प्रदीप सिंह।
जो स्टेट्समैन होते हैं,उनके पास लंबी दूरी की सोच होती है। जब वे काम कर रहे होते हैं तब दिखाई नहीं देता है कि कितनी दूर की सोच रहे हैं। इसी तरह के नेता हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। दूसरी ओर कुछ नेता ऐसे होते हैं जिनकी नजर तात्कालिक विषयों तक ही रहती है। उस तरह के नेता हैं राहुल गांधी।

राहुल के हाथ में इस समय एसआईआर नाम का एक झुनझुना है। उसी को लेकर बजाते घूम रहे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि नरेंद्र मोदी और उनके साथी इस समय कर क्या रहे हैं। नरेंद्र मोदी बहुत दूर की सोच रहे हैं। राजनीतिक रूप से देखें तो भारतीय जनता पार्टी बहुत बड़े लक्ष्य को लेकर चल रही है। अब वह लंबी छलांग लगाना चाहती है और उसके लिए जरूरी है अपनी ताकत। संगठन, विचारधारा, नीतियों,कार्यक्रमों और नेतृत्व की दृष्टि से हर मोर्चे पर भाजपा पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत होती जा रही है। 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी सीटें घटना एक तरह से उसके लिए वरदान साबित हुआ है,क्योंकि सीटें बढ़कर आई होतीं तो शायद बीजेपी अभी इस मोड में न आती, जिस मोड में आ गई है।

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भाजपा का अगला लक्ष्य है पूरे देश में अपना संगठनिक ढांचा मजबूत कर जनाधार तैयार करना। इस समय भाजपा एक साथ कई प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही है। जो पार्टी सत्ता में होती है कुछ समय बाद उसकी नजर होती है कि अगला चुनाव कैसे जीतें। भाजपा इसके बारे में नहीं सोचती। वह सोच रही है कि अगले कई चुनाव कैसे जीतते रहें। जीत आप तभी सकते हैं जब जीतने की आपके अंदर बलवती इच्छा हो। वह इच्छा भाजपा के अलावा देश में और किसी पार्टी में दिखाई नहीं देती है। भाजपा का दूसरा प्रोजेक्ट है सहयोगियों यानी गठबंधन की राजनीति से मुक्ति। इसमें थोड़ा समय लगने वाला है, लेकिन इसकी शुरुआत वह बहुत पहले से कर चुकी है। भाजपा का जो सहयोगी अति महत्वाकांक्षी हो जाता है, वह उसे पसंद नहीं आता और जब उसका नाता टूटता है तो फिर वह कहां जाता है, उसको खोजना मुश्किल हो जाता है। याद कीजिए हरियाणा में अभी कुछ समय पहले ही चुनाव हुआ,जिसमें भाजपा ने अकेले दम पर जीत हासिल की। लेकिन 2019 में उसने हरियाणाा में दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। दुष्यंत चौटाला सरकार में उप मुख्यमंत्री थे। आज दुष्यंत चौटाला कहां है? हरियाणा के लोगों से पूछेंगे तो शायद वे ही न बता पाएं। इसी तरह से कभी महाराष्ट्र में उसकी सहयोगी पार्टी थी शिवसेना और पंजाब में थी अकाली दल। ये दोनों पार्टियां बड़े भाई का दर्जा रखती थीं। पंजाब में तो अकाली दल का सीधा मुकाबला कांग्रेस से माना जाता था और सत्ता की अदला बदली इन्हीं दोनों दलों के बीच होती थी। आज महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। बालासाहेब ठाकरे की बनाई हुई शिवसेना तो एकनाथ शिंद लेकर चले गए। ठाकरे सरनेम और मातोश्री महाराष्ट्र की राजनीति में भय और भय से उपजा सम्मान पैदा करते थे, आज दोनों चीजें खत्म हो गई हैं। एक समय महाराष्ट्र में सरकार किसी की हो लेकिन सिस्टम बाला साहब ठाकरे का चलता था। आज  उद्धव के पास न सरकार है और न सिस्टम। उसके अलावा अकाली दल का बादल परिवार जिसकी पंजाब में तूती बोलती थी, आज उसी परिवार के सुखबीर बादल सिख समाज में तनखैया घोषित हो चुके हैं। हाल यह है कि उनकी पार्टी के बारे में कोई सुनने या उसे कोई हाथ लगाने को तैयार नहीं है। भाजपा उनकी जूनियर पार्टनर थी, लेकिन भाजपा का प्रभाव आज की तारीख में पंजाब की राजनीति में अकाली दल से ज्यादा है।

