अनुच्छेद 25 (1) में जुड़े शब्द ‘धर्म प्रचार’ की समीक्षा भी जरूरी
बी.पी. श्रीवास्तव ।
उत्तर प्रदेश में ‘लव जिहाद’ और ‘धर्म परिवर्तन’ की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर योगी आदित्यनाथ सरकार जल्द ही धर्मांतरण विरोधी कानून लाने कर तैयारी कर रही है। हिन्दू लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसाकर निकाह के लिए उकसाने और फिर जबरन धर्म परिवर्तन के हज़ारों मामले पुलिस के पास लंबित हैं। आठ राज्यों अरुणाचल प्रदेश, ओडीशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और उत्तराखंड में पहले ही यह कानून लागू है। नए कानून की सिफारिश करते हुए राज्य विधि आयोग ने कहा है कि मौजूदा कानूनी प्रावधान धर्मान्तरण रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। अकेले कानपुर में लव जेहाद के 11 मामले हैं।
भारतवर्ष हिन्दू धर्म का घर ही नहीं, गहवारा भी है। विश्व के कुल हिन्दुओं में से लगभग 95 प्रतिशत हिन्दू भारत में रहते हैं। हिन्दू धर्म यानी कि हिंदुत्वकी खासियत यह है कि वह किसी एक धर्म को किसी दूसरे धर्म से ऊँचा या नीचा नहीं मानता है। हिंदुत्व (हिंदुइज्म) का बुनियादी सिद्धांत है:
‘एकम सत विप्र बहुधा वदन्ति’- सत्य एक है, जिसे बुद्धिमान विभिन्न नामों से बुलाते हैं (ऋग्वेद)।
धर्मप्रचार में विश्वास नहीं करता हिंदू धर्म
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हिंदुत्व के मत के अनुसार- सब पथ एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं। इसलिए हिन्दू धर्म धर्म के प्रचार में विश्वास नहीं करता है, ना ही किसी दूसरे धर्म के किसी व्यक्ति का अपने धर्म में रूपांतरण करने में। वहीं दूसरी ओर वह अपने अनुयायियों को भी धारणा की उदारता, वाक्-स्वतंत्रता, आजाद सोच और अनर्गल विचार विमर्श की छूट देता है और उन पर कोई पाबंदी नहीं लगाता है। न्यू इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ने हिन्दुत्व के इन गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है, ‘हिन्दू लोग दिव्य का सम्मान हर अभिव्यक्ति में करने के कायल हैं चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न हो। हिन्दू लोग सैद्धांतिक तौर पर सहिष्णु हैं और वे हिंदुओं और गैर हिन्दुओं दोनों को इस बात की इजाजत देते हैं कि वे उस विश्वास का पालन करें जो उनको भाता हो।’
धर्मों के बीच सद्भावना में बाधक
भारत का संविधान बनते समय धर्मांतरण और धर्म के प्रचार में विश्वास नहीं करने वाले देश के 84.1 प्रतिशत लोगों की धारणा को देखते हुए इन दोनों बातों पर नकेल लगा दी जानी चाहिए थी। यह बहुत स्वाभाविक भी था। पर ऐसा नहीं किया गया। बल्कि न केवल धर्मांतरण की स्वतंत्रता बल्कि धर्म प्रचार को भी संविधान के अनुच्छेद 25(1) में शामिल किया गया।
अब 70 वर्षों बाद यह आकलन करना वाजिब है कि क्या इन धर्मांतरण और धर्मप्रचार की स्वतंत्रता के कारण देश में सब कुछ ठीक चला है। या फिर यह स्वतन्त्रता धर्मों के बीच सद्भावना में बाधक बनी है और इसके कारण देश में कई स्थानों पर समय समय पर शान्ति भी भंग हुई है।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक लगता है कि इस प्रावधान पर पुन: विचार किया जाए ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि क्या देश में धार्मिक सामंजस्य की खातिर किसी धर्मांतरण विरोधी कानून की आवश्यकता है या नहीं। साथ ही यह भी याद करना जरूरी है कि आखिर वह ऐसा कौन सा भाव था जो एक लम्बी बहस के दौरान संसद में प्रबल हुआ था, जिसके कारण ‘धर्म प्रचार’ को संविधान के अनुच्छेद 25(1) में सम्मलित किया गया था।
अनु. 25 (1) और धर्म प्रचार का अधिकार
