अनिल सिंह ।
हिंदू धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी को पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में नहीं स्वीकारा गया। जिन्हें अवतारवाद में श्रद्धा है वह कृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार मानते हैं।
आत्मा में विराट का दर्शन
छांदोग्य उपनिषद में आत्मा और परमात्मा के विषय में चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य आत्मा में रत हो जाता है, वह आत्मा का ही सहचर होता है। आत्मा में ही इस विराट का दर्शन करता है; उसके लिए परमात्मा कहीं बाहर नहीं है। आत्मा में ही परमात्मा का समावेश होता है। आत्मा को पहचानने का साहस कोई छोटा साहस नहीं है। समग्र विश्व के साथ जब तादात्म्य प्रकट होता है, उस समय उसकी आत्मा में यह विश्व समा जाता है। ऐसा विश्व आत्मा में तभी समाता है जब कोई लोकोत्तर पुरुष इस आत्मा को पहचान लेता है। कृष्ण ने विश्व चेतना के साथ तादात्म्य साधकर इस आत्मा को पहचाना था और इसलिए अपने में स्थित आत्मा में समाए विश्व का दर्शन उन्होंने अर्जुन को कराया।
और अवतारवाद का जहां तक संबंध है यह विभावना गीता के चौथे अध्याय के श्लोक ‘संभवामि युगे युगे’ से पहले कहीं नहीं दिखती। कर्मकांडों की धर्माट्टालिका, जो जनसामान्य की पहुंच से कहीं बाहर थी, भरभरा कर अपनी ही विशालता में खो जाती है।
युगधर्म
कृष्ण के इस प्रयास को यदि व्यक्तिगत अध्यवसाय की दृष्टि से देखा जाए तो यह युगधर्म का ही एक रूप है। महाभारत युद्ध का काल साधारणतया प्रायः 1400 ईस्वी पूर्व माना जाता है जब मिस्र, असीरिया संसार की राजनीति में विशेष जागरूक थे। दोनों देशों के 17वीं सदी ईस्वी पूर्व के बाद के राजा विदेशों को जीतकर उनके देवालयों से प्राचीन देव मूर्तियों को हटा अपनी प्रतिमाएं स्थापित कर पुजवाते हैं। मिस्र के आहहेतेप और असीरिया के हंबुरावी की तो यह स्वाभाविक नीति हो गई थी। कृष्ण ने भी अपने पराक्रम और कौशल से विजय प्राप्त की और देवालयों में स्थापित हुए। आहहेतेप और हंबुरावी अपने शासन तलवार की नोक से प्रतिष्ठित करते हैं। कृष्ण महान हैं, उनसे कहीं महत्तर। उनके चमकते चक्र की पैनी धार के साथ-साथ गीता का एक समन्वित दर्शन भी है।
विद्रोह की पराकाष्ठा
गीता भी एक उपनिषद है जो प्राचीन उपनिषदों में अंतिम है। उसका दर्शन औपनिषदिक विद्रोह की पराकाष्ठा है। यज्ञपरक अनुष्ठानों के केंद्र वेदों एवं ब्राह्मण ग्रंथों पर प्रहार में गीता अद्वितीय है। “….तप एव परम् बलमा” के विरुद्ध गीता में स्थान-स्थान पर तप, यज्ञ क्रिया आदि पर आक्षेप है जहां यज्ञानुष्ठानों के केंद्र के स्थान पर वासुदेव कृष्ण की प्रतिष्ठा की जाती है। इस गूढ़ दर्शन का तत्व क्या है? 