दो साल में दस गुना बढ़ा प्रदूषण
5500 किलोमीटर की गंगा यात्रा में बिहार में गंगा नदी के कुल प्रवाह 445 किलोमीटर को कवर किया गया। बोर्ड ने राज्य में 33 जगहों पर गंगा जल की शुद्धता की जांच की। पटना के बाद बक्सर से लेकर कहलगांव तक गंगा नदी के पानी में सबसे ज्यादा प्रदूषण पाया गया। मानकों के अनुसार यहां पर गंगा पानी का पीना तो दूर नहाने के लायक भी नहीं है।
पटना के घाटों पर गंगा जल का प्रदूषण बीते दो साल में दस गुना बढ़ गया है। यहां पर गंगा के पानी में कोलीफॉर्म भारी मात्रा में मिला। 2021 में यानी दो साल पहले पटना के गांधी घाट और गुलबी घाट में कुल कोलीफॉर्म की संख्या प्रति सौ मिलीलीटर पानी में 16000 थी। अब कुल कोलीफॉर्म की कुल संख्या बढ़कर ( जनवरी, 2023 में ) 160000 हो गई है। कोलीफॉर्म एक बेहद ही खतरनाक जिवाणु है।
बढ़े हुए कोलीफॉर्म की मुख्य वजह बगैर ट्रीटमेंट किए शहर के सीवेज को सीधे गंगा नदी में प्रवाहित किया जाना है। केवल पटना में 150 एमएलडी (मेगा लीटर्स प्रतिदिन) गंदा पानी सीधे गंगा नदी में गिर रहा है।
इसके अलावा 13 वैज्ञानिकों के एक शोध दल ने ये पाया कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी से बिहार के बेगूसराय के बीच 500 किलोमीटर की दूरी में गंगा नदी व इसकी उप धाराओं के पानी में 51 तरह के ऑर्गेनिक केमिकल्स हैं।
ये केमिकल्स ना केवल मानव स्वास्थ्य के लिए बल्कि जलीय जीव और पौधों के लिए भी बेहद नुकसानदायक हैं। शोध में इन केमिकल्स के बढ़ने की वजह र्मास्युटिकल, एग्रोकेमिकल और लाइफस्टाइल प्रोडक्ट्स (कॉस्मेटिक) का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल बताया गया।
ग्रीन कैटेगरी में रखा गया बिहार, झारखंड उत्तराखंड के कई जगहों का पानी
बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश में चार जगहों, ऋषिकेश (उत्तराखंड), मनिहारी व कटिहार (बिहार) और साहेबगंज व राजमहल (झारखंड) में गंगा के पानी को ग्रीन कैटेगरी में रखा गया है। ग्रीन कैटेगरी में रखे जाने का मतलब ये है कि पानी से किटाणुओं को छान कर पीने में इस्तेमाल किया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर गंगा का पानी ग्रीन कैटेगरी में नहीं है। 25 स्थानों पर गंगा जल को हाई लेवल पर साफ करने के बाद पिया जा सकता है। 28 जगहों के पानी को नहाने लायक बताया गया। गंगा जल में बढ़ रहे प्रदूषण की बड़ा वजह सॉलिड और लिक्विड वेस्ट है।
हाल ही में बिहार सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने सॉलिड और लिक्विड वेस्ट का वैज्ञानिक तरीके से निपटारा नहीं कर पाने को लेकर राज्य सरकार पर चार हजार करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है। पटना नगर निगम का 60 प्रतिशत हिस्सा आज भी ड्रेनेज नेटवर्क से जुड़ा हुआ नहीं है। वहीं नगर निगम क्षेत्र के 20 वार्ड में ड्रेनेज के साथ-साथ सीवरेज भी नहीं है।

नमामि गंगे में खर्च हुए करोड़ों रुपये
13 फरवरी 2023 को केंद्रीय जल शक्ति (जल संसाधन) राज्य मंत्री विश्वेश्वर टुडू ने संसद को बताया कि नमामि गंगे कार्यक्रम गंगा नदी में प्रदूषण को कम करने में कारगर रही है। उन्होंने कहा कि 2014 से केंद्र ने नदी की सफाई के लिए 32,912।40 करोड़ रुपये के बजट के साथ 409 परियोजनाएं शुरू की हैं। लेकिन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक गंगा नदी के पूरे भाग के 71 प्रतिशत क्षेत्र में कोलीफॉर्म के खतरनाक स्तर पाए गए। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2022 की रिपोर्ट में बताया गया कि उत्तर प्रदेश में कोलीफॉर्म का स्तर सात स्टेशनों पर सबसे ज्यादा था।
इसमें स्नान घाट (जाजमऊ पुल), कानपुर डाउनस्ट्रीम, मिर्जापुर डाउनस्ट्रीम, चुनार, मालवीय पुल पर वाराणसी डाउन-स्ट्रीम, गोमती नदी भुसौला और गाजीपुर में तारी घाट शामिल है। जनवरी 2022 में पश्चिम बंगाल में 14 स्टेशनों से नमूने लिए गए। सभी में उच्च मल प्रदूषण मिला।
लगातार बढ़ रहे प्रदूषण की वजह
22 जुलाई, 2022 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल (एनजीटी) गंगा प्रदूषण से जुड़े 1985 के मामले की सुनवाई कर रहा था। सुनवाई में एनजीटी ने कहा कि गंगा के 60 प्रतिशत हिस्से में बिना किसी ट्रिटमेंट के गंदगी बहाई जा रही है।
गंगा नदी पांच प्रमुख राज्यों से होकर बहती है, वहां प्रतिदिन 10,139।3 मिलियन लीटर (एमएलडी) सीवेज पैदा होता है, लेकिन उनके पास केवल 3,959।16 एमएलडी या 40 प्रतिशत की संयुक्त सीवेज क्षमता है। उत्तराखंड एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पर्याप्त उपचार क्षमता है।
