अनिल सिंह ।
महाभारत में कृष्ण पहली बार प्रकट होते हैं पांचाल नरेश द्रुपद की कन्या द्रोपदी के स्वयंवर के समय। उसी समय उनके मुख से ‘धर्मतः’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके बाद इस शब्द की व्याप्ति कृष्ण के जीवन में अधिकाधिक होती गई। अपनी विलक्षण बुद्धि और व्यवहारपटुता से उन्होंने धर्मतः जो भी आचरण किया, उसमें कहीं भी स्वहित नहीं ,परहित है और यह परहित अंत में समष्टिगत हित की ओर ही ले जाता है। व्यापक धर्म की रक्षा के लिए वे व्यष्टिगत या संकुचित धर्म का त्याग करना ही कृष्ण का धर्माचरण है।
बुद्धि कौशल
स्वयंवर मंडप में वे यादवों का समूह लेकर आते तो हैं परंतु द्रोपदी को प्राप्त करने के लिए नहीं। उन्हें गुप्तचरों से सूचना मिल चुकी है कि पांडव वारणावत के लाक्षागृह में जले नहीं, बल्कि संभवतः निकल भागे हैं। ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन जिस प्रकार लक्ष्यभेद करते हैं और उसके तत्काल बाद वे लोग जिस प्रकार बौखलाए उपद्रवी राजाओं का प्रतिकार करते हैं, कृष्ण समझ जाते हैं कि यह पांडव ही हैं। वे तुरंत अर्जुन की बगल में आ खड़े होते हैं और अपनी बुद्धि-कौशल से रक्तपात नहीं होने देते।
इसके बाद विराट पर्व में गो-ग्रहण के समय पांडवों द्वारा कौरवों को मार भगाए जाने के प्रसंग को छोड़ दें, तो पांडवों के द्वारा ऐसा कोई महान् कार्य नहीं हुआ,जिसमें कृष्ण की सहायता न रही हो।
राज्य छीनना कृष्ण की नीति के प्रतिकूल
पांडवों ने कृष्ण को आगे कर खांडव-वन और उसके भीतर खांडवप्रस्थ जैसे छोटे से स्थान को राजधानी इंद्रप्रस्थ में बदल दिया। युधिष्ठिर के मन में राजसूय यज्ञ करने का विचार आता है। कृष्ण उन्हें विभिन्न राज्यों के राजाओं के विषय में बताते हैं कि कौन अनुकूल है और कौन प्रतिकूल। जब तक जरासंध का वध नहीं होता और उसके द्वारा बंदी बनाए गए पूर्ववर्ती राजाओं को मुक्त नहीं करा लिया जाता, तब तक युधिष्ठिर के लिए राजसूय यज्ञ करना संभव नहीं होगा। कृष्ण निरर्थक युद्ध और रक्तपात के हिमायती नहीं है। वे केवल भीम और अर्जुन को साथ ले मगध जाते हैं, जिनके शौर्य, साहस और पराक्रम में उन्हें पूर्ण विश्वास है। जरासंध को मल्लयुद्ध की चुनौती देते हैं, पर साथ ही यह भी कहते हैं कि यदि वह बंदी राजाओं को मुक्त कर उनके राज्य लौटा देता है तो वह वापस चले जाएंगे। जरासंध नहीं मानता और मल्लयुद्ध में भीम के हाथों मारा जाता है। बंदी गृह में पड़े राजाओं को मुक्त कर जरासंध के पुत्र को ही मगध के सिंहासन पर बैठा दिया जाता है। क्षत्रिय लोग एक दूसरे के राज्य छीन लें, यह कृष्ण की नीति के प्रतिकूल है। जो आचार- विचार उन्हें गर्ह्य मालूम होते, उनको समूल नष्ट करने हेतु बड़े से बड़ा संकट मोल लेने में वे कभी झिझकते नहीं। यह कार्य जितना अपने कुल के लिए आवश्यक है उतना ही अन्य सभी राजवंशों की एक विशिष्ट श्रृंखला बनाने के उनके प्रयत्न का भी द्योतक है।
आर्यावर्त के वास्तविक वासुदेव
