apka akhbarप्रदीप सिंह ।

खेत की रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है। पर वही बाड़ यदि खेत खाने लगे तो क्या किया जाय? किसी भी किसान से पूछिए वह कहेगा उसे फौरन काट देना चाहिए। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के खेत की वही बाड़ हैजो अब खेत खा रही है। समस्या यह है कि इस किसान( कांग्रेस) को बाड़ से प्रेम हो गया है। वह बाड़ को बचाने के लिए फसल की बलि देने को तैयार है। इसका परिणाम दिखना शुरू हो गया है। परिवार की साख खत्म हो चुकी है और पार्टी अंतः विस्फोट का शिकार हो गई है। लोग पार्टी छोड़ रहे हैं। जो अभी तक बने हुए हैं वे पार्टी के प्रेम के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि उन्हें आगे का रास्ता सूझ नहीं रहा।


 

आजादी के बहत्तर साल में संसद के अंदर और बाहर विपक्ष इतना दयनीय कभी नहीं रहा। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष का कुतुबनुमा यानी दिशा सूचक यंत्र खो गया है। इसलिए सब एक ही जगह पर गोल गोल घूम रहे हैं और एक दूसरे के ऊपर गिर रहे हैं। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता पिछले छह-सात दशकों से जिस सूरज की रोशनी में दमक रहे थे, उस सूरज को ही ग्रहण लग गया है। देश के दो राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहा है। चुनाव प्रचार और पार्टी संगठन की हालत देखकर यह पता लगाना कठिन है कि पार्टी अपने मुख्य प्रतिद्वन्द्वी भारतीय जनता पार्टी से लड़ रही है या आपस में। लोकसभा चुनाव के समय से शुरु हुआ कांग्रेस छोड़ने वालों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। पर नेतृत्व को इसकी कोई चिंता है, ऐसा दिखता तो नहीं।

कांग्रेस इस समय तीन स्वतंत्र द्वीपों में बंट गई है। इनके नाम हैं सोनिया, राहुल और प्रियंका। आप चाहें तो इन्हें द्वीप की बजाय गणराज्य भी कह सकते हैं। काफी समय से यह लड़ाई परिवार के अंदर चल रही थी। अब खुले में आ गई है। तीनों एक दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। पर एक दूसरे की सुनते भी नहीं। उनके गण जरूर बोल रहे हैं और क्या खुलकर बोल रहे हैं। अशोक तंवर और संजय निरुपम खुलेआम बोल रहे हैं कि राहुल गांधी के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। सोनिया गांधी और प्रियंका खामोश हैं।

राहुल गांधी को कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अपने प्रति अरुचि पैदा करने में करीब पंद्रह साल लग गए। प्रियंका गांधी ने यह कारनामा आठ महीने में कर दिखाया है। आप उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों से पूछ लीजिए।ताजा उदाहरण काला कांकर के दिनेश सिंह की बेटी रत्ना सिंह का है। तीन बार की सांसद रत्ना, प्रियंका के रवैए से परेशान होकर मंगलवार को भाजपा में शामिल हो गईं। प्रियंका गांधी इस साल फरवरी में राजनीतिक रूप से सक्रिय हुईं तो संकेत दिया कि कांग्रेस अब कम से कम उत्तर प्रदेश में पार्टी जमीन पर दिखेगी। पिछले आठ महीने एक दो अवसरों को छोड़कर वे ट्विटर पर ही ज्यादा नजर आती हैं। उनके ट्वीट पढ़कर उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता का ही नहीं उनकी अज्ञानता के स्तर का भी पता चलता है। सोनिया गांधी ट्विटर या किसी सोशल मीडिया पर हैं ही नहीं। वह दिन दूर नहीं लगता जब कांग्रेस पार्टी सिर्फ सोशल मीडिया के जरिए चलने वाली दुनिया की एकमात्र पार्टी का दर्जा हासिल कर लेगी। कांग्रेस के लिए समय 2004 में ठहर गया है। गांधी परिवार सहित तमाम कांग्रेसियों को लगता है कि कुछ करने की जरूरत नहीं भाजपा गलती करेगी और मतदाता हमारे गले में वरमाला डाल देगा।

