चार्जशीट कहती है, तख्ता पलट की साजिश था दिल्ली दंगा।
प्रदीप सिंह।
क्या 2020 के दिल्ली दंगों के आरोपी शरजील इमाम और उमर खालिद को जमानत मिलनी चाहिए? यह प्रश्न तो सुप्रीम कोर्ट के सामने है। लेकिन मेरा सवाल है कि क्या देशद्रोह की साजिश और आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप जिन पर लगा हो, उनको जमानत मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने एक नियम बना दिया है कि बेल नियम है और जेल अपवाद। चलिए मान लेते हैं। लेकिन सवाल यह है कि एक जेबकतरे और एक देशद्रोही के केस अगर जमानत के लिए आएं तो दोनों पर समान रूप से विचार करना चाहिए। कानून की किताब तो यही कहती है। लेकिन अपराध की गंभीरता का भी कोई महत्व है कि नहीं? जेबकतरे को अधिकतम कितनी सजा हो सकती है और देशद्रोही या आतंकवादी को कितनी? इस पर विचार होगा कि नहीं? जेबकतरे के जमानत पर छूटने से समाज को किस तरह का खतरा है और आतंकवादी या देशद्रोही के छूटने से समाज और देश को क्या खतरा है, क्या इन बातों पर गौर नहीं होना चाहिए?

2020 के हिंदू विरोधी दंगे की परतें अब खुल रही हैं। दिल्ली पुलिस ने उसकी लगभग 3000 पेज की चार्जशीट फाइल की है। इसके अलावा 177 पेज का हलफनामा दायर किया है। उसमें साफ-साफ जो बात कही गई है वह यह कि दंगे पूर्व नियोजित थे। पहले से इनकी रणनीति बनाई गई थी और यह दंगे देश को अस्थिर करने और देश में सत्ता पलटने के लिए थे। सोनाली चितलकर ने दिल्ली के 2020 के दंगों पर किताब लिखी है। दंगे के तीन दिन बाद वे लोगों के बीच में गईं और सभी सभी वर्गों से मिलीं। उनके अनुसार 2019 दिसंबर से हिंसा की तैयारी शुरू हो गई थी। अब 2019 का क्या महत्व है, यह भी जान लीजिए। 2019 में सारी ताकत लगाकर भी कांग्रेस और विपक्ष मोदी को हरा नहीं पाया था। चौकीदार चोर है। राफेल में घोटाला हुआ है। यह सब चलाने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से ज्यादा सीटों से जीत कर आए तो एक खास वर्ग को लगा कि अब हिंसा ही एकमात्र रास्ता है। जो कुछ श्रीलंका में हुआ, बांग्लादेश में हुआ, नेपाल में हुआ, उससे पहले भारत में तख्ता पलट की कोशिश हुई और उसके लिए हिंसा को हथियार बनाने का फैसला किया गया। और इसको जोड़ा गया अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दिल्ली दौरे से। रणनीति यह बनी की राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब दिल्ली में हों, उस समय दंगा हो तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खबर बनेगी और भारत की छवि खराब होगी। रणनीति थी कि पहले अर्बन इलाकों में अराजकता और हिंसा फैलाओ। इसमें उमर खालिद ने बांग्लादेशी घुसपैठी महिलाओं और शरजील इमाम ने मस्जिदों के इमामों व मौलवियों का इस्तेमाल किया। लोगों को उकसााने के लिए सीएए और एनआरसी का डर दिखाया गया। हालांकि यह अलग बात है कि एनआरसी आने से दिक्कत क्या है। एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस दुनिया भर के तमाम देशों में है। अगर ये रजिस्टर बने कि कौन इस देश का नागरिक है, कौन नहीं है तो इसमें क्या समस्या क्या है? यह न तो किसी वर्ग के खिलाफ है और न ही किसी वर्ग के साथ पक्षपात करने वाला है कि उसको तरजीह मिल जाएगी। इससे डर केवल घुसपैठियों और देशद्रोहियों को हो सकता है और हो भी रहा है। शरजील इमाम और उमर खालिद के पक्ष में कौन बोला? कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और पी चिदंबरम। जो चार्जशीट फाइल हुई है, उसमें दिल्ली पुलिस की ओर से साफ-साफ बताया गया है कि कोशिश थी कि किस तरह पहले सांप्रदायिक भावनाएं भड़काई जाएं और उसके बाद इस असंतोष को हथियार बंद बनाया जाए। पूरे देश में