
आजकल फ़िल्में कम ही देख पाता हूं। कल लगभग खाली थिएटर में ‘इमरजेंसी’ देखी। इससे पहले कंगना की एकाध फ़िल्में ही देख रखी थी, सो उसकी अभिनय क्षमता और प्रतिभा का सटीक आकलन पल्ले नहीं था। मगर ‘इंदिरा गांधी’ को पर्दे पर जीता देख उसकी अदाकारी का मुरीद हो गया। क्या अभिनय किया है कंगना ने! दमदार, असरदार। उसकी राजनीतिक समझ या भूमिका की आलोचना हो सकती है, लेकिन एक अदाकारा के तौर पर उसने जता दिया कि फिलवक्त फिल्म इंडस्ट्री में उसका सानी नहीं। अगर कोई इस फिल्म में उसकी अदाकारी की आलोचना कर रहा तो यकीन मानिए वह पूर्वाग्रह की आग में जल रहा है। उसका आकलन ईमानदार नहीं, राजनीति प्रेरित है।
रही बात फिल्म के कथा प्रवाह की, तो मेरे हिसाब से इसका सीक्वेन्स बेहतर हो सकता था। इससे फिल्म टुकड़ों का जोड़ की जगह एक कालखंड का पूर्ण इतिहासबोध कराती महसूस होती। शायद बहुत सारी घटनाओं को ढाई घंटे की फिल्म में पिरोने के चक़्कर में ऐसा हुआ हो। फिर भी, मुझे फिल्म की सिनेमेटोग्राफी सत्तर के दशक में ले जाने में कामयाब लगी। खैर, मैं फिल्म निर्माण की बारीकियों से वाकिफ नहीं, लिहाज़ा अधिकृत तौर पर कोई समीक्षा प्रस्तुत नहीं कर सकता। इसलिए सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव रख रहा हूं। कुल मिलाकर कंगना के बेमिसाल अभिनय ने फिल्म को सिर्फ दर्शनीय नहीं बल्कि ‘मस्ट सी’ बना दिया है। अगर आप संजीदा फिल्मों के शौक़ीन हैं, तो इस फिल्म को लेकर राजनीतिक गलियारे में चल रहे कुचक्र को नज़रअंदाज कीजिए और समय निकालकर फिल्म देख आइए। इतमिनान रखिए, आप निराश नहीं होंगे।

वैसे भी इस फिल्म के विरोध का औचित्य समझ से परे है। हम यह भी कह सकते हैं कि राजनीति से उस स्तर तक प्रेरित हैं जहां पहुंचकर सही और गलत का फर्क मिट जाता है। अगर किसी दल या उसके समर्थकों को कोई आपत्ति है तो उसकी वजह स्पष्ट होनी चाहिए। सिर्फ इसलिए कि फिल्म कंगना रनौत अभिनीत या निर्मित है और कंगना फिलवक्त भाजपा सांसद हैं, विरोध का स्वर ईमानदार नहीं ठहराया जा सकता। मुझे इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखा, जिसकी पुष्टि पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी या साक्ष्य न करते हों। या जो सच से साम्य न रखता हो। फिल्म का विरोध करने वाले भी अब तक यह स्पष्ट करने में नाकाम रहे हैं कि उनके विरोध का आधार वस्तुतः है क्या।
हां, संजय गांधी के आचरण, व्यवहार और खासकर इंदिरा सरकार में उनके रुतवे और हनक का प्रदर्शन थोड़ा अतिरंजित लग सकता है। संजय की मनमानी के आगे इंदिरा का समर्पण भी शायद उनके समर्थकों के लिए अपाच्य हो। इमरजेंसी की घोषणा के बाद इंदिरा की मनोदशा का चित्रण उनके मन में बसी शक्तिस्वरूपा की छवि से मेल न खाता हो। लेकिन पूरी फिल्म में इंदिरा को जिस भव्यता के साथ पेश किया गया है, उनकी राजनीति के श्वेत-श्याम दोनों ही पक्ष को जितने संतुलित तरीके से दर्शाया गया है, उसे देखते हुए कहना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि इस फिल्म के निर्माण का उद्देश्य इंदिरा या कांग्रेस की छवि को धूमिल करना है।
फिल्म के मूल विषय ‘आपातकाल’ को भी सिर्फ प्रामाणिक तथ्यों के साथ पर्दे पर उतारा गया है। कोई भी तथ्य अनर्गल या अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं। पूरा जोर इस बात पर है कि कैसे इमरजेंसी लगाने के बाद खुद इंदिरा के अन्तःकरण ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। इमरजेंसी लगाने से लेकर हटाने के अपने ही फैसले के बीच वह किस तरह अंतरात्मा से संघर्ष करती रहीं। यह उनकी राजनीतिक संवेदनशीलता और शुचिताबोध का ही निरुपण है।
इतना ही नहीं, इमरजेंसी लगाने के फैसले के पीछे इलाहाबाद हाईकोर्ट के इंदिरा का चुनाव रद्द किए जाने के आदेश के साथ देश की आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों को जोड़ा जाना भी इंदिरा की भूमिका को ही सपोर्ट करता है। फिर भी विरोध? जाहिर है इस विरोध का कोई तार्किक आधार नहीं, सिर्फ राजनीतिक लाभ हानि का गणित है। यह विरोध देश की युवा और नई पीढ़ी को सच से विरत रखने के षड़यंत्र का हिस्सा भी हो सकता है। इसलिए किसी षड्यंत्र का हिस्सा बनने के बजाय खुद फिल्म देखिए और बताइए कि आप सच के साथ खड़े हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)