प्रदीप सिंह।
व्यक्ति हो या संगठन यदि उसमें नकारात्मकता आ जाए तो समझिए उसके अच्छे दिन नहीं आने वाले। राजनीति और खासतौर से चुनावी राजनीति पर यह ज्यादा लागू होता है। परनिंदा में रस बहुत होता है। इसके लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। यह बैठे बिठाए आपको श्रेष्ठ होने के भाव से भर देती है। परनिंदा के आधार पर तैयार किए गए विमर्श को समझने में लोगों को देर नहीं लगती। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में तीन ऐसे मुद्दे थे, जिन्हें विपक्ष अपनी सबसे बड़ी ताकत मानता था। चुनाव नतीजों ने बताया कि मतदाता ने केवल निंदा रस का आनंद लिया और बाकी सब भुला दिया। नकारात्मकता की एक विशिष्टता होती है, वह व्यक्ति की सच को देखने की क्षमता को ही खत्म कर देती है, क्योंकि यदि उसे सच दिख जाएगा तो वह नकारात्मक हो ही नहीं पाएगा। सच नकारात्मकता का दुश्मन है और झूठ उसका दोस्त।

सत्तारूढ़ दल की सबसे बड़ी ताकत

उत्तर प्रदेश में पिछले पांच सालों में योगी आदित्यनाथ के राज में, कानून व्यवस्था जितनी अच्छी रही, उतनी उससे पहले कब थी, बताना कठिन है। यह मुद्दा और मुख्यमंत्री की ‘बुलडोजर बाबा’ की छवि, सत्तारूढ़ दल की सबसे बड़ी ताकत थी, क्योंकि कानून व्यवस्था की स्थिति अच्छी है या खराब, यह किसी के बताने से लोगों को पता नहीं होता। यह ऐसा अहसास होता है जो उनके दिल और दिमाग पर हावी रहता है। ऐसे में इसे भाजपा के विरोध का मुद्दा वही बना सकता है, जो सच देखने से परहेज करता हो।

मतदाताओं में नीर-क्षीर विवेक बुद्धिवादियों से ज्यादा

नेताओं और पार्टियों को सच से जितना भी परहेज हो, लेकिन आम लोगों को नहीं होता। सपा और कांग्रेस ने बढ़-चढ़कर इस मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की, पर हुआ यह कि वे खुद ही घिर गए। इसी कोशिश में उन्नाव, हाथरस और लखीमपुर-खीरी कांड को मुख्य मुद्दा बनाने में विपक्ष ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इन तीन घटनाओं को उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का पैमाना बना दिया गया। इसकी चर्चा उत्तर प्रदेश ही नहीं देश और विदेश भी कराई गई। लेफ्ट-लिबरल बिरादरी और आंदोलनजीवियों ने ऐसा समा बांधा कि जैसे इस पर जनमत संग्रह होने जा रहा है। उन्होंने झूठ को सच की तरह पेश करने की कोशिश की और खुद ही इस पर यकीन करने लगे। वे भूल गए कि भारत के कम पढ़े-लिखे मतदाताओं में भी नीर-क्षीर विवेक बड़े-बड़े बुद्धिवादियों से ज्यादा होता है। उसे समझने में देर नहीं लगती कि कौन झूठ को सच के मुलम्मे में लपेटकर पेश कर रहा है। नतीजा आया तो पता चला कि उन्नाव और लखीमपुर खीरी की सारी सीटें भाजपा जीत गई। हाथरस में भी उसे तीन में से दो सीटों पर विजय मिली। इस नतीजे ने एक और बात बताई कि विपक्ष को जमीनी वास्तविकता की या तो जानकारी नहीं थी या उसने जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश की। बहरहाल कारण कोई भी हो, नुकसान विपक्ष का ही हुआ।