एनजीटी ने राज्यों से सीवेज ट्रिटमेंट पर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। दिसंबर 2022 में उत्तर प्रदेश ने अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें उसने स्वीकार किया कि गंगा और उसकी सहायक नदियों में मिलने वाले 1,340 नालों में से 895 (66।8 प्रतिशत) बिना किसी सिवेज ट्रिटमेंट के सीधा गंगा को दुषित कर रहे हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण का मार झेल रही गंगा नदी
आईआईएसईआर के वैज्ञानिकों ने ये पाया कि उत्तर प्रदेश के बलिया और बिहार के भागलपुर की तुलना में पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर से पानी के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक की संख्या बहुत ज्यादा थी।
जापान की तरफ से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा काउंटरमेजर परियोजना 2020 में शुरू की गई थी। इसका मकसद एशिया और प्रशांत क्षेत्र में, विशेष रूप से गंगा और मेकांग नदियों में प्लास्टिक कचरे को साफ करना है।
भारत में ये परियोजना गंगा के किनारे ( हरिद्वार, आगरा और प्रयागराज में ) प्लास्टिक संचय और रिसाव हॉटस्पॉट की पहचान करने का काम कर रही है।
उत्तराखंड के दूसरे सबसे बड़े शहर हरिद्वार में एक दिन में कचरे के रूप में लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। काउंटरमेजर परियोजना में पाया गया है कि हरिद्वार में त्योहारों के दौरान दोगुनी मात्रा में प्लास्टिक का कचरा उत्पत्र करता है।
इस प्लास्टिक कचरे का अधिकांश हिस्सा या तो सीधे गंगा घाटों पर फेंक दिया जाता है या खुली जगहों में फेंक दिया जाता है। परियोजना ने हरिद्वार में 17 रिसाव हॉटस्पॉट की पहचान की, जिसमें खाली स्थान, झुग्गी बस्तियां / खुले नालों वाले क्षेत्र और बैराज पर स्लुइस वाल्व शामिल हैं।
पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के शहर आगरा में 9 हॉटस्पॉट से अनुमानित 10-30 टन प्लास्टिक कचरा यमुना नदी में जाता है। यमुना गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी है।
नदी में पतली प्लास्टिक शीट (मिठाई की दुकानों में उपयोग की जाने वाली) प्लास्टिक भारी मात्रा में होती है। औद्योगिक क्षेत्र से फुटवियर उद्योग से सिंथेटिक चमड़े और सिंथेटिक रबर की ट्रिमिंग के कचरे भी सीधा यमुना नदी में गिरते हैं।
आगरा से लगभग 500 किलोमीटर दूर प्रयागराज में प्रति दिन लगभग आठ टन प्लास्टिक के कूड़े का रिसाव निकलता है। इसमें से अधिकांश घरेलू प्लास्टिक कचरा है जो अक्सर खुले क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है, और ये धीरे-धीरे करके नदियों में मिलते रहते हैं। प्रयागराज में लगभग 100 हॉटस्पॉट की पहचान की गई है। जो बाकी शहरों के मुकाबले सबसे ज्यादा हैं।
दुनिया भर के जल निकाय ‘प्लास्टिक के सूप’ में बदल रहे
प्लास्टिक अब पृथ्वी पर लगभग हर महासागर, समुद्र, नदी, आर्द्रभूमि और झील में पाए जाते हैं। यहां तक कि स्विट्जरलैंड में अल्पाइन झील सासोलो जैसे दूरदराज के क्षेत्र में भीप्लास्टिक मिल रहे हैं। अल्पाइन झील सासोलो किसी भी मानव निवास से सैकड़ों किलोमीटर दूर है। महासागरों में प्लास्टिक की पहली रिपोर्ट 1965 में पाई गई थी। हालांकि, समुद्री प्लास्टिक कूड़े का मुद्दा वास्तव में 1997 में ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच की खोज के साथ सुर्खियों में आया था।
भारत की सिंधु, ब्रह्मपुत्र और गंगा में की तस्वीर डरावनी है। यह पाया गया है कि भारी आबादी वाले क्षेत्रों से गुजरने वाली छोटी नदियाँ अक्सर बड़ी नदियों की तुलना में ज्यादा प्लास्टिक के कचरे की मार झेल रही है।
जल निकायों में प्लास्टिक कचरे पर अधिकांश डेटा समुद्र में मिलता रहा है। 2018-2019 में गंगा द्वारा ले जाए गए प्लास्टिक कचरे की का आकलन किया गया। नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी के गंगा नदी अभियान में ये पाया गया कि गंगा नदी का प्लास्टिक का कचरा बड़े पैमाने पर सुमद्र में मिल रहा है।
नमामि गंगे मिशन-2 को मंजूरी
गंगा को साफ करने के लिए जून 2014 में नमामि गंगे परियोजना की शुरुआत की गई थी। इस परियोजना के तहत 31 मार्च, 2021 तक गंगा और उसकी सहायक नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए 20,000 करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दी गई। अब 2026 तक के लिए 22500 करोड़ रुपये के बजटीय प्रावधान के साथ नमामि गंगे मिशन-2 को केंद्र सरकार ने अपनी स्वीकृति दी है। यह सकून की बात है कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट ने कई महत्वपूर्ण आयाम हासिल किए हैं। लेकिन एक पहलू ये भी है कि बिना जनभागीदारी के गंगा नदी की अविरलता व निर्मलता और शुद्धता बरकरार नहीं रह पाएगी। (एएमएपी)