15वें अध्याय का प्रथम श्लोक संभवतः इस प्रसंग पर प्रकाश डालता है। यह दर्शन ऐसा अश्वत्थ हैं जिसकी शाखाएं तो अधोमुखी हैं और जड़ें आकाश में हैं (उर्ध्व मूल-मधः शाखा) सिद्धांत प्रमाणित वैदिक धर्म के विरोध में है। उसके प्रति यह कृष्ण और गीता का वाम-मार्ग है। प्राचीन को भुलाकर जो इस अपेक्षाकृत नवीन, इसके वेदवत पत्तों को जानता है, वही वास्तव में वेदों को जानने वाला है (यस्यं वेद स वेदवित)। इतना ही नहीं योग की प्राचीन परंपरागत व्याख्या- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’- की सर्वथा उपेक्षा कर, उलट कर कृष्ण ने उसकी अपनी परिभाषा की- योगः कर्मसु कौशलम्- क्रमागत व्याख्या के विरुद्ध परंतु अपनी सर्वस्वायत्तीकर नीति से सर्वथा संगत। कौन अस्वीकार कर सकता है कि अवतारवाद की मीमांसा कर स्वयं उसका केंद्र बन जाने वाले कृष्ण कर्मयोगी योजनाओं को पूर्णतया संपादित करने में कुशल न थे।
यह कृष्ण को मान्य नहीं
सकल विश्व में जो कुछ है उसका पूर्ण किंतु संयमपूर्ण उपभोग, उसका स्वीकार। जो देह के अनुकूल हो उसका ही स्वीकार और जो प्रतिकूल हो, उसका अस्वीकार- यह कृष्ण को मान्य नहीं। संपूर्ण स्वीकार- यही है कृष्णत्व। गांधारी के शाप का और आप्तजनों के अंत का भी सहज भाव से स्वीकार। यह स्वीकृति ही कृष्ण को पूर्णत्व प्रदान करती है। अन्य किसी देवी- देवता के चरित्र में इस प्रकार सकल सृष्टि का बिना किसी अपवाद के पूर्ण स्वीकार नहीं हुआ। अन्य सभी में अनेक सुनिश्चित लक्षणों को त्याज्य या ग्राह्य मानकर महत्ता का आरोपण हुआ है। कृष्ण ने ऐसी सुनिश्चित लक्षणों वाली महत्ता को स्वीकार नहीं किया। उल्टे इन लक्षणों को उन्होंने नई विभावना दी। यही है कृष्ण का पूर्ण पुरुषोत्तम स्वरूप।
पूर्णत्व के आदर्श
कृष्ण का व्यक्तित्व जिस प्रकार लोकोत्तर है उसी प्रकार कालोत्तर भी है। कृष्ण एक ऐसे व्यक्तित्व हैं कि जिसको स्वीकार किए बिना किसी का भी गुजर नहीं होता। कृष्ण के शताब्दियों बाद प्रकट हुए बौद्ध तथा जैन धर्म को भी अपने मार्ग में सबसे बड़ी बाधा प्रतीत हुए और इसलिए राम अथवा अन्य किसी हिंदू देवी देवता को नहीं, मात्र कृष्ण को ही बौद्ध धर्म ने मार (शैतान) कहा और निम्न कोटि का व्यक्ति चित्रित करने का प्रयास किया तो जैन धर्म में उन्हें गीता में दिए हिंसा के उपदेश के लिए नरक में भेजने की सजा दी। कृष्ण ने तो हिंसा का उपदेश दिया किंतु राम ने तो अनेक गुना अधिक हिंसा की थी और ऐसा होने पर भी राम को नरकवास की सजा नहीं दी गई। यह इस बात का समर्थन है कि कृष्ण का व्यक्तित्व बाद की शताब्दियों में अन्य धर्मोपदेशकों को को कितना विराट प्रतीत हुआ होगा।
मनुष्य जाति जब तक विचार करना जारी रखेगी, तब तक कृष्ण टिके रहेंगे; कारण कृष्ण एक आदर्श हैं- पूर्णत्व के आदर्श। ईश्वर के विषय में मनुष्य जाति ने भिन्न-भिन्न काल तथा क्षेत्रों में जो कल्पनाएं की हैं, उन कल्पनाओं के आविष्कार हैं- कृष्ण! (समाप्त)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)