दंगे फैलाने की योजना थी। दिल्ली के अलावा यह अलग-अलग शहरों व राज्यों में हुआ भी लेकिन ज्यादा कामयाब नहीं हो पाया। दिल्ली का दंगा जरूर कामयाब हुआ। वहां बड़े पैमाने पर हिंसा और हिंदुओं की हत्या हुई। आईबी के एक अधिकारी व एक सिपाही की हत्या हुई। पुलिस के संयम के कारण अराजकता फैलाने वालों को यह मौका नहीं मिला कि देश में तख्ता पलट का आधार तैयार कर सकें। वे चाहते थे कि पुलिस गोली चलाए और पूरी दुनिया में बताया जा सके कि कैसे भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। दंगे के दौरान नारे लगे-हमको चाहिए आजादी, जिन्ना वाली आजादी। अब इसका मतलब क्या है आप समझ सकते हैं। देश को तोड़ने की कोशिश पर किसी को कोई शंका रह गई हो तो उसे शरजील इमाम का भाषण सुन लेना चाहिए। उन्होंने कहा था कि चिकन नेक काट देंगे तो पूरा नॉर्थ ईस्ट भारत से कट जाएगा। अभी हाल ही में पाकिस्तान का जनरल बांग्लादेश गया तो वहां सरकार चला रहे मोहम्मद यूनुस ने उन्हें एक किताब भेंट की। उस पर जो नक्शा बना हुआ था, उसमें पूरे नॉर्थ ईस्ट को बांग्लादेश का हिस्सा दिखाया गया है। तो बांग्लादेश का मोहम्मद यूनुस और यहां शरजील इमाम एक ही भाषा बोल रहे हैं कि इस देश को बांटना जरूरी है। उनको लगता है कि इस देश को बांटे बिना इस देश को कमजोर नहीं किया जा सकता है। अब इस बात में किसी तरह का कोई शक नहीं होना चाहिए कि दंगों का मकसद तख्तापलट था। यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को सत्ता से हटाना। मोदी 2014 व 2019 का चुनाव पूर्ण बहुमत से जीत चुके थे तो एक ही रास्ता बचा था। इस तरह की कोशिश की जाए कि इतनी अराजकता फैले, इतनी हिंसा फैले कि लगे कि कानून व्यवस्था की स्थिति चरमरा गई। दिल्ली के दंगे केवल सामान्य कानून व्यवस्था की स्थिति बिगाड़ने के लिए नहीं थे। इनका मकसद भारत की छवि बिगाड़ना और भारत की संप्रभुता को चुनौती देने की कोशिश थी।

ऐसे लोगों के साथ जो लोग हैं, जरा उनके बारे में सोचिए। इन्होंने तो अपनी मंशा और इरादा जाहिर कर दिया। 5 साल हो गए इनको किसी अदालत से जमानत नहीं मिली है। दिल्ली पुलिस ने जो एफिडेविट दिया है, उसमें उमर खालिद, शरजील इमाम और एक अन्य के लिए कहा है कि तीनों जानबूझकर मामले को लटकाने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे ही सुनवाई आती है, तारीख ले लेते हैं या इनका वकील कोई नई अर्जी दे देता है कि इस पर सुनवाई होनी चाहिए। इन लोगों की ओर से कोशिश ये हो रही है कि इस मामले को जितना लटकाया जा सके लटकाओ। इसके पीछे उद्देश्य है कि ज्यादा लंबे समय तक अगर जेल में रहे तो जमानत का आधार बन जाएगा कि इतने साल हो गए, ट्रायल पूरा नहीं हुआ। सजा नहीं हुई। फिर एक अफवाह फैलाई गई कि इस मामले में 1000 से ज्यादा लोगों की गवाही होनी है। जबकि दिल्ली पुलिस कह रही है कि करीब 100 लोग हैं, जिनकी गवाही होनी है। सवाल यह है कि इन्हें जेल में क्यों न रखा जाए? जो लोग इस देश की सार्वभौमिकता को चुनौती दे रहे हैं, जो लोग इस देश में दंगे फैलाना चाहते हैं, जो लोग इस देश को बांटना चाहते हैं, जो इस देश के खिलाफ बोल रहे हैं और जो इस देश में चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करना चाहते हैं, उनको आखिर जमानत क्यों मिलनी चाहिए? सामान्य जो नियम हैं, सामान्य जो परंपराएं हैं, वह इन मामलों में नहीं चलनी चाहिए। अब देखना है कि सुप्रीम कोर्ट क्या करता है। इस एफिडेविट के बाद शरजील इमाम और उमर खालिद को जमानत किसी हालत में नहीं मिलनी चाहिए। अगर जमानत मिलती है तो इनके जैसे अन्य तत्वों की भी हौसला अफजाई होगी। वे सोचेंगे कुछ भी करो दो चार-पांच साल जेल में रहोगे, उसके बाद जमानत पर छूट कर आ जाएंगे और वह हर समय इसको सर्टिफिकेट की तरह से दिखाएंगे कि देखिए हमको तो सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है। इसका मतलब हमारे खिलाफ कोई केस नहीं है। हालांकि जमानत का मतलब यह नहीं होता कि आपके खिलाफ कोई आरोप सिद्ध नहीं होगा। आरोप सिद्ध होगा या नहीं यह तो जब मुकदमे की सुनवाई शुरू होगी और उसका फैसला आएगा तब तय होगा। जमानत किसी के निर्दोष होने का कोई प्रमाण नहीं होती है।

