प्रदीप सिंह।
दिल्ली के बाद अब बिहार एक ऐसा राज्य है जो भारतीय जनता पार्टी के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है। चुनौती इस मामले में नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी और जेडीयू गठबंधन सत्ता में वापस लौटेगा कि नहीं। हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव में अभी लगभग सात महीने बाकी हैं लेकिन नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) की जीत आज से ही तय लगती है। महागठबंधन और एनडीए का कोई मुकाबला नहीं है… चाहे सामाजिक दृष्टि से देखिए- प्रशासनिक यानी सुशासन की दृष्टि से देखिए- या फिर नेताओं की छवि की दृष्टि से देखिए।
नीतीश कुमार की जो भी स्थिति हो उनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। भारतीय जनता पार्टी ने उनका भरपूर साथ दिया है। नुकसान होने का जोखिम उठाकर भी नीतीश कुमार का कद बड़ा करने में भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा योगदान रहा है। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने में बीजेपी का सबसे बड़ा योगदान रहा है। जब से यह गठबंधन बना है भारतीय जनता पार्टी ने कभी इससे अलग होने की कोशिश भी नहीं की है। दो बार गए हैं तो नीतीश कुमार ही गठबंधन छोड़कर गए हैं। और फिर लौटकर आना पड़ा है तो उनको यह समझ में आ रहा है कि उनके लिए सबसे सही, सबसे उचित जगह एनडीए ही है।
बीच में जरूर राजनीतिक महत्वाकांक्षा जोर मारती हैं। उनकी भी महत्वाकांक्षा थी। दरअसल नेता की महत्वाकांक्षा से ज्यादा उसके आसपास के लोगों की अपनी महत्वाकांक्षा होती है जो उसमें जुड़ जाती है। वे नेता को उकसाते हैं, सब्जबाग दिखाते हैं कि- एक नई सुबह आपका इंतजार कर रही है, आप ही आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं। 2013 में ऐसा ही दिखाया गया उनको कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद आप देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। जो विपक्षी दलों का इंडी गठबंधन बना उस समय भी उनके मन में महत्वाकांक्षा थी और उससे ज्यादा उनके समर्थकों के मन में कि यह आखिरी मौका है जब नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं। लेकिन इस बार उनको ज्यादा जल्दी समझ में आ गया कि यहां मामला कुछ बनने वाला नहीं। वह जो हैं वह भी रह पाएंगे इसमें भी आशंका है। इसलिए नीतीश कुमार जब महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में आए तभी से कह रहे हैं कि “अब कहीं नहीं जाना है” और आप मान कर चलिए कि बिल्कुल सही कह रहे हैं। उनको कहीं नहीं जाना है।
लेकिन क्या नीतीश कुमार को लेकर बीजेपी बिहार में आगे बढ़ सकती है? नीतीश कुमार की अपनी एक छवि है- अपना एक कोर वोट है- इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। नीतीश कुमार को साथ लेने से भारतीय जनता पार्टी को फायदा ही है। लेकिन उसके सामने एक समस्या है, बल्कि एक नहीं दो समस्याएं हैं जो तत्काल आने वाली हैं। पहली समस्या भाजपा के सामने बिहार में सीटों के बंटवारे को लेकर आएगी। यह मामला बड़ा पेचीदा रहा है। इस मामले को नीतीश कुमार ने हमेशा अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा। उनको लगता रहा है कि उनको बीजेपी से आगे होना चाहिए।
