7 अक्टूबर, 2023 से 7 अक्टूबर, 2024 के बीच क्या बदला।
प्रमोद जोशी।
गज़ा में एक साल की लड़ाई ने इस इलाके में गहरे राजनीतिक, मानवीय और सामाजिक घाव छोड़े हैं। इन घावों के अलावा भविष्य की विश्व-व्यवस्था के लिए कुछ बड़े सवाल और ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म दिया है। इस प्रक्रिया का समापन किसी बड़ी लड़ाई से भी हो सकता है।
गज़ा से शुरू हुई लड़ाई अब लेबनान तक पहुँच गई है और इसका दायरा सीरिया, इराक, ईरान और यमन तक पहुँच रहा है। इसे 7 अक्टूबर, 2023 से शुरू हुई लड़ाई मानें, तो एक बात है, अन्यथा यह कम से कम 1948 या उसके पहले से चल रही है। ऐसा नज़र आ रहा है कि इसराइल के खिलाफ लड़ाई अब ईरान के नेतृत्व में ही चलेगी। उसके साथ हमास, हिज़्बुल्ला, हूती और हशद अल-शबी जैसे संगठन हैं, जिन्हें ईरान का प्रॉक्सी माना जाता है। इनके अलावा कुछ छोटे संगठन भी हैं।
पिछले साल 7 अक्तूबर को हमास ने अचानक गज़ा की सीमा पर लगे अवरोधों को तोड़कर किए गए हमले में करीब 1,200 लोगों की हत्या कर दी और 251 लोगों को बंधक बना लिया। इनमें से एक साल बाद भी 97 लोग बंधक बने हुए हैं। माना जाता है कि एक तिहाई लोग पहले ही मर चुके हैं।
अमेरिका, कतर और मिस्र ने नवंबर 2023 में कुछ समय के लिए युद्ध विराम कराने और कुछ बंधकों को मुक्त करने में शुरुआती सफलता हासिल की थी। पर उसके बाद शुरू हुई लड़ाई अभी जारी है, बल्कि व्यापक क्षेत्रीय संघर्ष का अंदेशा बढ़ता जा रहा है।
अचानक हुए हमले से एकबारगी इसराइल हिल गया। एक लंबे अरसे बाद उसने अपने प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई शुरू की और यह कहा कि हमारा लक्ष्य हमास को पूरी तरह तबाह करना है। उसने शुरू में हवाई हमले किए और फिर जमीनी आक्रमण, जो आज भी जारी हैं। इन हमलों से हमास का संगठनात्मक-तंत्र नष्ट ज़रूर हुआ है, पर फलस्तीनियों के मन में इसराइल को लेकर नाराज़गी बढ़ी है। दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अरब देश इस लड़ाई से उकता गए हैं और वे इससे दूर होना चाहते हैं।
गज़ा के बाद लेबनान में इसराइल का नवीनतम आक्रमण 16 सितंबर को हिज़बुल्ला के खिलाफ पेजर-बमों के विस्फोटों के साथ शुरू हुआ। अगले दिन, वॉकी-टॉकी फटे। इसके बाद बाकायदा सैनिक अभियान शुरू हो गया। इसराइल के हवाई अभियान की तीव्रता और कमांडरों की हत्याओं के बावजूद, इस हमले के आगे झुकना और युद्ध-विराम की अपील करना हिज़्बुल्ला के डीएनए में नहीं है। इसलिए लड़ाई के बढ़ने का ही अंदेशा ज्यादा है।
इस महीने के शुरू में ईरान ने करीब दो सौ बैलिस्टिक मिसाइलें इसराइल पर दागीं, जिसके बाद से इसराइल और ईरान के बीच सीधी लड़ाई का खतरा बढ़ गया है। हालांकि इसराइल ने अभी तक जवाबी कार्रवाई नहीं की है, पर माना जा रहा है कि जवाब आएगा।
इसके पहले अप्रैल में भी ईरान ने 300 से अधिक मिसाइलों और ड्रोनों की बौछार इसराइल पर की थी। उधर यमन के हूती विद्रोही इसराइल पर मिसाइलें दागते रहे हैं। वे लाल सागर और बाब अल-मंदेब जलडमरूमध्य में पश्चिमी देशों के व्यापारिक पोतों पर लगातार हमले कर रहे हैं।
यह सब एक व्यापक युद्ध की प्रस्तावना जैसा लगता है, जिसकी संभावना पहले गज़ा के चीफ इस्माइल हानिये और फिर हिज़्बुल्ला के महासचिव हसन नसरल्लाह की हत्या फिर इसराइली सुरक्षा बलों (आईडीएफ़) के दक्षिणी लेबनान पर जमीनी हमलों के बाद बहुत बढ़ गई है।
इन बातों के अलावा एक बड़ा सवाल है कि ईरान और अमेरिका-इसराइल के बढ़ते टकराव के दौर में क्या सऊदी-इसराइल के रिश्ते बेहतर होंगे? अब्राहम समझौते का भविष्य क्या है वगैरह? दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि इसराइल के खिलाफ ‘प्रतिरोध की धुरी’ का भविष्य क्या है?
