Anil Singhअनिल सिंह । 
उत्तर वैदिक काल में जब धर्म विधियां जटिल से जटिलतर होते कर्मकांडों के दायरे में अवरुद्ध होने लगीं तो वह आम लोगों की पहुंच से बाहर चली गईं। बदलते समाज की गति के साथ उनका कोई तालमेल नहीं रह गया । क्रमशः अचेतन रूप से यह दूरी इस सीमा तक पहुंच जाती है कि क्रांति के अतिरिक्त समन्वय साधना का कोई उपाय नहीं रह जाता। 

प्राचीन काल की इस महाक्रांति के प्रधान नायक बनकर सामने आते हैं श्रीकृष्ण। उन्होंने कर्मकांड की निरर्थकता से समाज को मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया। इससे स्पष्ट देखा जा सकता है कि पुरातन-नूतन का संघर्ष उन दिनों भी चल रहा था। विनाश की चरम सीमा पर ही निर्माणक पैदा होता है। संहार की चरम स्थिति उद्धारक को जन्म देती है। भले ही हम उसे भगवान कह दें; पर वह भी होता है परिस्थितियों की उपज ही, अपने समय की आवश्यकता।

कृष्ण की जीवन यात्रा

कृष्ण की जीवन यात्रा को मैं दो भागों में विभक्त करता हूं — एक, द्वारका के पूर्ण स्थायित्व तक की और दो, महाभारत के कृष्ण।
नाग जाति के एक समर्थ सरदार कालियनाग ने जलराशि के प्राकृतिक उपयोग के देवदत्त सिद्धांत के विरुद्ध गोपों  की गौवों का यमुना में पानी पीना भी दूभर कर दिया। गोपो का नेतृत्व करते हुए कृष्ण ने युद्ध शुरू कर दिया और कालिय को पराजित कर भगा दिया।

मरी हुई परंपराओं के विरुद्ध

इंद्र पूजा के निमित्त ब्रजवासियों से, मथुरा राज्य द्वारा भारी कर वसूला जाता था। कृष्ण ने उसका खुला विरोध किया। क्यों की जाए यह पूजा? जिस इंद्र को देखा नहीं, उसके प्रति कैसी श्रद्धा? गोवर्धन पर्वत तो आंखों के सामने प्रत्यक्ष है, उससे तो बहुत कुछ प्राप्त होता है। तो फिर उसी की पूजा की जानी चाहिए। वे अंधविश्वासों और मरी हुई परंपराओं के विरुद्ध खड्गहस्त हो चुके हैं। जिस परंपरा की कोई उपयोगिता न रह गई हो ,जिसने अपनी प्रासंगिकता खो दी हो, उसे टूटना ही चाहिए।
फिर भी वे यह भली-भांति समझते हैं कि इंद्र-पूजा ब्रजवासियों के लिए एक परंपरा है, एक धर्म है, एक भावना है। धर्म, मान्यता, भावना- यह सभी सापेक्ष हैं। कोई भी पूजा की भावना, भले ही वह जर्जरित हो, व्यर्थ  हो, उसका प्रतिकार वही व्यक्ति कर सकता है, जो उसके स्थान पर अधिक सबल भावना का निर्माण कर सके। कृष्ण उन्हें बलवत्तर  श्रद्धा प्रदान करते हैं।

मथुरा का सहमा हुआ माहौल

कृष्ण मथुरा आते हैं। वहां कंस ने, यादवों  के समस्त कुलों के जनप्रिय नायक, अपने पिता उग्रसेन को बंदी बना लिया है। वसुदेव -देवकी भी कारागार में हैं। कंस, आर्येतर जातियों और दास -व्यवस्था के शक्तिशाली समर्थक, जरासंध और उसके साथियों से मैत्री करके राजा बन बैठा है। यादवों  की गणतांत्रिक व्यवस्था समाप्त कर दी गई है। मथुरा के सहमे हुए माहौल से कृष्ण भांप लेते हैं कि वृष्णि और अंधक कुलों के बहुतेरे लोग भयवश ऊपर-ऊपर तो कंस से मिले हुए हैं पर भीतर ही भीतर उसका पतन चाहते हैं। लेकिन दूसरी तरफ कंस के विश्वस्त मागधी सैनिकों की एक टुकड़ी उसकी सुरक्षा में सन्नद्ध  है। कृष्ण निर्णय लेते हैं; योजना बनाते हैं; और जब तक कोई कुछ समझ सके, आनन-फानन में कंस को मार गिराते हैं। कंस के अचानक संहार से सभी स्तब्ध रह जाते हैं; फलस्वरूप नृशंस  हत्याकांड और संभ्रम की संभावना समाप्त हो जाती है।
कंस -वध के बाद कृष्ण आर्यावर्त के एक छोटे से गांव गोकुल के सामान्य गोपाल -पुत्र नहीं रहते, वह आर्यावर्त पर छा जाते हैं। वह यादवों  के तारणहार और नायक बन जाते हैं। उग्रसेन को एक बार फिर पुरानी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को करवाया था कर्तव्याभास - sri krishan adviceto arjun in mahabharat

लड़ाई उन्हें अकेले ही लड़नी है

मथुरा के कुलगुरु गर्गाचार्य कृष्ण को विभिन्न यादव कुलों के बीच बढ़ते आपसी मतभेद और वैमनस्य की जानकारी देते हैं। कृष्ण जान चुके हैं कि वह विराट महत्वाकांक्षाओं और प्रचंड राजनीतिक चालों  के अपरिचित जगत में फंस चुके हैं। कंस के ससुर और उस समय के सबसे बड़े सम्राट जरासंध की प्रतिष्ठा को उन्होंने धक्का पहुंचाया है। आज नहीं तो कल उससे लड़ना ही होगा। यादवों  की स्थिति को देखते हुए वह समझ चुके हैं कि बड़े भाई बलराम के साथ यह लड़ाई उन्हें अकेले ही लड़नी है।

स्वतंत्रचेता बुद्धि हमारी मार्गदर्शक

शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए दोनों भाई गुरु संदीपनि के आश्रम में भेजे जाते हैं। उन्हें ऐसे गुरु मिलते हैं जो केवल पारंपरिक ज्ञान के बंदी नहीं हैं। परिस्थिति और परिवेश के अनुसार उनका चिंतन नए संदर्भों के साथ जुड़ जाता है। वे परंपरा और आधुनिकता के अद्भुत समन्वय हैं। उनकी मान्यता है कि शास्त्र बोझ की तरह ढोने के लिए नहीं, वरन् जीवन का बोझ हल्का करने के लिए होता है। जब यह दिखाई दे कि उसमें जीवन की सद्यः उभरी समस्या का समाधान करने की सामर्थ्य नहीं है, तब उसे इतिहास की पिटारी में बंद कर देना चाहिए। तब हमारी स्वतंत्रचेता बुद्धि हमारी मार्गदर्शक होगी।  (जारी) 
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)