धर्म के आधार पर विभाजन के पश्चात भी भारत ने सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) देश बने रहने का निर्णय लिया। इसका श्रेय देश के बहुसंख्यक हिन्दू लोगों को जाता है जो भारत से अलग हुए हिस्से के इस्लामिक देश बन जाने के बावजूद, अपने धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांत से नहीं डिगे। इसी के चलते भारतवर्ष संविधान के अनु. 25 के तहत अपने सभी नागरिकों को अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता देता है। अनु. 25(1) कहता है- ‘लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के असीन रहते हुए, सभी व्यक्तिओं को अंत:करण की स्वतन्त्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान हक होगा।’
इस अनुच्छेद में एक शब्द ‘प्रचार’ भी है। इस शब्द को लेकर बहुत से सदस्यों के मन में डर था कि कहीं ऐसा न हो कि यह शब्द धार्मिक अभियोग का कारण बन जाए और देश के साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़े। इस सोच के पीछे कुछ खास कारण थे। प्राय: धार्मिक प्रचार के समय अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने के साथ-साथ दूसरे धर्म की कमियां भी बतायी जाती हैं। इसमें हिन्दू धर्म विश्वास नहीं करता है। इसी कारण प्रचार शब्द को अनुच्छेद में शामिल करने से पहले कांस्टीट्यूएंट असेम्बली में 6 दिसंबर 1948 को काफी लम्बी चर्चा हुई थी, जिसमें आदर्शवाद जमीनी हकीकतों पर हावी रहा और सदस्यों ने इस बात को नजरंदाज कर दिया कि जमीनी हकीकतें अधिकतर मानव व्यवहार से जुड़ी होती हैं। नतीजा यह हुआ कि अधिकांश सदस्यों का यह मत बना कि धर्म प्रचार से यह नहीं समझना चाहिए कि उसका आशय एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ बताने से है। या किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म में शामिल करने के लिए उसे प्रेरित करने से है।
मिसाल के तौर पर मानिए एल कृष्णास्वामी भारती ने ‘धर्म प्रचार’ के पक्ष में दलील दी, ‘इसका मतलब यह नहीं है कि आप अपने धर्म का प्रचार करने में दूसरे धर्मों को नीचा दिखायें या उनकी बुराई करें। इसकी इजाजत तो कोई भी धर्म नहीं देता है।’
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में खुलासा किया कि ‘धर्म प्रचार के संवैधानिक अधिकार का मतलब धर्म परिवर्तन कराने के अधिकार से नहीं है।’
लेकिन देश के बहुसंख्य जनमानस की शंकाएं सही निकलीं। ऐसे कई मौके आये जब धर्म परिवर्तन और धर्म प्रचार को लेकर धर्मों के बीच मन मुटाव पैदा हुआ और उससे सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुंची। अच्छा होता अगर ‘प्रचार’ शब्द इस अनुच्छेद में न डाला गया होता। फिर वह अंतर धार्मिक संघर्षों का कारण न बन पाता।
एक गौर करने वाली बात यह भी है कि वह महान ईसाई धर्म के प्रति भाईचारे की भावना ही थी, जो ‘प्रचार’ शब्द को अनुच्छेद में शामिल करने का कारण बनी थी और जिसने जमीनी हकीकतों को नजर अंदाज करा दिया था। इस विषय पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है।
प्रचार शब्द शामिल करने का आशय
कांस्टीट्यूएंट असेंबली का गठन 1946 में देश के विभाजन के पहले की हो गया था हालांकि उस समय देश के विभाजन की मांग, ‘टू नेशन थ्योरी’ को लेकर चोटी पर थी। दूसरी तरफ जीजान से यह भी कोशिश की जा रही थी कि देश का विभाजन न हो। पर होनी होकर रहती है। अंतत: 1947 में देश बंट गया, पर कांस्टीट्यूएंट असेंबली का जो काम शुरू हुआ था चलता रहा। इस लिए कांस्टीट्यूएंट असेंबली के उस समय के माहौल को समझने के लिए हमें उन दिनों की कल्पना करनी होगी। उस नाजुक समय में देश के क्रिश्चयन यानी ईसाई समुदाय के लोग बहुसंख्यक समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े रहे थे और अपने लिए किसी आरक्षण की मांग नहीं की थी। इस भाव को सदन की भावनाओं का निचोड़ रखते हुए 6 दिसम्बर 1946 को कांस्टीट्यूएंट असेंबली में दिए गए एल कृष्णास्वामी भारती के इस कथन से अच्छी तरह समझा जा सकता है, ‘इस सम्बन्ध में सदन को याद दिलाना चाहूंगा कि इस विषय पर अल्पसंख्यक कमेटी में हर स्तर पर गहराई से चर्चा हुई थी और यह निष्कर्ष पर पहुंचा गया था कि उस महान ईसाई समुदाय को, जो अपने को समाज में पूरी तरह सम्मिलित करते हुए अपने लिए कोई विशेष सुविधा या आरक्षण नहीं चाहता है, उसे धर्म का प्रचार करने की अनुमति दी जानी चाहिए और साथ साथ दूसरे धर्मों को भी। इस कारण बहुसंख्यक समुदाय को चाहिए कि वह बड़ी सुघड़ता से यह सुविधा सब अल्पसंख्यक समुदायों को प्रदान करे और खुद के लिए भी रखे।’
