प्रदीप सिंह

देश की राजधानी दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगे में गई चौंतीस जानों का जिम्मेदार कौन है? केंद्रीय गृह मंत्रालय, राज्य सरकार, पुलिस, न्यायपालिका या सबको शरीके जुर्म माना जाय.


 

इन चार में से किसी एक को दोषी ठहराना सबसे आसान है. ऐसा करना समस्या का कारण खोजने की बजाय किसी एक को दोषी ठहराकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश होगी. क्योंकि पूरे घटनाक्रम में सबकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. पर राजनीति ऐसे नहीं चलती. वह राजनीतिक बलि के लिए बकरा खोजती है.

सो,दिल्ली के दंगों के लिए राजनीति ने बकरा खोज लिया है। उसका नाम है अमित शाह, देश के गृहमंत्री. एक के बाद एक राजनीतिक दल के नेता अमित शाह का इस्तीफा मांग रहे हैं. क्या दिल्ली में जो कुछ हुआ उसके लिए सिर्फ अमित शाह जिम्मेदार हैं? एक अजीब का तर्क दिया जा रहा है कि अमित शाह दंगा शांत कराने के लिए सड़क पर क्यों नहीं उतरे. पिछले तिहत्तर साल में देश ने इससे बड़े और भयानक दंगे देखें हैं। देश के बंटवारे के साथ ही साम्प्रदायिक दंगों का नया दौर शुरू हो गया था. तो सरदार पटेल से अमित शाह के पहले तक देश का कौन सा केंद्रीय गृहमंत्री दंगों के दौरान या तत्काल बाद सड़क पर उतरा? फिर अमित शाह से ही यह सवाल क्यों? क्योंकि ऐसा करना एक खास तरह के विमर्ष में फिट बैठता है. दरअसल इस तरह के विमर्ष के समर्थकों का वास्तविक निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं. अमित शाह तो बहाना हैं.

कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से मिलकर अमित शाह को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग की है. बुधवार को पार्टी की महामंत्री प्रियंका गांधी ने बताया कि देश के बंटवारे के बाद इंदिरा गांधी मुसलमानों और ईसाइयों के घरों में गई थीं. कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है. पहली बारत्रासदी के रूप में और दूसरी बार स्वांग के रूप में. दोनों नेता स्वांग ही कर रही थीं. क्या आजादी के बाद हुए भीषण दंगे के लिए तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को जिम्मेदार ठहराते हुए उनका इस्तीफा मांगा था? उसे छोड़िए क्या 1984 में सिखों के नरसंहार के बाद कांग्रेस पार्टी ने तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव से इस्तीफा मांगा था? अतीत बड़ा निर्मम होता है. किसी को बख्शता नहीं. मंत्रियों, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना राजनीति का एक कर्मकांड है. जिसके बिना राजनीतिक यज्ञ अधूरा लगता है। अमित शाह के इस्तीफे की मांग को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए.

दिल्ली के दंगों के सिलसिले में एक और बात कही जा रही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को सड़क पर उतरना पड़ा. इसे केंद्र सरकार की स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश के रूप में देखने की बजाय अमित शाह के कद को कम करने के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. दिल्ली के दंगों की गंभीरता से किसी को एतराज नहीं हो सकता. पर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और 35ए को खत्म करने बाद स्थिति को सामान्य करने का प्रयास इससे कई गुना बड़ी चुनौती थी. मोदी और शाह ने उस समय भी किसी मंत्री को नहीं डोभाल को ही घाटी की सड़कों पर उतारा था. तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि अमित शाह खुद घाटी की सड़कों पर क्यों नहीं उतरे. अब यह सवाल इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि कुछ लोगों की राजनीति को यह मुफीद नजर आता है.

