प्रदीप सिंह।
कहते हैं कि जो इतिहास को भूल जाते हैं वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त हैं। पर आजादी के बाद से हमको यही बताया जा रहा है कि विभाजन के समय की विभीषिका को भूल जाओ। कहा ही नहीं जा रहा है। इतिहास भी इसी सोच के मुताबिक लिखा और लिखवाया गया। नतीजा आपके सामने है। आज यह कहने का साहस आ गया है कि दो राष्ट्र के सिद्धांत प्रतिपादन वीर सावरकर ने किया था। मतलब समझ रहे हैं आप! साफ है कि मोहम्मद अली जिन्ना को भारत विभाजन के दोष से मुक्त करना है। सच को छिपाकर किया गया झूठ का प्रचार अतीत के घाव से भी ज्यादा पीड़ा देता है।
वंदेमातरम साम्प्रदायिक, जिन्ना धर्मनिरपेक्ष
सिर्फ जिन्ना को बरी करने की ही कोशिश नहीं हो रही है। अब तो सड़कों पर नारे लग रहे हैं कि जिन्ना वाली आजादी चाहिए। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन करने वालों ने ये नारे लगाए और उसका समर्थन देश के अग्रणी विपक्षी दलों ने किया। भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह के नारे पर भी इन्हें कोई एतराज नहीं है। आजादी के आंदोलन का प्रेरणास्रोत रहा वंदेमातरम गीत, पचहत्तर साल में साम्प्रदायिक हो गया और जिन्ना धर्मनिरपेक्ष। कथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति देश को यहां तक लेकर आ गई है। कहते हैं भूल जाओ कि सोलह अगस्त 1946 को जिन्ना के डायरेक्ट ऐक्शन के ऐलान के बाद हुए दंगे में कितने मारे गए, उजाड़े गए, कितनी महिलाओं का बलात्कार हुआ- सब भूल जाओ। मतलब ये है कि मुदहु आंख कतहुं कुछ नाहीं।
सदी का सबसे बड़ा पाखंड
विभाजन के समय करीब बीस लाख लोगों की मौत को भूल जाओ। सदी के सबसे बड़े विस्थापन पर ध्यान मत दो। अपनी बेटियों, बहनों को जिन लोगों ने खुद ही मार दिया ताकि उनकी आबरू बचा सकें, वे भूल जाएं, वो सारा मंजर। हिंदू मानस के मन पर यह घाव पहला नहीं था। आठ सौ साल का दर्द है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होता रहा है। विभाजन की विभीषिका ने उस घाव को हरा कर दिया। इस विभीषिका को भुलाने के लिए सदी का सबसे बड़ा पाखंड रचा गया। गंगा-जमुनी तहजीब का। क्या होती है यह गंगा- जमुनी तहजीब? यदि सचमुच ऐसी कोई तहजीब होती तो भारत का विभाजन क्यों होता। पूरे इतिहास पर नजर डालिए और बताइए कि कब इस गंगा-जमुनी तहजीब का चलन था। इस अवधारणा की रचना करने वालों को पता नहीं है कि जब प्रयागराज में संगम पर गंगा-जमुना मिलती हैं तो जमुना का अस्तित्व गंगा में विलीन हो जाता है। उसके बाद सिर्फ गंगा बचती है। जाहिर है कि इस तहजीब के पैरोकार ऐसा तो नहीं चाहेंगे। क्योंकि छोटा ही बड़े में समाहित होता है।
भारत के अंदर मुसलिम भारत की मांग
यह बात अकल्पनीय और असंभव है यह मैं नहीं कर रहा हूं। डा. राजेन्द्र प्रसाद की पुस्तक है ‘इंडिया डिवाइडेड’। इसमें उन्होंने लिखा है कि मुसलमानों के लिए अलग की देश की मांग सबसे पहले सर मोहम्मद इकबाल ने 1930 में की थी। दिसम्बर 1930 में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में मुसलिम लीग के सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि ‘इस्लाम का जो धार्मिक आदर्श है वह उसकी बनाई सामाजिक व्यवस्था से जैविक रूप से जुड़ा है। एक को अस्वीकार करने का मतलब है दूसरे को भी अस्वीकार करना। इसलिए इस्लाम के एकजुटता के आदर्श को नकार कर राष्ट्रीय स्तर पर कोई राजनीति किसी भी मुसलमान के लिए अकल्पनीय है। भारत राष्ट्र राज्य की एकता की कोशिश इस्लाम के इस सिद्धांत के अस्वीकरण से नहीं बल्कि परस्पर समन्वय और सहयोग के आधार पर की जानी चाहिए।