सही मायने में कानून का राज

कुछ नारे ऐसे होते हैं जिनकी छवि आपके मन में बस जाती है। प्रधानमंत्री मोदी को तो पहले से ही इसमें महारत हासिल है। अब योगी आदित्यनाथ ने भी ऐसे नारों/प्रतीकों को स्थापित करने में कुशलता हासिल कर ली है। बुलडोजर को उन्होंने जीवंत बना दिया। बुलडोजर माफिया के खिलाफ अभियान का ही नहीं, विकास का भी प्रतीक बन गया। यानी सृजन और विनाश, दोनों का संदेश बुलडोजर में छिपा है। योगी के बुलडोजर ने एक और कमाल किया है। आजादी के पहले से सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील रहे उत्तर प्रदेश में पिछले पांच साल में कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं होने दिया। इसके लिए किसी का विकास नहीं रुका और न ही कोई उत्पीडऩ हुआ। सिर्फ जो कानून है, उसे दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ लागू किया गया। नतीजा यह हुआ कि पहले की सरकारों में जिसका राज था, उसका कानून चलाने की रवायत शुरू हो गई थी, उस पर विराम लग गया। योगी के पहले कार्यकाल में ही सही मायने में कानून का राज स्थापित हुआ।

प्रभावी इलाज

योगी के विरोधी पूरे पांच साल उनके खिलाफ नकारात्मक अभियान चलाते रहे। उन पर व्यक्तिगत हमले होते रहे। उन्होंने निंदा रस में विभोर इन लोगों का वही इलाज किया, जो सबसे प्रभावी होता है। योगी ने इन हमलों का कोई जवाब देने की जरूरत ही नहीं समझी। मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा है, ‘ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निंदा करने वाले को कोई दंड देने की जरूरत नहीं है। वह निंदक बेचारा स्वयं दंडित होता है। आप चैन से सोइए, वह जलन के कारण सो नहीं पाता। निरंतर अच्छे काम करने से उसका दंड भी सख्त होता जाता है। निंदा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी के कारण होता है।’

योगी काम करते रहे- विरोधी निंदा

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योगी दिन-रात काम करते रहे और विरोधी निंदा। उत्तर प्रदेश के मतदाता को काम दिखा, निंदा नहीं। स्थूल में सूक्ष्म को भी देख लेना भारतीय मतदाता का विशेष गुण है। उसने योगी सरकार का काम तो देखा ही, साथ में उसमें छिपी नेकनीयती भी देखी। यही वजह है कि जो वोट नहीं देने वाले थे और नहीं दिया, उनके पास भी सरकार की आलोचना का कोई मुद्दा नहीं था। ऐसे मतदाताओं ने इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में कभी संकोच नहीं किया। अब जो चुनाव इतना खुली किताब की तरह हो, वहां भाजपा की हार वही देख सकता था जो निंदा रस में लीन हो। मतदाता इतना स्पष्ट और मुखर तो 1977 और 1984 के चुनाव में भी नहीं दिखा।

विपक्ष की रेल…

भाजपा के विरोधी उत्तर प्रदेश में हों या दूसरे प्रदेशों में, उनमें भाजपा को हराने की इच्छा तो है, लेकिन इच्छाशक्ति नहीं। अपनी इच्छा को ही वे आम लोगों की इच्छा मान लेते हैं। 20 साल से नरेन्द्र मोदी के खिलाफ, पहले मुख्यमंत्री के रूप में, फिर प्रधानमंत्री के रूप में निजी हमले हो रहे हैं। बार-बार मतदाता कह रहा है कि उसे ऐसी राजनीति पसंद नहीं है। अब योगी आदित्यनाथ के बारे में उत्तर प्रदेश के मतदाता ने वही जवाब दिया। दोनों मामलों में मतदाता का एक ही मौन प्रश्न होता है कि भाई, कहना क्या चाहते हो? विपक्ष की रेल जिस पटरी पर चल रही है, उसकी कोई मंजिल नहीं है। बस कभी न खत्म होने वाला सफर है। यह हिंदी का सफर अंग्रेजी के सफर (कष्ट) में बदलता जा रहा है। इन दोनों से विपक्ष की मुक्ति का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख दैनिक जागरण से साभार)