लोक व्यवस्था, सदाचार और विवेक
इसमें कोई शक नहीं है कि संविधान के अनु. 25 (1) में दी गई अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता बिलकुल बेलगाम नहीं है और उसका प्रयोग लोक व्यवस्था के दायरे में रह कर ही करना लाजिम है। यही बात धार्मिक स्वतंत्रता के समर्थक का. संथानम ने भी कांस्टीट्यूएंट असेंबली में कही थी। उन्होंने कहा, ‘ये शब्द इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जो सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतन्त्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देते हैं, जितने कि वे शब्द जिनसे अनुच्छेद शुरू होता है। और वे हैं: लोक व्यवस्था, सदाचार और विवेक तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के असीन रहते हुए। इसलिए अगर सरकार को लगता है कि इससे देश की लोक व्यवस्था खतरे में है तो सरकार इसमें दखल दे सकती है। पर सरकार को सोचना पड़ेगा कि क्या सिर्फ उसका यह उपाय ही देश में धर्मांतरण और धर्म प्रचार को लेकर उत्पन्न झगड़ों से निपटने के लिए काफी है।
मौजूदा कानून की समीक्षा की जरूरत
धर्म परिवर्तन- खास तौर पर बहकाकर, फुसलाकर या प्रलोभन देकर- हर समय विवादों का कारण रहा है। उससे धर्मों के बीच मनमुटाव ही पैदा हुआ है। यहां तक कि ऐसे कई मौके आए हैं, जब उसके कारण लोक व्यवस्था भंग हुई है और देश की एकता और अखंडता पर खतरा मंडराया है। यह भी देखा जा रहा है कि यह समस्या कम होने के बजाय दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में यह आवश्यक लगता है कि मौजूदा कानूनों की समीक्षा की जाए। इस सन्दर्भ में कुछ सुझाव भी आए हैं जिनमें अधिकतर लोगों ने धर्मांतरण विरोधी कानून की आवश्यकता पर बल दिया है।
यह आश्चर्य की भी बात है और देश की जमीनी हकीकत को भी दर्शाती है कि धर्मांतरण विरोधी कानून की मुखालफत अल्पसंख्यक समाज की ओर से हो रही है। जबकि आम तौर पर देखा गया है किसी भी देश में इसका विरोध बहुसंख्यक समाज की तरफ से उठता है। ये इस बातें इस तरफ साफ इशारा कर रही हैं कि देश में एक वाजिब धर्मांतरण विरोधी लाया जाए।
जो इतिहास से सीख नहीं लेते…
जमीनी सच्चाई यह है कि भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले रहते हैं। दो धर्म ऐसे हैं जो बहुसंख्यक हैं। देश का विभाजन भी धर्म के ही आधार पर हुआ था। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए। ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स में 1948 में प्रसिद्ध दार्शनिक जॉर्ज संतायना के शब्दों का हवाला देते हुए विंस्टन चर्चिल ने ‘अतीत’ के स्थान पर ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग करते हुए जो कहा वह महत्वपूर्ण है। चर्चिल ने कहा था, ‘जो लोग इतिहास से सीख नहीं लेते हैं, वे वही पुरानी गलती बार-बार करने का दंड भोगते हैं।’ इसलिए भारत के परिप्रेक्ष्य में ऐसा कदम उठाना अब आवश्यक हो गया है जिससे विभिन्न धर्मों के बीच न तो मनमुटाव पैदा हो और न ही आपस में लड़ाई झगड़ों की नौबत आए। सभी धर्मों के लोग एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाएं। मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा कर एक उचित धर्मांतरण विरोधी कानून का निर्माण ऐसा कर सकता है।
(लेखक ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड (बेसिल) के वरिष्ठ सलाहकार हैं)