Delhivoilence | Amit Shah: Home Minister Amit Shah Decided To Deploy NSA Ajit Doval In Delhi As Situation Worsened In Riot Hit Areas - दिल्ली की सड़कों पर क्यों उतारे गए डोभाल,
अजीत डोभाल ने पूर्वोत्तर दिल्ली के हिंसा-प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा स्थिति की समीक्षा की

दरअसल अजित डोभाल के रूप में सरकार के पास एक ऐसा मैनफ्राइडे है जो सुरक्षा, पुलिसिंग, इंटेलिजेंस और सीमित मामलों में राजनीतिक मोर्चे पर भी कारगर साबित हो सकता है. यह नहीं भूलना चाहिए कि डोभाल भारत के अब तकसबसे अव्वल फील्ड इंटेलिजेंस अफसरों में शुमार किए जाते हैं. पंजाब में आईबी अधिकारी के रूप में उन्होंने तत्कालीन पुलिस प्रमुख केपीएस गिल के साथ मिलकर आतंकवाद खत्म करने के लिए जो किया उसका कोई सानी नहीं है. कांधार मामले में भी वे मुख्य वार्ताकार थे. उनकी इन्हीं सब खूबियों को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें आईबी का निदेशक बनाया. तो डोभाल को दिल्ली सड़कों पर उतारना अमित शाह की कमजोरी नहीं, सही जगह और सही समय पर सही व्यक्ति को उतारने की रणनीति का हिस्सा है। डोभाल ने लोगों के बीच खुले तौर पर कहा भी कि उन्हें प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने भेजा है.

अब सवाल है कि दिल्ली के हालात के लिए जिम्मेदार कौन है? दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि पुलिस ने प्रोफेशनल ढंग से काम नहीं किया. कार्रवाई के लिए किसी के आदेश के इंतजार की जरूरत नहीं है। बात बिल्कुल सही है. पर जब पुलिस हर समय अपने कंधे के पीछे देखती रहे कि कार्रवाई करने के बाद उसे अदालत में किस तरह के सवालों का जवाब देना होगा तो कार्रवाई करना आसान नहीं रह जाता. दिल्ली दंगो की नींव शाहीनबाग के गैरकानूनी धरने के साथ ही पड़ गई थी. ढ़ाई महीने हो गए हैं देश की सर्वोच्च अदालत फैसला नहीं कर पाई है कि इस गैर कानूनी धरने के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाय. सरकार धरना हटाने का आदेश देती है तो कल अदालत कह सकती है कि यह उसकी अवमानना है. पुलिस धरने को बल पूर्वक हटाती है तो अदालत उससे सूली पर चढ़ा देगी यह आशंका बनी रहती है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय या गृहमंत्री अमित शाह की गलती यह है कि शाहीन के गैरकानूनी धरने के खिलाफ फौरन कार्रवाई नहीं की. उससे ऐसा करने वालों का मन बढ़ा और परेशान होने वालों का गुस्सा. अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के समय इसे हिंसक रूप देकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचने की साजिश का नतीजा हैं दिल्ली के दंगे. दोनों समुदायों के लोगों ने जिसको जहां मौका मिला दूसरे पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आम आदमी पार्टी की सरकार यह सोचकर घर बैठे तमाशा देखती रही कि जो भी बुरा होगा उसका ठीकरा भाजपा और उसकी सरकार पर फूटेगा. मुख्यमंत्री केजरीवाल अपना एक समय का बयान भूल गए. बलात्कार की घटनाओं पर जब शीला दीक्षित ने कहा कि हम क्या करें, हमारे पास पुलिस नही है. तो केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों से पूछा था कि क्या आपको ऐसी मजबूर मुख्यमंत्री चाहिए. अब इतिहास अपने को त्रासदी के रूप में दोहरा रहा है.

एक चर्चा और चल रही है कि डोभाल का सड़क पर उतरना अमित शाह के प्रति प्रधानमंत्री मोदी का अविश्वास है. पारम्परिक राजनीतिक संबंधों की रोशनी में तो ऐसा ही नजर आता है. आजादी के बाद से राजनीति दो और जोडियां रही है। नेहरू-सरदार पटेल और वाजपेयी- आडवाणी की. पर मोदी-शाह की जोड़ी की तुलना इन दोनों से नहीं हो सकती। जो दोनों में मतभेद की बात करते हैं वे न तो मोदी को जानते हैं और न ही अमित शाह को। अमित शाह मोदी के लिए चुनौती नहीं है.बल्कि मोदी, अमित शाह को अपने उत्तराधिकारी के रूप मेंधीरे धीरे तैयार कर रहे हैं.


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