अब कृष्ण आर्यावर्त के अघोषित चक्रवर्ती और वास्तविक वासुदेव हैं। चकाचौंध कर देने वाले दैवी तेज और असामान्य वैभव से युक्त वे, उनका रथ, उनके घोड़े जहां कहीं भी हों, लोगों की आंखें चौंधिया देते हैं। तभी तो राजसूय यज्ञ की अग्रपूजा हेतु भीष्म, जो स्वयं में प्रमाण हैं, उन्हीं का नाम प्रस्तावित करते हैं। लेकिन चेदिराज शिशुपाल को यह स्वीकार नहीं। कृष्ण का पांडवों से जो नाता है वही शिशुपाल से भी है। परंतु वह राजनीतिक कारणों से जरासंध का मित्र और कृष्ण का शत्रु हो जाता है। कृष्ण की योजना में शिशुपाल का वध नहीं है, किंतु परिस्थितियां कुछ ऐसी उत्पन्न हुईं कि बात बढ़ जाती है और युद्ध की संभावना दिखने लगी। कृष्ण अचानक अपने चक्र से उसका वध कर देते हैं। ऐसे समय यदि मंडप से बाहर युद्ध शुरू हो जाता, तो यज्ञ बाधित होता। अकेले शिशुपाल का लगे हाथ वध हो जाने से सभी लोग भय और आश्चर्य से स्तब्ध रह जाते हैं।
कृष्ण के साध्य व्यापक हैं। फिर भी वे पांडवों की वैयक्तिक महत्वाकांक्षा से जुड़े ही रहे। पांडवों का शक्तिसंपन्न होना भी कृष्ण के साध्य के लिए आवश्यक है। बलराम के विरोध के बावजूद वे अर्जुन द्वारा अपनी बहन सुभद्रा का, अपना ही रथ देकर हरण करा लेते हैं। जब बलराम सहित अन्य यादव वीरों ने अर्जुन को पकड़ने के लिए पीछा किया तो उन्हें यह समझा कर कि यादवों और पांडवों का संबंध किस प्रकार लाभदाई है, उन्हें वापस ले आते हैं।
युधिष्ठिर की मूर्खता
बड़े प्रयास से खड़ा किया गया प्रासाद अनपेक्षित रूप से युधिष्ठिर की मूर्खता के कारण क्षणभर में भूमिसात् हो जाता है। शेष रहा तो बस कृष्ण का वासुदेवत्व, उनकी महत्ता। युधिष्ठिर की मूर्खता की पराकाष्ठा तो तब हो जाती है जब एक बार द्रोपदी तक को हार जाने के बाद वह दुबारा भी द्यूत-क्रीड़ा से विरत नहीं होते। यह एक ऐसा प्रसंग है जब पांडवों को कृष्ण की सलाह अथवा सहायता नहीं प्राप्त हो पाती और वे सर्वनाश की कगार तक पहुंच जाते हैं। इस कठिन स्थिति में कृष्ण पांडवों से अपनी मित्रता को नहीं भूलते, उनके पक्ष में अडिग खड़े रहते हैं। वनवास के समय पांडवों के परिवार की व्यवस्था का वे पांचालों की सहायता से पूरी तरह निर्वहन करते हैं।
मानवीय कृत्य
वनवास और अज्ञातवास की समाप्ति के उपरांत जब पांडव उपलव्य में निवास कर रहे हैं, संजय धृतराष्ट्र के दूत बनकर आते हैं। उनकी बातें सुनकर कृष्ण स्वयं मध्यस्थ होकर हस्तिनापुर जाने का निश्चय करते हैं ।द्रौपदी सखा कृष्ण को अपनी खुली हुई केशराशि दिखाकर कहती है- ‘ये बाल दुःशासन ने भरी सभा में खींचे थे और वह भी तुम्हारे जीवित रहते, यह मत भूलना कृष्ण।’ सुनते ही वे द्रवित हो उठते हैं- ‘द्रोपदी ! जिस प्रकार तूने रुदन किया था, उसी प्रकार अब शत्रुओं का नाश होने पर कौरव स्त्रियां रुदन करेंगी, यह निश्चित मानना।’ यही तो कृष्ण का मानवीय कृत्य है। जाते -जाते वे अर्जुन से भी कहते हैं- ‘परंतप ! मनुष्य से जो बन सके, वे सभी प्रयत्न मैं करूंगा; किंतु कोई दैवी कार्य तो मुझसे हो सकेगा नहीं।’ किंतु यदि महासंग्राम टाला जा सकता हो तो अपनी प्रिय सखी को दिया गया वचन भी दांव पर लगा देना ही कृष्ण को अभिप्रेत है। वे कितनी ऊंचाई पर हैं यह उनके प्रयत्नों से स्पष्ट होता है।
सन्धि के प्रयास