जब नीतीश कुमार 1996 में बीजेपी के साथ आए तब उनकी पार्टी भी छोटी थी, उनका कद भी भाजपा के कई नेताओं से छोटा ही था। लेकिन इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने उनको आगे बढ़ाया। नीतीश कुमार में उनको भविष्य का बिहार का मुख्यमंत्री नजर आया तो बीजेपी ने अपनी पार्टी की कुर्बानी देकर नीतीश कुमार को आगे बढ़ाया। हालांकि नीतीश कुमार ने भाजपा की इस कुर्बानी को कभी समझा नहीं, इसको कभी महत्व नहीं दिया। धीरे-धीरे उनको लगने लगा कि जो कुछ है वह उनकी वजह से है।
यह बात सही है कि पिछले 20 सालों से बिहार की राजनीति ऐसी हो गई है कि नीतीश कुमार जिधर हैं, उधर सत्ता है। नीतीश कुमार को यह बात अच्छी तरह से पता है। इसलिए वह जब चाहते थे पाला बदल लेते थे। लेकिन उनको भी लगता है कि हर चीज की एक सीमा होती है। उसके बाद अगर आप उसको स्ट्रेच करेंगे या खींचने की कोशिश करेंगे तो वह टूट जाएगी। तो उनको समझ में आ गया है कि अब अगर उन्होंने पाला बदलने की कोशिश की तो वो उनके लिए बड़ा घातक साबित हो सकता है। तो एक चैप्टर तो क्लोज हो गया। जो आशंका भाजपा को बनी रहती थी कि वो फिर तो नहीं पलट जाएंगे- वह संभावना खत्म हो गई है। भाजपा ने भी अपनी ओर से उस संभावना को खत्म कर दिया और नितीश कुमार ने भी। इसमें अब कोई बहस की गुंजाइश नहीं है।
लेकिन दो समस्याएं जो बिहार में भाजपा के सामने आने वाली हैं। एक- टिकट बंटवारे की। टिकट बंटवारे को नीतीश कुमार अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं कि एक सीट ही बीजेपी से ज्यादा मिले, लेकिन ज्यादा मिलनी चाहिए। 2010 के चुनाव में बीजेपी ने सहर्ष अपनी छोटी भूमिका स्वीकार कर ली थी। उसको वास्तविकता मानकर नीतीश कुमार तब से उसी तरह की राजनीति कर रहे हैं। 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू 142 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और भाजपा 101 सीटों पर। जेडीयू की तब से वही स्थिति बनी हुई है। पहले विधानसभा में नीतीश कुमार ज्यादा सीटों पर लड़े। फिर लोकसभा में भी वे ज्यादा सीटों की या कम से कम बराबर की सीटों की मांग करने लगे। भाजपा एक के बाद एक उनकी मांग के आगे झुकती गई।
पिछले चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के कोटे में नीतीश कुमार से ज्यादा सीटें आई। लेकिन अब सवाल है कि क्या होगी आइडियल स्थिति। इस समय बिहार में जो राजनीतिक स्थिति है उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट पड़ेगा। नीतीश कुमार उसमें सहायक की भूमिका में होंगे। इससे पहले- कम से कम विधानसभा चुनाव में- नीतीश कुमार की प्रमुख भूमिका होती थी। लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार प्रमुख भूमिका में नहीं होंगे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका प्रमुख होगी।
लोकसभा चुनाव के बाद से- एक झारखंड को छोड़ दें तो- जितने भी विधानसभा चुनाव हुए हैं सब में बीजेपी जीती है। उसकी यह जीत एक राजनीतिक रणनीति बनाकर हो रही है। उसने समझ लिया है कि चुनाव जीतने के लिए किन मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए- किस तरह से माइक्रो मैनेजमेंट पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। बजाय इसके कि एक बड़ा नारा दें, छोटे-छोटे सामाजिक समूहों को जोड़ने की कोशिश होनी चाहिए। फिर गवर्नेंस। भाजपा को यह समझ में आ गया है (दूसरी पार्टियों को अभी समझना बाकी है) कि गवर्नेंस ऐसा मुद्दा है जिस पर मतदाता किसी भी पार्टी को या किसी भी नेता को सबसे ज्यादा कसौटी पर कसता है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की हार के बहुत से कारणों में यह एक बड़ा कारण था। केजरीवाल को लगा कि गवर्नेंस के मुद्दे पर वह जो कहेंगे उसी को लोग मानेंगे… जमीन पर क्या है इससे लोगों का कोई मतलब नहीं होगा। यह गलतफहमी उनकी 8 फरवरी को दूर हो गई।