देश ने पूर्व में देखा है कि आतंकियों के मामलों में भी किस तरह मानवाधिकार याद आता रहा है। एक आतंकी की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुल जाते हैं। एक आम धारणा बन रही है कि अदालतों को इस देश के हजारों लाखों लोगों के मानवाधिकार की याद नहीं आती। मानवाधिकार केवल आतंकवादियों और दंगाइयों का है। दिल्ली के दंगों में आम आदमी पार्टी के कॉरपोरेटर ताहिर हुसैन की बड़ी भूमिका थी। उसके घर की छत पर ईंट पत्थर जुटाए गए थे। पेट्रोल बम जुटाया गया था। उसकी तस्वीरें आ चुकी हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी ने उसकी आलोचना नहीं की। आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने उसको निर्दोष बताने की कोशिश की थी। इसी तरह बाटला हाउस मामले को याद कर लीजिए। बाटला हाउस में आतंकवादियों का एनकाउंटर हुआ। लेकिन कांग्रेस किसके खिलाफ थी? वह देश के बहादुर पुलिस वालों के खिलाफ थी। उन पर सवाल उठा रही थी। एनकाउंटर को फर्जी बता रही थी। हालांकि इस मामले में जब अदालत का फैसला आया तो वह सारे के सारे आरोपी आतंकवादी साबित हुए लेकिन आज तक दिग्विजय सिंह और कांग्रेस ने इसके लिए माफी नहीं मांगी। आतंकियों के एनकाउंटर की तस्वीर के बारे में सलमान खुर्शीद ने कहा था कि उनकी तस्वीर देखकर सोनिया गांधी रो पड़ी थीं। तो आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की तस्वीर देखकर सोनिया गांधी रो पड़ती हैं, लेकिन जब पहलगाम की घटना होती है तो कोई खबर नहीं आई कि वहां की तस्वीरें देखकर कांग्रेस का कोई नेता रो पड़ा हो। वहां भी सवाल पूछे जा रहे थे। कांग्रेसी सवाल आतंकवादियों से नहीं पूछते हैं। आतंकवाद के खिलाफ जो कारवाई कर रहे हैं, उनसे पूछा जाता है। पुलिस को सबसे पहले कटघरे में खड़ा करने की कोशिश होती है और इन लोगों की बात मानें तो आतंकवादियों और दंगाइयों के खिलाफ अगर वो मुसलमान हैं तो कोई कारवाई नहीं होनी चाहिए। आतंकवााद के ज्यादातर मामलों में तो लगभग 100 फीसदी मुसलमान ही सामने आते हैं और यह केवल भारत की बात नहीं है। पूरी दुनिया की बात है। दुनिया भर में यह सिलसिला है। तो दिल्ली दंगे का मामला जो है, वह ऐसे दंगाइयों, आतंकवादियों और भारत विरोधी तत्वों के खिलाफ कार्रवाई का एक बहुत बड़ा उदाहरण बनने वाला है और यह तय होगा सुप्रीम कोर्ट के रवैये से और उसके बाद तय होगा जो भी अदालत का फैसला आता है। तारीख पर तारीख का जो सिलसिला है, उसे देखते हुए कब तक इस मुकदमे का फैसला होगा, किसी को नहीं मालूम इसलिए इनको बेल चाहिए और इसलिए ये ट्रायल में देरी करवा रहे हैं। इनके पास बड़े-बड़े वकील हैं। इन वकीलों को गरीब आदमी कभी अफोर्ड नहीं कर सकता लेकिन इन जैसों के लिए ये बड़े वकील तुरंत खड़े हो जाते हैं। सवाल यह है कि वे फीस लेते हैं कि नहीं? फीस लेते हैं तो उसका पैसा कहां से आता है? कौन देता है? यह सारे सवाल हैं जिनका जवाब लोग जानना चाहते हैं। कब तक इसको छिपाया जाएगा? इन आतंकवादियों के जो पैरोकार हैं, उनको भी एक्सपोज करना जरूरी है। उनके खिलाफ भी कारवाई होना जरूरी है। इस पूरे तंत्र को जब तक जड़ से नहीं उखाड़ा जाएगा, तब तक यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



