प्रदीप सिंह
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों दो संघर्षों में उलझी हुई है। दोनों समानान्तर स्तर पर चल रहे हैं। पहला संघर्ष कांग्रेस के सामने अस्तित्व बचाने का है। दूसरा, कांग्रेस के प्रथम परिवार यानी नेहरू-गांधी परिवार का रुक्का कायम रखने या कहिए कि वीटो बनाए रखने का है। दोनों के केंद्र में सोनिया गांधी है। बहुत से कांग्रेसी 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में जीत को सोनिया गांधी का चमत्कार मानते हैं। उन्हें उम्मीद है फिर चमत्कार होगा। पर सोनिया गांधी का एक ही लक्ष्य है, राहुल को रीलॉन्च करने का। समस्या यह है कि इस प्रोडक्ट( राहुल) के रीलॉन्च के लिए न तो नया कलेवर है और न ही तेवर।
कहावत है,रहा भी न जाय और सहा भी न जाय। कांग्रेसियों का नेहरू-गांधी परिवार के साथ रिश्ता कुछ ऐसा ही हो गया है। पर पिछले कुछ दिनों से बदलाव के संकेत नजर आने लगे हैं। जिस कांग्रेस में परिवार के खिलाफ बोलना कुफ्र समझा जाता था उसमें परिवार की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठरहे हैं,दबी जबान से ही सही। पार्टी का एक वर्ग परिवार के म्यूजिकल चेयर के खेल से तंग आ चुका है। संदेश साफ है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष पद की फिर से जिम्मेदारी संभालना है तो संभालें और ठीक से काम करें। नहीं तो दूसरों के लिए रास्ता खाली करें।
संदीप दीक्षित, अभिषेक मनु सिंघवी मिलिंद देवड़ा, शशि थरूर, मनीष तिवारी, सलमान सोज और संजय झा जैसे कई नेता अलग अलग ढंग से नेतृत्व, विचारधारा, धर्मनिपेक्षक्षता, राष्ट्रवाद, आर्थिकनीति जैसे मुद्दों पर स्पष्टता, संगठन में फैसले के तरीके, कार्य संस्कृति और संगठन में विकेन्द्रीकरण का मुद्दा उठा रहे हैं। इनमें से कई नेताओं ने यह भी संकेत किया है कि पार्टी में पुराने नेता बदलाव नहीं होने दे रहे। जो बदलाव की बात कर रहे हैं उनके सामने भी कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है। वे बस चाहते हैं कि यथास्थिति बदले। जैसे चल रहा है वैसे नहीं चल सकता। इन नेताओं को भी अब लगने लगा है कि कांग्रेस का अस्तित्व खतरे में है।
पर सवाल है कि पहले परिवार में सत्ता के बंटवारे की गुत्थी तो सुलझे। राहुल गांधी ने करीब आठ महीने पहले अध्यक्ष पद छोड़ दिया कि और कहा कि परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बने। परिवार को पहला झटका यही लगा कि कांग्रेसजनों ने इस फैसले को इस तरह स्वीकार किया जैसे इसी का इंतजार कर रहे हों। लम्बी कसरत के बाद सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया और वे सहर्ष बन भी गईं। पार्टी की बागडोर परिवार के ही हाथ में ही रह गई। अब बताते हैं कि राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने को तैयार भी हैं और नहीं भी। सोनिया गांधी उनके अलावा किसी और को अध्यक्ष के रूप में देखना नहीं चाहतीं। राहुल गांधी ने सबको भला बुरा कहके अध्यक्ष पद तो छोड़ दिया। अब सवाल यह है कि क्या बोलकर लौटें। पुरानी रवायत तो यह है कि कांग्रेसी रोएं, गिड़गिड़ाएं कि आइए हुजूर बचाइए। पर यहां तो कोई बुला ही नहीं रहा। राहुल लाओ कांग्रेस बचाओ का नारा भी नहींलग रहा। कल्पना की दुनिया से निकलकर वास्तविकता की दुनिया से परिवार का पहली बार वास्ता पड़ा है।
