प्रदीप सिंह ।
मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूं वह अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता के समर्थन या उसकी प्रशंसा मेंकतई नहीं है। पर मुझे देश के उन स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों,पत्रकारों और महान अफसरों की तलाश है जो एक भारत विरोधी सम्पादक के घर एक राज्य की पुलिस के जाने को मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनतंत्र पर खतरा बता रहे थे।महाराष्ट्र के बालाघाट में दो साधुओं को पुलिस की निगरानी में पीटपीट कर हत्या उनके लिए सामान्य बात है। इस घटना पर उनका रवैया ऐसा है, जैसे जो हुआ वह ठीक ही हुआ। अर्णब के खिलाफ कांग्रेसियों का देशव्यापी आर्तनाद तो सुनाई दिया। पर इस घटना पर सन्नाटा रहा। आतंकवादियों को बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा आधी रात को खुलवाने वाले बुद्धजीवी और कांग्रेसी वकील कान में तेल डालकर सोते रहे।
उद्धव ठाकरे ने साधुओं की हत्या के मामले में मजबूरी में कार्रवाई की। इस बात पर उनकी खीझ निकली उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर में दो साधुओं की हत्या पर। उन्होंने तुरंत मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को फोन किया। क्योंकि योगी जी ने बालाघाट की घटना पर उनसे बात की थी। एक बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री सामान्य ज्ञान की बात असमझने में असमर्थ है कि रंजिश में हत्या और पुलिस की निगरानी में कई सौ लोगों द्वारा दो निहत्थे साधुओं की हत्या में क्या फर्क है। जनतंत्र के किसी पहरुए ने अभी तक बालाघाटको मॉब लिंचिंग नहीं बताया और न ही देश में असहिष्णुता का ढ़ोल पीटा।
अर्णब गोस्वामी से मुंबई पुलिस ने बारह घंटे पूठताछ की। आप कहेंगे, भाई पुलिस है किसी से भी पूछताछ कर सकती है। बात तो ठीक है। लेकिन दो तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को हिदायत दी थी कि तीन हफ्ते तक अर्णब गोस्वामी के खिलाफ कोईउत्पीड़न की कार्रवाई नहीं होगी। बारह घंटे थाने में बिठाकर रखना उत्पीड़न नहीं है यह कहने वाले याद रखें। किसी दिन यही बयान उनके खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है।दूसरा, अर्णब गोस्वामी शिकायतकर्ता हैं। उनपर हमला हुआ था। उन पर हमला करने वाले कांग्रेसी दो दिन में जमानत पर छूट गए क्योंकि मुंबई पुलिस ने अदालत में उनकी जमानत का विरोध नहीं किया। करती भी कैसे वे लोग सोनिया जी के भक्त थे और महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार उन्हीं की कृपा से चल रही है। सत्ता कृपा से मिली हो तो उसकी कीमत तो चुकानी पड़ती है। राजनेताओं की याददाश्त अक्सर कमजोर होती है। सो उद्धव ठाकरे की भी है। वे भूल गए कि उनके दिंवगत पिता बाला साहेब ठाकरे का सोनिया गांधी के बारे में क्या विचार था। पर बाला साहबकी राजनीति सोनिया गांधी की कृपा की मोहताज नहीं थी।
ये जो सौ, दो सौ एफआईआर अर्णब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज हुई हैं वह इसलिए नहीं कि इन कांग्रेसियों को अर्णब की पत्रकारिता पर आपत्ति है। उनकी नाराजगी का एक ही कारण है कि, सोनिया जी का नाम लेने की हिम्मत कैसे हुई। जो सोनिया जी का नाम लेगा उसकी हिम्मत तोड़ना और सबक सिखाना जरूरी है। वास्तव में बात यह है कि दरबारी कांग्रेसियों की आंखें सोनिया जी की विराटता देखने की इतनी आदी हो चुकी हैं कि उन्हें सूक्ष्म दिखता ही नहीं। उन्हें सोनिया गांधी के जन्म के देश और शादी से पूर्व का नाम लेना नाकाबिले बर्दाश्त लगता है। अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता से कांग्रेस के लोगों को कुछ लेना देना नहीं है। अर्णब ने वह किया है जो पहले किसी ने नहीं किया।उन्होंने इस तिलिस्म को तोड़ दिया है कि‘परिवार’ के बारे में कोई कुछ व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं कर सकता।
