं था, पर 1961 में कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) और आईयूएमएल का गठबंधन भी हुआ। अलबत्ता आईयूएमएल से कोई मंत्री नहीं बना था। इसके बाद 1967 में केरल की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने सबसे पहले आईयूएमएल को सत्ता में जगह दी थी।
तीन तलाक
अब सवाल है कि भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप क्यों देख रही है? बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का कहना है कि कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में धार्मिक आधार पर बने विशेष कानून बनाए रखने की वकालत की है। क्या माना जाए कि कांग्रेस तीन तलाक कानून को समाप्त करके इस कुरीति को पुनर्स्थापित करने वाला सोच रखती है? कांग्रेस वही वादे कर रही है जिनकी माँग मुस्लिम लीग ने की थी।कांग्रेस उसी मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन में है, जो आजादी से पहले मोहम्मद अली जिन्ना की थी। जो भावनाएं मुस्लिम लीग की थीं, वही भावनाएं आज कांग्रेस की हैं।
उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टीवी इंटरव्यू में कि यह मेरी जिम्मेदारी है कि तथ्यों के आधार पर कांग्रेस के मैनिफेस्टो के सचको बाहर लाया जाए। यह मीडिया की जिम्मेदारी भी होती है कि वह हर पार्टी के घोषणापत्र को पढ़े। मैं मीडिया का इसके लिए इंतजार कर रहा था। मैंने पहले ही दिन मैनिफेस्टो को पढ़ा था। इसे देखकर ऐसा लगता है कि इसपर मुस्लिम लीग की छाप है। मैं सोचता था कि मीडिया इसे पढ़कर दंग रह जाएगा, लेकिन लोग सिर्फ वही दोहराते रहे जो कांग्रेस ने पेश किया। इसके बाद मुझे लगा कि यह पूरी व्यवस्था के साथ एक बड़ा घोटाला है, जिसे सामने लाना चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने कहा, मैं दस दिन तक शांत रहा और सोच रहा था कि कोई तो इस मैनिफेस्टो की नकारात्मक बातों को सामने लाएगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो मैं इसपर बोलने के लिए बाध्य हुआ। मैं सच को सामने लाना चाहता हूं। उन्होंने सैम पित्रोदा का नाम लिए बगैर उनपर हमला बोलते हुए कहा कि जब कांग्रेस पार्टी के एक महान व्यक्ति ने अमेरिका से इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने विरासत टैक्स की बात की जो आपकी संपत्ति का तकरीबन55 फीसदी होगा। मैं विकास की बात करता हूं तो कांग्रेस लूट की बात कर रही है।
नरेंद्र मोदी का कहना है कि कांग्रेस राजनीतिक फायदे के लिए मुसलमानों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणी में रखना चाहती है। 2004 में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने सबसे पहले आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को ओबीसी कोटा प्रदान किया। पार्टी ने 2011 में भी ऐसा फैसला किया और उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी इसी रणनीति को अपनाया, पर वह विफल रही।
जितनी आबादी, उतना हक़
भारतीय जनता पार्टी की इस आलोचना से हटकर देखें, तो कांग्रेस के कार्यक्रमों के अंतर्विरोध भी उभरकर सामने आते हैं। एक अरसे से राहुल गांधी कहते रहे हैं, ‘जितनी आबादी, उतना हक़।’ सांविधानिक सिद्धांतों के आधार पर यह बात गलत है। पिछले साल कर्नाटक विधानसभा-चुनाव के दौरान कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया, ‘जितनी आबादी, उतना हक।’ वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशी राम के नारे का ही एक रूप था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ राहुल गांधी ने अपने इस ‘प्रण’ को दोहरा तो दिया, पर यह बात समस्या बनकर खड़ी भी हो सकती है। भविष्य में परिसीमन के बाद संसद में उत्तरी राज्यों की सीटें बढ़ेंगी, तब उसका दक्षिण में विरोध होगा। तब राहुल गांधी ‘जिसकी जितनी संख्या भारी’ के सिद्धांत को किस प्रकार उचित ठहराएंगे, यह देखना होगा। क्या वे अपनी पार्टी के भीतर उस भागीदारी को जगह देंगे?
इस बात को याद रखना चाहिए कि देश में 1947 से पहले ‘आनुपातिक-प्रतिनिधित्व’ की माँग मुस्लिम-लीग ही उठाती रही थी। हमारी संविधान सभा ने भी ‘आनुपातिक-प्रतिनिधित्व’ के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। देश की जनता को जातियों और धर्मों के खाँचे में बाँटने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
(लेखक ‘हिंदुस्तान’ दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय सम्पादक हैं)