प्रियंका गांधी का खेमा अलग जोर लगाए हुए है कि भाई नहीं तो बहन। उससे पहले प्रियंका राज्यसभा में जाना चाहती हैं। सोनिया भेजना नहीं चाहतीं। कई प्रदेश इकाइयां उन्हें राज्यसभा में भेजने को आतुर हैं। पर सोनिया गांधी अड़ी हुई हैं। वैसे यह सारी जानकारी सूत्रों के मुताबिक है। क्योंकि कांग्रेस के प्रथम परिवार में क्या चल रहा है इसके बारे में कोई आधिकारिक सूचना देने की परम्परा नहीं है। परिवार ही तय करता है और मुनादी कर दी जाती है।कांग्रेस के लोगों के साथ साथ साथ देश भी जानना चाहता है कि सोनिया गांधी ने राहुल के बारे में क्या तय किया। फिर राहुल ने उनके तय किए पर क्या तय किया। प्रियंका तय नहीं कर पा रहीं या अभी इतनी ताकतवर नहीं हुई हैं कि अपने बारे में तय कर सकें। तो फिर सवाल है कि उनके बारे में कौन तय करेगा मां या भाई। इस पूरे प्रसंग में कहीं कांग्रेस कार्य समिति या अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का कोई जिक्र नहीं आता। यह हाल है देश की सबसे पुरानी पार्टी का जो सुबह शाम जनतंत्र बचाने की गुहार लगाती है। मनीष तिवारी कह रहे हैं कि पंचमढ़ी जैसे मंथन शिविर होने चाहिए। जिसमें विचार हो कि भाजपा से अलग कांग्रेस राष्ट्रवाद को कैसे परिभाषित करे। अभी तो यहां परिवार के सदस्यों की भूमिका पर घर में ही मंथन का दौर पूरा नहीं हो रहा।
कांग्रेस की हालत 2004 से 2013 के बीच की भाजपा जैसी हो गई है। दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी केंद्रीय नेतृत्व जगह खाली करने को तैयार नहीं था। क्योंकि यथास्थिति टूटने से कई लोग असुरक्षित महसूस कर रहे थे। यह जानते हुए कि देश में नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है, उन्हें स्वीकार करने को नेतृत्व तैयार नहीं था। तो जनता ने कैडर पर दबाव डाला और कैडर ने नेताओं पर। इसके बावजूद आखिरी पल तक मोदी को रोकने की कोशिश हुई। कांग्रेस के मामले में तो जनता मुहं घुमाकर खड़ी है और कैडर परिवार से ऊब चुका है।
जो बात देश को काफी समय से दिख रही थी और अब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी दिखने लगी है वह परिवार के लोगों को नहीं दिख रही। दुष्यंत कुमार की गजल का एक शेर है- `तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।‘ पिछले छह साल में परिवार के लोगों के कामकाज के तरीके या सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। सोनिया गांधी से जिनको बहुत उम्मीद है वे भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनका स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं रहा। आखिरी बार उन्होंने किस चुनाव में खुलकर प्रचार किया था याद करना कठिन है। राहुल गांधी की हालत नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली है। कभी कभी तो उनके मामले में अढ़ाई कोस भी ज्यादा लगता है।
प्रियंका गांधी को राजनीति एक शगल की तरह नजर आती है। कभी मोटर साइकिल पर कभी स्टीमर पर चलकर कहीं पहुंच जाना उन्हें क्रांति की तरह लगता है। राजनीति उनके बस की बात नहीं लगती। परिवार के नाम पर मिलने वाला डिविडेन्ड अब बंद हो गया है। यह बात उत्तर प्रदेश विधानसभा और लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद भी उन्हें समझ में नहीं आई। तो सवाल है कि कांग्रेस का क्या होगा। इस सवाल का जवाब खोजने के लिए कांग्रेस के लोगों को पहले तय करना पड़ेगा कि इस परिवार का क्या होगा। परिवार पार्टी को चला भी नहीं रहा और हटने को भी तैयार नहीं है। लाख टके का सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। यही तो पूछा था, संदीप दीक्षित ने। इस प्रश्न को अभी तक उत्तर का इंतजार है।