‘ वे खुद ही आगे कहते हैं कि ‘दुख की बात है कि आंतरिक समन्वय की हमारी खोज नाकाम रही है। यह खोज नाकाम क्यों हुई? क्योंकि शायद हम एक दूसरे के इरादों को संदेह की नजर से देखते हैं। और अंदर से एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं। इसलिए भारत के अंदर एक मुसलिम भारत की हमारी मांग सर्वथा उचित है।‘
हिंदू जन्मजात अहिंसक
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है कि ‘हिंदू जन्मजात अहिंसक थे। अपनी सीमा के बाहर जाकर लड़ने की उनके यहां परम्परा नहीं थी। सबसे उत्तम रक्षा यह है कि आक्रामक पर उसके घर में हमला करो। इस नीति पर हिंदुओं ने कभी अमल नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि रक्षापरक युद्ध लड़ने की उनकी आदत हो गई।‘ मुगलों और मुस्लिम शासकों की करीब आठ सौ साल की गुलामी ही नहीं, विभाजन के समय भी हिंदुओं ने अपनी इस नीति का खामियाजा भुगता। अब कहा यह जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाने की घोषणा से दोनों समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा। पुराने घाव हरे होंगे। इससे फायदा नहीं नुक्सान होगा। ऐसा कहने वाले शायद हिंदू-मुसलमान के संबंधों की समस्या को या तो समझते नहीं या समझना ही नहीं चाहते। ये मसला विभाजन के समय से शुरू नहीं होता कि उस समय जो हुआ उसे भूल जाएं तो सब ठीक हो जाएगा। इसके बारे में ईरानी स्कॉलर अल बिरूनी ने लिखा है। उसके मुताबिक ‘लड़ाई और मारकाट के दृश्य तो हिंदुओं ने बहुत देखे थे। उन्हें सपने में भी यह खयाल न था कि दुनिया की एकाध जाति ऐसी भी हो सकती है जो मूर्तियों को तोड़ने और मंदिर को भ्रष्ट करने में ही सुख माने। जब मुस्लिम आक्रमण के साथ मंदिरों और मूर्तियों पर विपत्ति आई, हिंदुओं का हृदय फट गया और वे इस्लाम से तभी से जो भड़के, सो अब तक भड़के हुए हैं।‘
बतानी ही पड़ेगी पूरी सचाई
सो इतिहास को न तो भुलाया जा सकता है और न ही छिपाया जा सकता है। जब-जब इस तरह का प्रयास होता है उसके परिणाम बुरे ही निकलते हैं। क्योंकि सच की एक बुरी आदत है वह सामने आने का रास्ता खोज ही लेता है। एक छोटी सी घटना की जिम्मेदारी तय करने के लिए बड़े बड़े आंदोलन हो जाते हैं। फिर इतिहास की इतना बड़ी त्रासदी की जिम्मेदारी किसकी थी यह तो लोगों को पता ही चलना चाहिए। इसका मकसद यह नहीं है कि इसके आधार पर किसी से बदला लिया जाय। यदि आप किसी भी त्रासदी का ‘क्लोजर’ (समापन) चाहते हैं तो पहले पूरी सचाई बतानी ही पड़ेगी। यह शुरुआत है अंत नहीं।
मीठा-मीठा गप्प, कड़वा कड़वा थू
कांग्रेस पार्टी यह कहने का दावा कभी नहीं छोड़ती कि देश को आजादी उसने दिलाई। सही बात है। इसको कोई चुनौती भी नहीं दे सकता। पर सवाल है कि देश का विभाजन किसने कराया? मीठा-मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू। यह तो नहीं चलेगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख दैनिक जागरण से साभार)