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लगातार दूसरी बार दुर्गति हो चुकी है। उसके बाद हो रहे इन दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी के पास अवसर था कि वह मैदान में कम से कम लड़ती हुई नजर आए। चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अज्ञात स्थान के लिए रवाना हो गए। कहा गया कि वे नाराज होकर गए हैं। किससे पता नहीं। क्योंकि पार्टी अध्यक्ष तो उनकी मां ही हैं। चुनाव के ऐन मौके पर नेता का गायब होना वैसे ही है जैसे युद्ध के समय सेनापति का युद्ध के समय। प्रिंयका गांधी अब पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव हैं। उनके पास उत्तर प्रदेश का प्रभार है। इन दो राज्यों में वे कहीं चुनाव प्रचार के लिए नहीं गईं। अब गईं नहीं या जाने नहीं दिया गया यह बात परिवार के अलावा कोई जानता नहीं। उत्तर प्रदेश में बारह विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। प्रिंयका वहां भी चुनाव प्रचार के लिए नहीं गईं। चुनाव प्रचार के तीन दिन बचे हैं सोनिया गांधी कहीं भी चुनाव प्रचार के लिए नहीं गईं।

राहुल गांधी हो हल्ले के बाद देश लौटे और चुनाव प्रचार के लिए मुंबई पहुंचे।  उनके प्रिय और हाल तक मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रहे संजय निरुपम सभा तक में नहीं पहुंचे। राहुल गांधी पर मुंबइया टीवी सीरियलों का ज्यादा असर हो गया है। जैसे हिंदी टीवी सीरियलों में अक्सर किसी न किसी पात्र की याददाश्त कुछ समय पहले पर रुक जाती है, वैसा ही उनके साथ भी हो गया है। चुनाव महाराष्ट्र विधानसभा का है। उन्होंने अपना भाषण वहीं से शुरू किया जहां लोकसभा चुनाव में खत्म किया था। वे अभी राफेल के मोहपाश से निकल नहीं पाए हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि वे इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेर रहे हैं या खुद घिर रहे हैं।

सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनेदो महीने से ज्यादा हो गया लेकिन किसी को पता नहीं कि वे इस पद पर कब तक रहेंगी। भाजपा भी लोकसभा चुनाव लड़ी और कांग्रेस से ज्यादा ही ताकत से। उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कह रहे हैं कि दिसम्बर तक पार्टी के नए अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा। लोकसभा चुनाव की हार की जवाबदेही से राहुल को बचाने के लिए इस्तीफा दिलाया गया। कहलवाया गया कि नेहरू-गांधी परिवार का कोई व्यक्ति अध्यक्ष नहीं बनेगा। जब लगा कि पार्टी तो इसके लिए तैयार है तो सोनिया गांधी के पुराने वफादार मैदान में उतरे और सोनिया गांधी को नये अध्यक्ष के चुनाव तक अंतरिम अध्यक्ष बनवा दिया गया। तो घी गिरा तो लेकिन अपनी ही दाल में। अध्यक्ष पद घर में ही रह गया।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इंतजार था कि अब बदलाव होगा, तब बदलाव होगा। पर बदलाव की जितनी बात हो रही है उतना ही यथास्थिति बनी हुई है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते सारे बड़े फैसले परिवार की डाइनिंग टेबल पर होते थे। अब पूरी डाइनिंग टेबल ही उठकर कांग्रेस कार्यसमिति में आ गई है। अब परिवार की डाइनिंग टेबल और कार्यसमिति का अंतर खत्म हो गया है। नेहरू गांधी परिवार कांग्रेस के लिए बोझ बन गया है। इसकी वजह से कांग्रेस पार्टी विपक्ष की राजनीति के लिए बोझ बन गई है। स्वस्थ्य जनतंत्र के लिए जरूरी है कि विपक्ष संख्या में भले ही कम हो पर प्रभावी हो। कांग्रेस के रहते यह संभव नहीं लगता।

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