अनिल सिंह ।
गुरु पुत्र पुनर्दत्त का अपहरण आदिवासी बंजारा जाति के प्रमुख राक्षस पंचजन द्वारा, समुद्रतटीय धार्मिक एवं व्यावसायिक केंद्र प्रभास क्षेत्र से उसे वैवस्वतपुर ले जाया गया। कृष्ण अपनी चतुराई और साहस से पंचजन पर विजय प्राप्त कर पुनर्जन्म को छुड़ा लाते हैं।
गुरु के आश्रम में कृष्ण मंथन में लगे रहते हैं। उत्तर कुरु में कोई किसी का राजा नहीं। सिंधु और वाह्लीक तक में आयुधजीवी स्वतंत्र स्वेच्छाचारी गण है। कुरुदेश में शासन व्यवस्था अधिक से अधिक निरंकुश होती जा रही है। मगध से कामरूप तक निरंकुश राज्य सत्ताएं हैं। गंगा और विंध्य के बीच कहीं नाग हैं, कहीं असुर हैं, कहीं वानर हैं। सब शक्ति बढ़ा रहे हैं। भयंकर विस्फोट की आशंका दिख रही है।
कालयवन का दमन
कृष्ण मथुरा आते हैं। वहां की जर्जर दशा और यादवों में व्याप्त हताशा को वे देखते हैं। जरासंध के विशाल सैन्य बल से टक्कर ले पाना मथुरा के लिए आसान नहीं है। जिन यादवों को कृष्ण ने कंस के अत्याचारों से मुक्त किया, वे ही अब चाहते हैं कि कृष्ण अन्यत्र कहीं चले जाएं। उधर कृष्ण को वापस आया जान, जरासंध फिर से मथुरा पर आक्रमण की योजना बनाता है। इस बार वह विदेशी शासक कालयवन को अपने सहयोग के लिए आमंत्रित करता है। इसकी सूचना पा कृष्ण, बलराम के साथ अकेले ही मथुरा का त्याग इस प्रकार करते हैं जिससे जरासंध उन्हें पलायन करते देख सके और उन्हीं के पीछे लग जाए। वह महसूस करते हैं कि मागधों और यादवों के बीच संघर्ष तो आर्यावर्त का आंतरिक मामला है जिनसे कभी भी हिसाब किया जा सकता है; किंतु एक बार किसी विदेशी सत्ता का हस्तक्षेप आर्यावर्त की सीमाओं में हो गया तो इसका दूरगामी परिणाम घातक होगा। इसीलिए जब तक दोनों आपस में मिलें, उससे पहले ही कृष्ण, कालयवन को भ्रमित कर अपने जाल में फंसा लेते हैं और अंधेरी कंदरा में घुसा कर उसे मार देते हैं।
जरासंध को भी चकमा देते हुए कृष्ण और बलराम गोमंतक पर्वत तक ले आते हैं और स्वयं पर्वत श्रृंखलाओं में छुप जाते हैं। जरासंध उन्हें जीवित जला देने के उद्देश्य से सारे पर्वत में आग लगवा देता है; तथापि दोनों भाई बच निकलते हैं। वहां से निकलकर वह कुशस्थली जाते हैं और जरासंध उन्हें मरा हुआ जान, वापस मगध। कुशस्थली आनर्त प्रदेश का प्रमुख नगर था जो बलराम के ससुर और वहां के राजा रेवत की ओर से पुत्री रेवती को कन्यादान में दिया गया।
द्वारका में यादव सुरक्षित
दोनों भाई अथक प्रयास कर कुशस्थली को द्वारका में बदल देते हैं। द्वारका की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह यादवों को पूरी सुरक्षा दे सके। जलमार्ग से कोई आक्रमण होना संभव नहीं और भूमार्ग से रैवतक पर्वत तथा समुद्र के पृष्ठभाग की पहाड़ी, शत्रु से रक्षा कर सकते हैं। इस प्रकार व्यूहात्मक भू-राजनीतिक दृष्टि से द्वारका का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। कृष्ण की युद्ध-नीति के लिए यह स्थान अति उत्तम है। द्वारका की स्थापना हो जाने के बाद ही अन्य यादव मथुरा से वहां आते हैं।
द्वारका स्थापित हो चुकी है और यादव सुरक्षित। अब कृष्ण को जरासंध के विरोधी और तटस्थ क्षत्रियों की अगुवाई करनी है। जरासंध से छुपते हुए गोमंतक पहाड़ियों में प्रवास के दौरान वह गरुड़ जाति के संपर्क में आ चुके हैं। अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए गरुणों को संगठित करते हैं और उन्हें शस्त्र- संचालन व निर्माण की कला सिखाते हैं। पर्याप्त सैन्य बल और शस्त्र आदि संग्रहीत कर लेने के उपरांत वह आर्यावर्त के एकाकी वासुदेव बनने की ओर अग्रसर होते हैं। इस दिशा में उनका पहला प्रयाण कर्वीपुर की ओर होता है, जहां के राजा श्रृंगलव ने स्वयं को वासुदेव घोषित कर रखा है। बिना किसी सैन्य क्षति के वे उसे एकाकी युद्ध में अपने प्रमुख आयुध चक्र सुदर्शन का ग्रास बना देते हैं और उसके पुत्र शुक्रदेव को वहां का शासन सौंप अपना मित्र बना लेते हैं। यही स्थिति काशिराज पौंड्र की भी होती है।
संघर्ष को जीने में रुचि, झेलने में नहीं
जरासंध के अतिरिक्त आर्यावर्त के प्रमुख क्षत्रिय राजा हैं– विदर्भ के भीष्मक, चेदि के दामघोष, पांचाल के द्रुपद और हस्तिनापुर के धृतराष्ट्र। इनकी दृष्टि में कृष्ण अभी भी एक या दो क्षत्रिय नायक के पुत्र मात्र हैं। उनमें अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए वे विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी का हरण कर उससे विवाह करते हैं। अब उनका संबंध विदर्भ के उस संभ्रांत क्षत्रिय कुल से हो जाता है जहां अपना विवाह कर कभी राम के दादा अज ने गर्व किया था। रुक्मिणी का विवाह चेदिराज दामघोष के पुत्र शिशुपाल से कराने की जरासंध की योजना धरी की धरी रह जाती है।
अभी तक कृष्ण की युद्ध -मीमांसा जो दिखाई पड़ती है, उन्होंने यथासंभव युद्ध से दूर रहना पसंद किया है। उन्होंने आगे भी अपने जीवन में निरर्थक हिंसा का सदा विरोध किया। वे स्वयं युद्ध के पास कभी नहीं जाते; पर जब भी युद्ध उनके पास आता है उसकी चुनौती स्वीकार करते हैं। संघर्ष को जीने में वे रुचि रखते हैं झेलने में नहीं। नियति मार्ग निर्धारित कर चुकी है। कृष्ण को तो स्वयं गोवर्धन बनना है, जिसमें निराश्रितों का ब्रज समा जाए। (जारी)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)