बिहार में समस्या है कि नीतीश कुमार इस परिस्थिति में भी चाहते हैं कि उनकी पार्टी को एक सीट ज्यादा मिले। यानी जेडीयू 122 पर लड़े और बीजेपी 121 सीट पर लड़े। साथ ही बीजेपी अपने कोटे में से 121 में से चिराग पासवान की पार्टी, जीतन राम मांझी की पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को सीटें दे। मुझे लगता है आज की परिस्थिति में यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। नीतीश कुमार अभी तक यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि उनकी पहले जैसी स्थिति, पहले जैसी ताकत नहीं रह गई है। यह बात 2020 के चुनाव में मतदाता ने समझा दिया, उनको तीसरे नंबर की पार्टी बना दिया, तब भी वह समझने को तैयार नहीं हैं। बीजेपी के साथ थे तो पहले नंबर की पार्टी बने, आरजेडी के साथ गए 2015 में तो दूसरे नंबर की पार्टी बने और फिर जब लौटकर आए तो तीसरे नंबर की पार्टी बने। लेकिन नीतीश कुमार को लगता है कि उनका पहले नंबर का रुतबा अब भी बरकरार है और भारतीय जनता पार्टी को उनकी हर बात माननी ही चाहिए।
भाजपा अगर उनकी यह शर्त मानती है तो एक तरह से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम करेगी। बिहार की राजनीति जो लोग जानते हैं वे समझते हैं कि बिहार में चुनाव भाजपा अपने कंधे पर लेकर चलेगी। चाहे संसाधन का मामला हो या दूसरी तरह की मदद का- जेडीयू की हर तरह की मदद भाजपा ही करती है। जेडीयू का कैंपेन एक तरह से भाजपा ही चलाती है। नीतीश कुमार का चेहरा आगे होता है। उस चेहरे के नाम पर मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग एनडीए से जुड़ता था, अब भी जुड़ता है- लेकिन उसकी संख्या कम होती जा रही है। उसके दो कारण हैं। एक- नीतीश कुमार की लोकप्रियता में लगातार कमी आ रही है। दूसरा- उनसे अब लोगों को ऊब होने लगी है।
एक तीसरा भी कारण है और वह है नीतीश कुमार का स्वास्थ्य। पिछले काफी समय से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है। बीजेपी के सामने यह दूसरी चुनौती है। बिहार विधानसभा के इस चुनाव में नीतीश कुमार पहले के चुनावों की तरह कैंपेन नहीं कर पाएंगे, इस बात को बीजेपी तो जानती ही है- जेडीयू के लोग भी समझते हैं। लेकिन उनका चेहरा आगे करके लड़ने में भाजपा को फायदा है इसलिए भाजपा पहले से भी बोल रही है और चुनाव के समय भी बोलेगी कि चुनाव के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। वह इस बात का जोखिम नहीं ले सकती कि चुनाव से पहले कि कहे कि चुनाव के बाद कोई और मुख्यमंत्री बनेगा। रणनीति के नाते भाजपा का रुख यही होगा कि चुनाव के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे और नीतीश कुमार के चेहरे पर व उनके नाम पर हम चुनाव मैदान में उतरेंगे। नीतीश कुमार के सामने होने पर फिर तेजस्वी यादव कहीं ठहरते नहीं। चाहे प्रशासनिक क्षमता की बात करें- चाहे कद की बात करें- ईमानदारी की बात करें या फिर अनुभव की बात करें- किसी भी लिहाज से तेजस्वी यादव नीतीश कुमार के सामने टिकते नहीं है… और भारतीय जनता पार्टी के पास प्रदेश में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसका कद नीतीश कुमार या उनके आसपास हो, उनसे बड़ा तो कोई सवाल ही नहीं है। भाजपा की यह कमजोरी नीतीश कुमार को लगातार नेतृत्व सौंपने पर मजबूर कर रही है।
