अपने को पत्रकार बताने वाले प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी के विरोध में तमाम पत्रकार और मीडिया संगठन आवाज उठा रहे हैं। यह सही है कि देश के संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। पत्रकारों को भी संविधान के उसी प्रावधान के तहत यह स्वतंत्रता मिली है, जो देश के आम नागरिक को। दूसरी बात संविधान यह स्वतंत्रताकुछ वाजिब प्रतिबंध के साथ ही देता है।
इन लोगों से मेरे दस सवाल हैं।
- कनौजिया की ट्वीट देखने के बाद क्या उसे पत्रकार कहा जा सकता है?
- क्या कनौजिया के समर्थन में खड़े होने वाले लोग यह मानते हैं कि वाजिब प्रतिबंध की यह संवैधानिक व्यवस्था पत्रकारों पर लागू नहीं होती?
- उसे बचाने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दी जा रही है। जिसकी प्रतिष्ठा पर हमला हुआ है क्या उसका कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है?
- आखिर इस बात पर विचार होगा कि नहीं कि कनौजिया ने जो किया है वह कानून की नजर में सही है या गलत?
- वह गलत है तो कानून को अपना काम क्यों नहीं करना चाहिए?
- सवाल यह भी है कि जब इस तरह के ट्वीट, खबरें लिखी और दिखाई जाती हैं, तब वे कहां होते हैं जो आज कनौजिया के समर्थन में खड़े हैं?
- क्या ऐसे संगठनों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए कोई सांस्थानिक व्यवस्था करें?
- कनौजिया जैसे व्यक्ति के बचाव में खड़े होने वाले क्या संदेश दे रहे हैं?
- इन संगठनों के दबाव से कनौजिया बच गया तो ऐसे दूसरे लोगों का जो हौसला बढ़ेगा उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा?
- कानूनी कार्रवाई का विरोध करने से पहले क्या अपने अंदर झांकने की जरूरत नहीं है?
मीडिया के सामने प्रश्न कनौजिया का नहीं, पूरी पत्रकारिता की विश्वसनीयता का है। सोचने का वक्त है कि कनौजिया जैसों को बचाने से मीडिया की विश्वसनीयता बनती, बढ़ती है या खत्म होती है?