अशोक झा।
किसी की जाति, किसी की विकलांगता, किसी की सामाजिक स्थिति, किसी के किसी विशेष लिंग-श्रेणी में होने और इसके अलावा और भी कई विशेषताओं और कमियों के कारण उपहास का पात्र बनाना कोई हमसे सीखे। हम भारतीय इसमें बेहद दक्ष और पटु हैं। ऐसा करके हमें बेहद आत्मिक और दूसरे तरह का सुकून प्राप्त होता है। कई लोगों को ऐसा करके रात को अच्छी नींद भी आती होगी।
इस बारे में संवेदनशील होने की बात को हम तरजीह नहीं देते। ऐसा नहीं है कि सारे लोग संवेदनाहीन हैं पर यह संवेदनशीलता कुछ पढ़े-लिखे और इस मुद्दे को लेकर जागरूक लोगों तक सीमित है। अपने बच्चों को इस बाबत बताना हम ज़रूरी नहीं मानते और जब यही बच्चे बड़े होते हैं तो अगर बदतमीज़ नहीं भी हुए तो भी इन बारे में किसी तरह की संवेदनशीलता से सर्वथा रहित होते हैं।
मैं इसकी चर्चा यहाँ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इस तरह के उपहास को झेला हूँ और मामला ताज़ातरीन है। इसकी चर्चा मेरे जैसे लोगों के लिए करना इसलिए भी ज़रूरी है कि अनेक सामाजिक कारणों से हमारे जैसे लोग आज तक किसी तरह की स्टीरियोटाइपिंग से बचते रहे हैं। पर अब हमें इसका सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मेरे बाल सफ़ेद हैं, मेरी उम्र ज्यादा है और कुछ लोगों को लगता है (और यह लगना ग़लत नहीं है) कि मैं बुड्ढा हो गया हूँ और इस वजह से बुढ़ापे की सारी कमज़ोरियों से ग्रस्त हूँ।
हम ख़ुद को बहुत ही भाग्यशाली मानते हैं कि जाति, लिंग धर्म आदि के नाम पर समाज के जिन दूसरे लोगों का उपहास किया जाता है, उन्हें अपमानित किया जाता है, उसे हमने नहीं झेला है। मैंने अपनी जाति ख़ुद नहीं चुनी है और न ही इस पर गर्व करता हूँ। भूल से भी इसका ज़िक्र नहीं करता और जब कोई इस विषय को श्रेष्ठता साबित करने के लिए उठाता है तो कोशिश यही रहती है कि उसका मुँह नोच लूँ। पर इतना तो समझता हूँ कि जाति ने हमें ऐसी बहुत स्टीरियोटाइप से बचाया जिसका सामना उन्हें करना पड़ता है जिन्होंने मेरी ही तरह अपनी जाति नहीं चुनी पर जिस जाति में जन्म के कारण वे फँस गये।
इसी तरह पुरुष होने की वजह से भी हम उन आक्षेपों से बच गये जो हमारे समाज में लड़कियों और महिलाओं को झेलनी पड़ती है।
पर ये सारी बातें मैं आज कर रहा हूँ। एक समय था जब हममें यह चेतना नहीं थी और निस्संदेह हमने अपनी जाति और लिंग दोनों की वजह से मिलनेवाली सुविधाओं को अपने रास्ते आने दिया होगा और इसका लाभ भी उठाया होगा। इस चेतनाहीनता ने हमारे रास्ते रोके हैं, हमें कई अर्थों में उठने नहीं दिया। ख़ैर, यह बात और इसका विश्लेषण किसी और समय के लिए।
अब जब हम उम्र के एक ऐसे मोड़ पर हैं जब बुड्ढों की जमात में शुमार किये जा रहे हैं (और मुझे इस बात की ख़ुशी है कि हम ऐसे हैं), जीवन में पहली बार हमें स्टीरियोटाइप का सामना करना पड़ रहा है। और सच कह रहा हूँ, जब भी ऐसा हुआ, मैंने अपना आपा खोया। मुझे अफ़सोस है कि मैं ख़ुद पर कंट्रोल नहीं रख पाया, शायद मुझे ऐसे किसी नाज़ुक क्षण को सँभालना नहीं आता है। यह कला भी हमें सीखनी होगी क्योंकि लोगों को यह भी अखरता है कि बुड्ढे होकर हम “इस तरह” से बात करते हैं। यक़ीन मानिए, हमारा समाज कोई रियायत किसी को नहीं देता। ऐसा नहीं है कि कथित रूप से निचली जातियों, महिलाओं, बच्चों, बूढ़े लोगों, आदिवासियों और दूसरे धर्म के लोगों के बारे में जो बातें की जाती थी हम उसको नहीं समझते थे। पर समझना अलग बात है और उसको झेलना बिलकुल ही अलग।
अपने साथ हुए दो वाक़यों का ज़िक्र यहाँ करना चाहता हूँ जो अभी कुछ ही दिन पहले हुआ है।