सवाल है कि चुनाव के बाद क्या होगा? हालांकि इस सवाल का जवाब खोजना अभी बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन भाजपा को बहुत जल्दी ही इसका सामना करना पड़ेगा। इस सच्चाई का सामना करना पड़ेगा कि नीतीश कुमार अपने स्वास्थ्य के कारण अब मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की योग्यता नहीं रखते। बाकी उनकी योग्यता में कोई कमी नहीं है लेकिन एक तो इतना लंबा समय हो गया है, दूसरा उनके स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आ रही है। अगर आप पूरी तरह से कैंपेन नहीं कर सकते तो आपके स्वास्थ्य को लेकर नैरेटिव बनता ही है ऐसा हमने देखा है।
उड़ीसा में क्या हुआ नवीन पटनायक के साथ? उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी। उनकी सरकार की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी। उनकी सरकार की योजनाओं की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी। 24 साल तक मुख्यमंत्री रहे। लेकिन एक नैरेटिव- जिसको बीजेपी ने और मजबूत किया- चला, और चलाया गया और यह बात सही भी थी कि उनका स्वास्थ्य गिर रहा था। उसने चुनाव को बदलने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। नीतीश कुमार के साथ भी यही है कि उनका स्वास्थ्य लोगों के बीच एक मुद्दा बन चुका है। ऐसी बातें छिपती नहीं हैं। इसलिए आप देखेंगे कि पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार सार्वजनिक मंच पर या सार्वजनिक समारोहों में कम आने लगे हैं। यह लगातार दूसरा मौका है जब दिल्ली में एनडीए की बैठक हुई है। दिल्ली में मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में जब नीतीश कुमार नहीं आए हैं तो इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नीतीश कुमार के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है। बीजेपी इस सच्चाई से बहुत देर तक मुंह नहीं मोड़ सकती। उसको चुनाव नतीजे आने के बाद की तैयारी रखनी पड़ेगी। उस स्थिति का सामना करने के लिए उसे नीतीश कुमार और जेडीयू के लोगों को पहले से तैयार करना पड़ेगा और अपनी पार्टी को भी तैयार करना पड़ेगा। अभी की परिस्थिति में लगता है कि नीतीश कुमार बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए का चेहरा होंगे और भाजपा तथा जेडीयू दोनों यह कहेंगे भी कि चुनाव के बाद नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री रहेंगे- लेकिन चुनाव के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा इसमें मुझे भारी शंका है।
यह बात फिर कह रहा हूं कि उनकी योग्यता पर कोई टिप्पणी नहीं है, केवल उनके स्वास्थ्य के कारण यह बात कही जा रही है कि नीतीश कुमार की इनिंग्स खत्म हो रही है। अब वह 2025 के चुनाव के बाद क्रिकेट की भाषा में ‘रिटायर्ड हर्ट’ होने वाले हैं। इसकी तैयारी भाजपा ने मानसिक रूप से जरूर कर ली होगी लेकिन रणनीति के तहत अभी भाजपा का कोई नेता इस बात की संभावना पर भी चर्चा करने को, बोलने को तैयार नहीं होगा। हालांकि भाजपा के नेता हों या जेडीयू के नेता- सबको मालूम है कि नीतीश कुमार का अब इस पद पर लंबे समय तक बने रहना बहुत कठिन है। नीतीश कुमार एक ही समय में एसेट और लायबिलिटी दोनों बन गए हैं। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा आप यह मानकर नहीं चल सकते कि एनडीए के विरोधी यानी आरजेडी और कांग्रेस नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को मुद्दा नहीं बनाएंगे। एनडीए के विरोधी भी चुनाव में इसे मुद्दा बनाएंगे इसलिए बीजेपी को उसकी काट के लिए अभी से तैयार रहना पड़ेगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)