हस्तिनापुर जाते हुए भी कृष्ण ने पूरी सावधानी बरती। समुचित सैन्य सज्जा के साथ सात्यकि को लेकर गए। कौरव सभा में अपनी बात उन्होंने पहले समझाने से प्रारंभ की। यहां तक कि वे पांडवों के लिए केवल 5 गांव की मांग तक उतर आते हैं, जिसको भी दुर्योधन ने ठुकरा दिया। समझाने का जब कोई प्रभाव दुर्योधन पर नहीं होता तो उसे धमकाते हैं। दुर्योधन सभा से उठ कर चला जाता है। तब भी कृष्ण वृद्ध कुरुजनों को सर्वनाश से उबरने का मार्ग सुझाते हुए कहते हैं- ‘कुल के लिए व्यक्ति का त्याग करना चाहिए, ग्राम के लिए कुल का त्याग, राष्ट्र के लिए ग्राम का त्याग, और आत्मा के लिए पृथ्वी का त्याग करना चाहिए।’ कृष्ण के वक्तव्य का कुरुसभा पर चमत्कारी प्रभाव होते हुए देख उन्हें बंदी बनाने के प्रयोजन से, दुर्योधन फिर सभा में आता है। कृष्ण गर्जन करते हुए धृतराष्ट्र को चेतावनी देते हैं- ‘यदि मैं चाहूं तो तुम्हारे इस पुत्र को अभी पकड़ कर पांडवों के हवाले कर सकता हूं। पर ऐसा निंदनीय कार्य मैं करूंगा नहीं।’ उनके अप्रतिम व्यक्तित्व का ऐसा चमत्कारी मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है कि समूची सभा आतंकित हो सहम जाती है।
उन्होंने संधि- प्रयास की कोई कसर उठा नहीं रखी। साम, दाम और दंड के बाद भेद नीति भी अपना लेना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि कर्ण, दुर्योधन द्वारा उन्हें बंदी बना लेने के षड्यंत्र में भागीदार था, अंतिम प्रयास के रूप में उससे मिलते हैं। उसे बताते हैं कि वह जेष्ठ कुंती-पुत्र है, अतः पांडवों की विजय के उपरांत सम्राट वही बनेगा। द्रौपदी उसकी भी पत्नी बनेगी। पर कर्ण दुर्योधन की मित्रता के मोल में कुछ भी स्वीकार नहीं करता। यहां वह एक क्षण के लिए कृष्ण से भी कुछ ऊंचा उठ जाता है जब वह कहता है- ‘कृष्ण ! यह बात युधिष्ठिर से मत बताना, वरना वह पूरा साम्राज्य मेरे चरणों में अर्पित कर देगा और फिर मैं दुर्योधन के।’ यहां कर्ण जो वेदना सहन कर रहा है, वह कल्पनातीत है। किंतु कर्ण की वेदना कृष्ण की वेदना से भिन्न इसलिए रहती है कि इसमें व्यष्टि आत्मसात हुई है- कृष्ण में कहीं व्यष्टि नहीं मात्र समष्टि है।
कर्तव्य समझकर कर्म करो
कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाएं आमने- सामने सन्नद्ध हो चुकी हैं। सामने आत्मीयजनों को देख अर्जुन के मन में तीव्र विषाद उत्पन्न होता है । युद्ध की निरर्थकता के विषय में इतना अधिक व्यग्रचित्त होता है कि गांडीव हाथ से खिसक जाता है। तब अर्जुन के विषाद के साथ कृष्ण का संस्पर्श होता है जो इसे योग की भूमिका पर ले जाता है। योग की भूमिका पर ले जाकर उसे स्वधर्म की पुनर्स्मृति कराने का यह प्रयास सार्वकालिक महान दर्शन ‘श्रीमद्भगवद्गीता ‘ के रूप में प्रसिद्धि पाता है। कृष्ण कहते हैं, ‘आज नहीं तो कल सभी को मरना ही है। सीधा सामना करके मारो और मरो। कर्मजन्य और स्वधर्म के अनुसार अपने कर्तव्य करने का ही तुम्हें अधिकार है। उन कर्मों का फल अच्छा मिलेगा या बुरा इसकी चिंता करने का तुम्हें अधिकार नहीं है। फल की आशा मत रखो। कर्तव्य समझकर कर्म करो। निमित्त मात्र बनो।’ वे अर्जुन की शरणागति सहजता से स्वीकार करते हैं किंतु कोरी शरणागति नहीं, बुद्धिहीन शरणागति नहीं। इसीलिए वे कहते हैं — ‘मुझे जो कुछ कहना था ,वह मैंने तुमसे कह दिया; अब तुम्हें जो उचित लगे वह करो।’ यही तो है कृष्ण की महत्ता। (जारी)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)