दरअसल इसे इसराइल की लड़ाई के बजाय अमेरिका और ईरान की लड़ाई मानना चाहिए। यह इस इलाके में अमेरिकी वर्चस्व की लड़ाई भी है, जिसमें अरब देश अब अमेरिका के करीब आते दिखाई पड़ रहे हैं। इस दौरान इस इलाके में चीन और रूस ने प्रवेश का प्रयास भी किया है। चीन ने फलस्तीनी-समूहों के बीच असहमतियों को दूर करने का प्रयास भी किया है, पर आज भी चीन की सामर्थ्य इतनी नहीं है कि इस इलाके में वह निर्णायक भूमिका निभा सके।
ईरान इस वक्त इसराइल के खिलाफ है, जबकि 1979 की क्रांति से पहले वह इसराइल के साथ हुआ करता था। तब वहाँ अमेरिका-परस्त शाह रज़ा पहलवी का शासन हुआ करता था। 1979 की ईरानी क्रांति ने हजारों साल पुरानी राजशाही को खत्म किया था, जिसके बाद यहाँ एक लोकतांत्रिक गणराज्य का जन्म हुआ।
ईरान के अंतिम बादशाह शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी अमेरिका और इसराइल के करीबी सहयोगी थे। तख्त पर उनकी वापसी भी अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से हुई थी, जिन्होंने 1953 में ईरान के लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्देक़ का तख्ता-पलट कराया था।
पर इस क्रिया की प्रतिक्रिया होनी थी। जनता के मन में विरोध ने जन्म ले लिया था। परिणाम यह हुआ कि ईरान में इस्लामिक-क्रांति ने जन्म लिया, जिसके कारण 1979 में आयतुल्ला खुमैनी की वापसी हुई। शाह के खिलाफ उस क्रांति में वामपंथियों का एक तबका भी उनके साथ था, पर आयतुल्ला खुमैनी के शासन ने उनका क्रूर दमन कर दिया।
पश्चिम एशिया के शेष मुस्लिम देशों की तुलना में ईरानी-समाज में लोकतांत्रिक-भावना ज्यादा गहरी है और आज वहाँ वर्तमान व्यवस्था के विरोधी भी सक्रिय हैं। अमेरिका में इस वक्त एक सामरिक-धारणा है कि ईरान में किसी तरह से आयतुल्ला खामनेई का तख्ता-पलट करके दूसरी व्यवस्था लाई जाए, पर यह काम आसान नहीं है, क्योंकि अमेरिका में अब शेष विश्व से हाथ खींचने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
ईरान के इस्लामिक-प्रशासन को अरब देश, इसराइल और अमेरिका, दुश्मन मानते हैं। 1979 में ईरानी-क्रांति के एक साल के भीतर, पड़ोसी देश इराक ने अरब राजशाही और अमेरिका के समर्थन से ईरान पर हमला किया।
उस दौर में ईरान ने प्रतिरोध का नया मॉडल अपनाया।
यह है इस इलाके में सशस्त्र संगठनों का नेटवर्क बनाना, जो इस वक्त दिखाई पड़ रहा है। मूलतः हमास इस नेटवर्क का हिस्सा नहीं था, पर उसका आक्रामक रुख उसे ईरान के करीब ले गया। पिछले साल हमास ने जब 7 अक्तूबर को इसराइल पर हमला किया, तब इसराइल ने जवाबी कार्रवाई की। उस मौके पर हिज़्बुल्ला और हूतियों ने इसराइल पर हमले बोले। इराक में स्थित हशद ने इराक, सीरिया और जॉर्डन में अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाया।
इस इलाके के घटनाक्रम पर नज़र रखने के साथ अमेरिका और इसराइल की आंतरिक-राजनीति पर भी नज़र रखनी होगी। पिछले साल यह लड़ाई तब शुरू हुई थी, जब अमेरिका की छत्र-छाया में अरब देशों और इसराइल के बीच कोई समझौता होने वाला था।
उस वक्त इसराइल की आंतरिक राजनीति में भी आलोड़न-विलोड़न चल रहा था। बिन्यामिन नेतन्याहू का नेतृत्व संकट में था। इस लड़ाई की वजह से इसराइली राजनीति में वहाँ के दक्षिणपंथी फिलहाल हावी हो गए हैं। यरूशलम स्थित थिंक टैंक इसराइल डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट द्वारा सितम्बर में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, 61 प्रतिशत दक्षिणपंथी यहूदी इसराइली, जो नेतन्याहू-समर्थक हैं, युद्ध जारी रखने का समर्थन करते हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की गतिविधियाँ चल रही हैं। जनवरी 2025 में जब अगला अमेरिकी प्रशासन सत्ता में आएगा, तब इसराइल के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, क्योंकि अमेरिकी जनमत लड़ाई को खत्म कराने के पक्ष में है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों ने इसराइल से गज़ा अभियान को बंद करने का आह्वान किया है।
(लेखक हिन्दुस्तान, नयी दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)