आप इस देश के प्रधानमंत्री को गाली दीजिए। संवैधानिक पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश या मुख्य न्यायाधीश के बारे में कुछ भी बोलिए, वह सब संविधान से मिली वाणी स्वतंत्रता के दायरे में आता है। आप चाहें तो इस देश के खिलाफ भी बोल सकते हैं। इसे आपका मौलिक अधिकार माना जाएगा, जिसे कोई नहीं छीन सकता। कांग्रेस की नजर में भारत के संविधान का एक अलिखित अनुच्छेद है जो लिखे हुए संविधान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह यह कि ‘परिवार’ संवैधानिक व्यवस्थाओं और कानून से ऊपर है।
आज जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है उसमें कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसकी कमीज दूसरे से ज्यादा सफेद है। अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता पर सवाल उठाने वालों को एनडी टीवी की ओर भी देखना चाहिए। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। एक लुटियन मीडिया की बात करता है तो दूसरा गोदी मीडिया की। अपना- अपना एजेंडा चलाने का समय चला गया है। अब अपना अपना एजेंडा बेचने का समय है। सबने खरीददार तय कर रखे हैं। ये एजेंडा चलाने वाले ही नहीं इनके खरीददार भी आपस में तलवारें खींचे रहते हैं। पत्रकारिता का प्रमाण पत्र बांटने का धंधा तेजी पर है। क्षण भर में घोषणा हो जाती है कि फलां को तो मैं पत्रकार मानता ही नहीं। समर्थन की एक मुहिम चल पड़ती है। ये मुहिम चलाने वाले कभी अपने गिरेबाँ में नहीं झांकते। अपने फल के ठेले पर भगवा झंडा लगाने वाले दलित के खिलाफ तो आप मुकदमा दायर कर सकते हैं लेकिन मीडिया की इन दूकानों का क्या?
कांग्रेस में नेहरू के बाद की पाढ़ियों में एक बदलाव आया है। नेहरू को अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं थी। इसे रोकने के लिए 1951 में संविधान में पहला संशोधन हुआ। बदलाव यह है कि परिवार को छोड़कर पार्टी की नीतियों या उसके बाकी नेताओं की आलोचना से अब कोई एतराज नहीं है। क्योंकि ये सब तो नश्वर हैं। परिवार अविनाशी है, अमर है। ऐसा करने वाले पत्रकारों को पद्मश्री ही नहीं और भी बहुत कुछ मिल सकता है। इससे दो काम होते हैं। एक परिवार के स्वामिभक्त उसका रक्षा कवच बने रहते हैं। दूसरे निष्पक्ष पत्रकार होने का उनका दावा भी बना रहता है कि देखिए हमने तो कांग्रेस सरकार की भी आलोचना की थी। उसके बाद कोई परिवार की आलोचना करे तो यह हरावल दस्ता उस पर टूट पड़ता है। उसे संघी बताया जाएगा। उससे बात न बने तो भक्त और गोदी मीडिया वाला बता दो और उससे भी बात न बने तो घोषित कर दो कि यह तो पत्रकार है ही नहीं। उसके बाद कांग्रेसी सरकारें और नेता उस पर टूट पड़ेंगे।
जो लोग अर्णब के खिलाफ उद्धव ठाकरे सरकार की पुलिसिया कार्रवाई से खुश हो रहे हैं वे भूल रहे हैं कि वे अपने विरोधी विचारधारा वाली सत्ता का मार्ग सुगम कर रहे हैं, एक नजीर पेश कर रहे हैं। इस वर्ग में अभी तो पुलिस के घर पहुंचने पर ही हाहाकार है। जब थाने बुलाया जाएगा तो बारह घंटे ही पूछताछ होगी यह जरूरी तो नहीं। मीडिया का यह वर्ग अर्णब गोस्वामी से हिसाब किताब बराबर करने या उन्हें गिराने के चक्कर में पूरे मीडिया जगत के लिए खतरे को घर के दरवाजे पर ले आया है।