हमारे मुहल्ले, इंदिरापुरम में 10k रेस का आयोजन हुआ और हमें बताया गया कि IHC के Decathlon में आकर अपना अपना बिब (रनिंग नंबर) ले लें। मैं यहाँ पहुँचा। एक 20-21 साल की लड़की लैपटॉप लेकर बैठी थी। मुझसे आगे एक जवान को वह निपटाने में लगी थी। उसके बाद मेरा नंबर आया। उसने लैपटॉप से अपनी नज़र उठाते हुए मुझसे पूछा, पाँच किलोमीटर ( की श्रेणी में दौड़ रहे हैं)? मैंने कहा नहीं, 10k। मेरी आवाज़ तेज थी। उसकी आँखों से लगा कि उसने बुरा माना है। मुझे काफ़ी ग़ुस्सा आया था। उस लड़के से उसने एक बार भी यह नहीं पूछा था कि वह कितना किलोमीटर दौड़ रहा है। मैं अपने डेटेल्स के साथ तैयार था और उसे कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती अगर वह मेरा डेटेल्स देखती। पर उसने मेरी ऊपर एक निगाह डालने के बाद 10k की श्रेणी से मुझे निकाल चुकी थी और जब उसे मालूम हुआ कि उसका अनुमान ग़लत निकला तो वह असंयत हो गई थी। विनम्र होने की उसकी तमाम कोशिश नाकाम हो रही थी। उसने मुझे पासवर्ड बताने को कहा जो मैंने उसे दो बार ग़लत बताया क्योंकि मैं काफ़ी उत्तेजित था। बाद में मैंने उसे अपना मोबाइल दिखाया तो वह बतायी कि आप ग़लत बता रहे थे। मैंने उसे सॉरी कहा। वह मुस्कुरायी। इसके बाद उसने मुझे बग़ल में बैठी महिला के पास जाने को कहा।
यह महिला भी मेरे कुछ कहने से पहले ही मुझे थोड़ा रुकने को कहा। बग़ल वाली लड़की से उसने मेरा नाम पूछा, और फिर मेरा डेटेल्स देखा। फिर बोली आपने तो अपने tee का साइज़ लिखा ही नहीं है। मैंने उसे वो डेटेल्स दिखाया जो ऑर्गनाइज़र को भेजा था जिसमें tee का साइज़ दिया हुआ था। हो सकता है कि ये सारी बातें महज़ एक संयोग रही हो और एक बुड्ढे धावक के सामने होने जैसी सोच से इसका कोई संबंध नहीं रहा हो, पर यह सब भला मैं क्यों सोचूँ! और मैं सामने बैठे व्यक्ति से उसी तरह के व्यवहार की उम्मीद क्यों नहीं करूँ जो वह हमसे कम उम्र के लोगों के साथ कर रही है?
दूसरा वाक़या भी bib collection से ही जुड़ा है। 20 अक्तूबर को हुए वेदांता दिल्ली मैराथन के लिए बिब लेने गया। चूँकि मैं स्लैमर हूँ ( क्योंकि मैं प्रोकैम द्वारा क्रमशः दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, और बेंगलोर में आयोजित सभी चारों मैराथन 21k, 25k, 42k और 10k को एक कैलेंडर वर्ष में पूरा कर चुका हूँ) और आगे भी स्लैम एटेम्पट करनेवाला हूँ सो ऐसे लोगों के लिए अलग काउंटर बनाये गये थे। वहाँ वही 18-20 साल की एक लड़की बैठी थी और वह मुझसे आगे खड़ी एक महिला को बिब देने की औपचारिकता पूरी कर रही थी। मैं मोबाइल पर अपना डेटेल्स लेकर तैयार था। इस महिला के जाते ही मैं जब आगे आया, वह मुझसे बहुत ही रूखे स्वर में बोली: आपको क्या है? मैं बुरी तरह सुलग चुका था।
उसको लगा कि वह स्लैमरों के काउंटर पर है और कोई बुड्ढा यहाँ कैसे हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि उसके सामने उस समय तक कोई मेरे जैसा व्यक्ति बिब के लिये नहीं आया था। पर मैं उसे भला इस रियायत भरी सोच का लाभ क्यों दूँ?
मुझे यह भी नहीं लगता कि मेरे जाने के बाद उसने एक मिनट भी यह सोचने पर ख़र्च किया होगा कि मुझे ग़ुस्सा क्यों आया!
उसको लगा कि मैं ग़लती से उसके काउंटर पर आ गया हूँ। हो सकता है कि मेरे बारे में और कई सारी ग़लत धारणाएँ उसने बना ली होगी। यह भी हो सकता है कि उसने ऐसा कुछ भी नहीं सोचा होगा। पर उसका व्यवहार कहीं से परिस्थिति के अनुकूल नहीं था।
किसी भी सूरत में वह जहां बैठी थी, उसको मेरे बारे में किसी तरह का पूर्वानुमान लगाना स्टीरियोटाइपिंग ही माना जाएगा। वह दलील दे सकती है कि उसने ऐसा कुछ नहीं सोचा था। पर ऐसा तो हम सब करते हैं जब हमें यह मालूम होता है कि हमने ग़लती की है।
ऐसे कई वाक़ये इससे पहले भी हो चुके है पर मैंने इस दृष्टिकोण से इन पर विचार नहीं किया था। अब मुझे यह लग रहा है कि हम और मेरे हमउम्र एक ऐसी श्रेणी में आ गये हैं जो कास्ट न्यूट्रल, जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल है।
स्टीरियोटाइपिंग कितना कष्टकारी होता है इसका प्रत्यक्ष अनुभव हमें हो रहा है और यह भी समझ में आ रहा है कि जिनके साथ ऐसा होता है उन पर क्या बीतती है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मैराथन धावक हैं)