—प्रदीप सिंह
सुप्रीम कोर्ट ने आज अयोध्या में राम जन्म भूमि मामले की सुनवाई के लिए तीन सदस्यीय खंडपीठ का गठन करने और सुनावई के लिए दस जनवरी की तारीख तय कर दी। यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए राहत की खबर है। पर राहत टिकाऊ होगी या क्षणजीवी यह दस जनवरी को पता चलेगा।
दरअसल राम मंदिर के मुद्दे पर संघ परिवार और प्रधानमंत्री की सोच में अंतर नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री अदालत के फैसले से पहले किसी तरह के कदम के पक्ष में नहीं हैं। वे जानते हैं कि चुनाव के समय इस मुद्दे पर फैसला आने की संभावना कम है। यदि आ भी गया तो उसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए जो कदम उठाने पड़ेंगे उनके लिए तो बिल्कुल ही समय नहीं है। एक बार चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद प्रधानमंत्री के हाथ बंध जाएंगे। प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि एक आधे अधूरे मुद्दे को लेकर इतने अहम चुनाव में जाएं। वे अपनी योजनाओं और उनके लाभार्थियों के बूते चुनाव में जाना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें राम मंदिर मुद्दे के चुनावी फायदे पर भी भरोसा नहीं है। यही कारण है कि वे पिछले पांच साल में देश विदेश के तमाम मंदिरों में गए लेकिन अयोध्या कभी नहीं गए।
हाल में एक एजेंसी को दिए इंटरव्यू में राम मंदिर के विषय में पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अदालत का आदेश आने के बाद वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करेंगे। इसके साथ ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों की इस मुद्दे पर अध्यादेश लाने की मांग पर उन्होंने विराम लगा दिया। पर संघ परिवार इस बात से सहमत नजर नहीं आता। उसे लग रहा है कि इस मुद्दे पर उसकी साख दांव पर है। संघ का कहना है कि तीन दशक से ज्यादा हो गया उसे इस मुद्दे पर आंदोलन शुरू किए पर अभी तक इसका हल नहीं निकला। संघ और भाजपा लोगों से कहते रहे हैं कि जब केंद्र और राज्य में उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार होगी तभी इस मुद्दे का हल निकल पाएगा। देश के लोगों ने दोनों जगह भाजपा की सरकार बनवा दी। अब संघ और भाजपा के सामने कोई बहाना नहीं बचा है। इतना ही नहीं भाजपा चुनाव दर चुनाव अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनवाने का वादा अपने चुनाव घोषणा पत्र में करती रही है। प्रधानमंत्री को पता है कि उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि पांच साल उनकी सरकार ने इस मुद्दे पर क्या किया। अपनी सरकार के काम काज के बारे में उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है। विपक्ष भले ही उस पर सवाल उठाए लेकिन उनके पास जवाब देने के लिए काम और बातों की कमी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने आज सुनवाई की पहली तारीख तय करके उन लोगों को चुप करा दिया है जो अदालत पर इस मामले के प्रति संवेदनहीनता का आरोप लगा रहे थे। मोदी और संघ के लिए असली परीक्षा की घड़ी दस जनवरी को आएगी। दस जनवरी को तीन जजों की बेंच को तय करना है कि वह आगे की सुनवाई कब से करगी। क्या अदालत इस मामले की रोजाना सुनवाई करेगी? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस बात की कितनी संभावना है कि यदि सुनवाई पूरी भी हो जाती है तो फैसला भी उसी समय आ जाएगा। साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के मामले की सुनवाई पूरी कर ली लेकिन फैसला नहीं दिया। अदालत ने कहा कि विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इस फैसले से चुनाव प्रभावित हो सकता है। यह दीगर बात है कि वह फैसला आज तक सुरक्षित है।
दस जनवरी को यदि रोजाना सुनवाई शुरु होती है तो संघ और मोदी की मुश्किलें थोड़ी कम हो जाएंगी। लेकिन सुनवाई लोकसभा चुनाव के बाद के लिए टाल दी गई तो सबसे बड़ा संकट प्रधानमंत्री के सामने होगा। उसके बाद संघ परिवार और संत का समाज का इस मुद्दे पर अध्यादेश लाने का दबाव बढ़ जाएगा। तब मोदी सरकार के लिए अदालत के पीछे छिपना कठिन हो जाएगा। प्रधानमंत्री को इन बातों का अंदाजा है। इसीलिए वे नहीं चाहते कि लोकसभा चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा मुख्य मुद्दा बने।
अदालत का रुख क्या होगा इसे लेकर कांग्रेस में भी आशंका है। शायद इसी को ध्यान में रखकर राहुल गांधी ने कहा है कि लोकसभा चुनाव में राम जन्म भूमि मुद्दा नहीं होगा। कांग्रेस इस मुद्दे पर भाजपा के जाल में नहीं फंसना चाहती। भाजपा बार बार कोशिश कर रही है कि कांग्रेस राम मंदिर के विरोध में खड़ी नजर आए। कांग्रेस पहले इस जाल में फंसती रही है। राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस इस मामले में बहुत स्पष्ट है कि किस रास्ते पर उसे नहीं जाना है। राम मंदिर का मुददा ऐसा ही है। क्योंकि कांग्रेस को पता है कि वह समर्थन करे तब भी मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय या चुनावी लाभ उसे नहीं मिलेगा।