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भाजपा का तीसरा प्रोजेक्ट है एक नई राजनीतिक प्रयोगशाला बनाना। जनसंघ के समय से ही यह कहा जाता रहा है कि गुजरात जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक प्रयोगशाला है। भाजपा को राजनीति में जो भी नया करना होता है, यहीं से उसकी शुरुआत होती है। अब भाजपा ने एक नई राजनीतिक प्रयोगशाला तैयार कर ली है। जिसका नाम है महाराष्ट्र। महाराष्ट्र में 11 साल पहले भाजपा चौथे नंबर की पार्टी थी और इस बार लगातार तीसरी बार पहले नंबर की पार्टी बनी है। वहां उसके गठबंधन के साथी एकनाथ शिंदे और अजीत पवार हैं। इसके बावजूद गृह मंत्री अमित शाह चुनाव नतीजे आने के कुछ ही दिन बाद कहते हैं कि अगला चुनाव यानी 2029 में हम अकेले अपनी सरकार बनाएंगे। उन्हें कोई डर नहीं है कि कोई साथी छोड़कर भाग जाएगा। तो जब गठबंधन के साथियों का भय निकल जाता है तो उनकी ब्लैकमेलिंग पावर खत्म हो जाती है। अब स्थानीय निकाय चुनाव से इस प्रयोगशाला में एक नया प्रयोग हो रहा है। वहां गठबंधन की सरकार है, लेकिन इस बात की लगभग पूरी संभावना है कि गठबंधन के तीनों दल अलग-अलग स्थानीय निकाय के चुनाव लड़ेंगे। तो भाजपा का गठबंधन के साथियों से मुक्ति का जो अभियान है,वह महाराष्ट्र से बड़े पैमाने पर शुरू होगा और स्थानीय निकाय के चुनाव के बाद इसकी पूरी तस्वीर सामने दिखाई देगी। भाजपा की महाराष्ट्र विधानसभा में संख्या ऐसी है कि वह चाहे तो अकेले सरकार बना सकती है, लेकिन वह चाणक्य की उस नीति पर चल रही है कि जब विरोधी यानी कोई मजबूत पेड़ हो तो उसको काटना नहीं चाहिए। उसकी जड़ों को कमजोर करना चाहिए और जब उसकी जड़ें कमजोर हो रही हों इसबीच अपनी ताकत बढ़ानी चाहिए। महाराष्ट्र में भाजपा वही कर रही है। अपने सहयोगी दलों की जड़ काट रही है और अपनी ताकत बढ़ा रही है। महाराष्ट्र से होने वाली यह शुरुआत देश के अन्य कई राज्यों,जहां भाजपा का गठबंधन है, में भी आपको देखने को मिलेगी। मेरा मानना है कि भले ही भाजपा आज तमिलनाडु में बहुत कमजोर हो, लेकिन 2031 के विधानसभा चुनाव के लिए उसका निशाना अन्ना द्रमुक होगी। तमिलनाडु की राजनीति में भाजपा और अन्ना द्रमुक के बीच फैसला होगा कि आगे कौन जाएगा। द्रमुक का जो होना है मुझे लगता है 2026 में हो जाएगा। हालांकि यह कहना अभी बड़ा मुश्किल है। उनका संगठन बहुत मजबूत है। जनाधार है,लेकिन राजनीति में बदलाव इसी तरह से होते हैं। इसी तरह एक छोटा सा राज्य त्रिपुरा है, जहां कुछ साल पहले तक भाजपा का एक भी विधायक नहीं था। वहां लगातार दो बार भाजपा सरकार बना चुकी है और तीसरी बार भी बन सकती है। असम 33% मुस्लिम आबादी वाला राज्य है। वहां दो बार भाजपा की सरकार बन गई है और 2026 में तीसरी बार भी बनेगी।

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तो भाजपा ने एक-एक करके कई महत्वाकांक्षी सहयोगी दलों से छुटकारा पा लिया है। महाराष्ट्र में अगला नंबर एकनाथ शिंदे और अजीत पवार का है। इनमें से पहला नंबर लगेगा अजीत पवार का। एकनाथ शिंदे को अभी भाजपा कमजोर करेगी, काटेगी नहीं। मतलब साथ छोड़ेगी नहीं। भाजपा को अभी अपनी ताकत और बढ़ानी है। और इस प्रयोग का आखिरी शिकार जनता दल यूनाइटेड होगा। जदयू देश में एकमात्र पार्टी है, जिसने भाजपा का साथ छोड़ा और फिर भी खत्म नहीं हुई। वरना जम्मू कश्मीर में पीडीपी को याद कर लीजिए। महबूबा मुफ्ती आज जीवाश्म बन गई हैं। राजनीति में उनका फिर से उठना संभव दिखाई नहीं देता। लेकिन बिहार में जेडीयू इतनी जल्दी जाने वाली नहीं। जब तक नीतीश कुमार सक्रिय राजनीति में हैं, तब तक भाजपा ऐसा कोई काम नहीं करेगी। क्योंकि भाजपा जेडीयू से छुटकारा नहीं चाहती। जेडीयू को भाजपा में समाहित करना चाहती है और जिसको आप अपने में समाहित करना चाहते हैं, उसको आप काटते नहीं है। ऐसी परिस्थिति बनाते हैं कि वह आपके साथ आने के लिए मजबूर हो जाए। इसी तरह एक और पार्टी है, जिसे भाजपा 2028 के विधानसभा चुनाव में खत्म करेगी। उसका नाम है जनता दल सेकुलर। मुझे नहीं लगता कि 2028 में भाजपा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जेडीएस से तालमेल करेगी। भाजपा की नजर उसके वोक्कालिगा वोट बैंक पर है। राज्य में देवगौड़ा परिवार की राजनीति लगभग खत्म हो चुकी है। तो 2028 के चुनाव में कर्नाटक की राजनीति भाजपा और कांग्रेस के बीच दो ध्रुवीय हो जाएगी।

इस तरह महाराष्ट्र भाजपा की नई प्रयोगशाला है। यहां से अभी बहुत सारे प्रयोग होने हैं। यहां से भारतीय राजनीति की दिशा बदलने वाली है। भाजपा का गठबंधन के साथियों के लिए संदेश भी है कि बड़ी पार्टी के साथ बहुत महत्वाकांक्षी मत बनो। खासतौर से ऐसी बड़ी पार्टी, जो लगातार बढ़ रही हो, जिसकी जनता में विश्वसनीयता हो, जिसके पास लोकप्रिय नेतृत्व हो, संगठन की शक्ति हो और सबसे बड़ी बात राजनीतिक इच्छाशक्ति हो।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)