apka akhbar-ajayvidyutअजय विद्युत ।

मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ… यह नज्म कोई पचासेक साल पहले लिखी हुई है। हो सकता है यह नज्म पढ़ने के बाद आपमें से कुछ लोगों के मन में रचनाकार के बारे में जानने की जिज्ञासा उठी हो।


 

अपने समय के आला शायर जिन्हें हिंदुस्तान और विदेशों में उर्दू अदब की दुनिया शम्सी मीनाई (16-09-1920 से 16-09-1988) के नाम से जानती है, उनका मूल नाम शौकत अल्वी था। उत्तर प्रदेश में लखनऊ के पास बाराबंकी के रहने वाले थे। हालांकि शम्सी मीनाई का पैतृक स्थान लखनऊ के पास काकोरी में था लेकिन माता पिता बस्ती में रह रहे थे। वहीं उनका जन्म हुआ। कुछ समय बाद उनके माता पिता गोंडा चले आए। शम्सी ने गोंडा के थामसन कॉलेज से 1937 में हाईस्कूल पास किया। उन्होंने उस समय कविता लिखना शुरू कर दिया था और जिगर मुरादाबादी से मिल चुके थे। उसके बाद शम्सी गोरखपुर चले आए और मुशायरों में शिरकत करने लगे। कई मुशायरों में जिगर साहब भी होते। जिगर मुरादाबादी ने उनको सलाह दी कि वे नज्म लिखने पर ज्यादा ध्यान दें। शम्सी ने उनकी सलाहें मानीं और कई अच्छी नज्में लिखीं।

शादी में डा. लोहिया आए थे

वह राजनीति में भी आए। 1948 में डा. राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए और अपनी रचनाओं व व्याख्यानों के जरिए पार्टी की विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया।

1950 के बाद शम्सी मीनाई बाराबंकी चले आए और फिर वहीं के होकर रह गए। 1957 में उन्होंने मोहम्मद यूसुफ दरियाबादी की पुत्री रजिया बेगम से विवाह किया। उनकी शादी में सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख डा. राममनोहर लोहिया और राजनारायण सहित कई अन्य नेता शामिल हुए थे। हालांकि वे सोशलिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं से बहुत निकटता से जुड़े थे लेकिन उन्हें पार्टी में कभी भी कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिला।

शायरी से केवल जीवनयापन हो पाता था

रुपये पैसे के मामले शम्सी कभी भी अच्छी स्थिति में नहीं रहे। मुशायरों और शायरी की कमाई से उनका केवल जीवनयापन हो पाता था। वह खुदा से डरने वाले और स्पष्टवादी शख्स थे। कोई बुरी आदत उनमें नहीं थी। उन्होंने धार्मिक जीवन जिया और 1977 में हज भी किया।

तब भी राजनीति में फेल होता था अच्छा आदमी

राजनीति में अगर उनको कोई कामयाबी नहीं मिली तो उसके कारण थे। वह राजनीति के लिए बने ही नहीं थे। आत्मसम्मानी और अपने सिद्धांतों से कभी कोई समझौता न करने करने वाला व्यक्ति आज की राजनीति में सफल नहीं हो सकता। यही उस जमाने में भी था। वाणी और आचार में स्पष्टवादिता और किसी गलत बात को बर्दाश्त न कर पाना उनका स्वाभाविक गुण था जो राजनीति में उनको मिसफिट बनाता था।

एक बार उन्होंने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। जाहिर है हारे। उनकी हार का मुख्य कारण था कि उनकी अपनी ही पार्टी ने उनको पर्याप्त सहयोग नहीं दिया। 1977 में उनकी पार्टी गठबंधन सरकार में शामिल थी। शम्सी मीनाई से जूनियर लोग बड़े पदों पर बिठा दिए गए। लेकिन शम्सी और उनके सहयोगी और महत्वपूर्ण समाजवादी नेता डा. एम.ए. हलीम को पार्टी ने भुला दिया।

कमाल की कलम

शम्सी मीनाई ने अधिकतर कता, गजल और नज्में कहीं। अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी से बहुत प्रभावित थे। डा. लोहिया के उलट शम्सी धर्म के प्रति बहुत समर्पित व्यक्ति थे। उनकी रचनाएं प्रेरणा देने वाली, स्पष्टवादी और सामयिक मुद्दों पर आधारित हैं। ‘फिरका परस्तों से दो दो बातें’ और ‘हिंदुस्तान पाकिस्तान एक हों’ जैसी रचनाओं पर डा.लोहिया की विचारधारा का प्रभाव साफ दिखता है। उनकी लिखी ‘ताजमहल’ का आज भी उर्दू नज्मों में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने नातिया कलाम भी लिखे, जैसे- दरबार-ए-मोहम्मदी। 16 सितंबर 1988 को दिल्ली में ब्रेन ट्यूमर के कारण उनका इंतकाल हो गया। उनका पार्थिव शरीर बाराबंकी लाया गया और वहीं दफना दिया गया। उनके घर के पास वाली सड़क अब शम्सी मीनाई लेन कहलाती है।

 

 

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