apka akhbarप्रदीप सिंह
पिछले हफ्ते मैंने आपसे वादा किया था कि इस बार पुराने जनता दल के बारे में बात करूंगा। आपने क्रिकेट में लोगों को अपनी अपनी टीम बनाते हुए देखा, सुना और पढ़ा होगा। मुझे लगा कि राजनीतिक दलों के बारे में भी ऐसी कोशिश की जानी चाहिए। पर क्रिकेट की तरह यह प्रयास कोई शगल या टाइमपास के लिए नहीं है। देश में यदि जनतंत्र को सशक्त रखना है तो राष्ट्रीय स्तर पर दो पार्टियां होनी ही चाहिए।

भाजपा और जनता दल

दशकों तक राजनीति पर कांग्रेस के एकाधिकार ने देश का बहुत नुक्सान किया है। वर्तमान सत्तारूढ़ दल अभी उस स्थिति में पहुंचा नहीं है। पर हालात ऐसे ही रहे तो हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। प्रतिस्पर्धी का होना भाजपा या जो भी दल सत्ता में है उसके लिए भी अच्छा होगा। क्योंकि उसे अपने में निरन्तर सुधार लाने का दबाव बना रहेगा। एक समय ऐसा था जब लग रहा था कि देश में तीन राष्ट्रीय दल बन सकते हैं। कांग्रेस के अलावा भारतीय जनता पार्टी और जनता दल। साल 1988 में जनता दल का गठन भारतीय राजनीति की एक बहुत बड़ी घटना थी। तीनों दलों के चरित्र पर गौर कीजिए। कांग्रेस मध्यमार्गी पार्टी थी जो वाम मार्ग की ओर झुकी हुई थी। भाजपा दक्षिण पंथी पार्टी थी और है। जनता दल मध्यमार्गी दल था। जिसमें दोनों पक्ष के लोगों को समाहित करने की क्षमता थी।
उस समय यानी अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में भाजपा और जनता दल दोनों बहुराज्यीय (मल्टी स्टेट) दल थे। राष्ट्रीय दल बनने के लिए किसी भी दल के लिए पहले मल्टीस्टेट पार्टी बनना जरूरी है। तो भाजपा और जनता दल ने एक साथ दौड़ शुरू की और भाजपा ने विजय रेखा पार कर ली लेकिन जनता दल रास्ते में ही बिखर गया। जनता दल के बिखराव के यों तो बहुत से कारण हैं। पर वीपी सिंह की जिद और महत्वाकांक्षा और उसके बाद घटक दलों के नेताओं का अहं पार्टी को ले डूबा।

वीपी सिंह भूल गए…

वीपी सिंह की जिद और महत्वाकांक्षा को स्पष्ट करना जरूरी है। सत्ता में आते ही उन्हें लगा कि वे एक ऐसा वोट बैंक तैयार कर सकते हैं जो कांग्रेस और भाजपा दोनों को हाशिए पर धकेल दे। वे भूल गए कि उन्हें जनादेश भ्रष्टाचार के खिलाफ मिला है। प्रधानमंत्री बनते ही उस मुद्दे को उन्होंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करना वीपी सिंह के लिए आस्था का नहीं राजनीतिक रणनीति का विषय था। वे पिछड़ा वर्ग, मुसलमान और क्षत्रिय वोटों का एक नया बैंक बनाना चाहते थे। गुजरात में माधव सिंह सोलंकी के खाम ( क्षत्रिय, हरिजन,आदिवासी और मुसलिम) और चौधरी चरण सिंह के अजगर (अहीर, जाट, गूजर और राजपूत) की तरह। संसद में जब उनकी सरकार गिरने का आसन्न संकट पूरे देश को दिखाई दे रहा था तो उनकी जिद उन्हें सचाई देखने नहीं दे रही थी। उन्हें लग रहा था कि संसद में पिछड़ा वर्ग के सारे सांसद पार्टी निष्ठा छोड़कर उनके साथ आ जाएंगे। ऐसा न होना था और न हुआ। जैसे 1977 में जनता पार्टी की सरकार पांच साल चलाने की क्षमता वाले नेता सिर्फ जगजीवन राम थे, उसी तरह जनता दल में ऐसी क्षमता सिर्फ चंद्रशेखर में थी। जिन्हें अवसर मिला वे न तो सरकार चला पाए और न ही पार्टी। दोनों को अवसर नहीं ( चंद्रशेखर को सिर्फ चार महीने का मौका मिला) मिला और दोनों सरकारें और पार्टियां बिखर गईं। सत्ता के बारे में आपकी राय कुछ भी हो पर एक बात मानना चाहिए कि संसदीय जनतंत्र में समय समय पर सत्ता मिलती रहे तो वह पार्टी संगठन को बांध कर रखती है। राजनीति में कोई भगवत भजन के लिए नहीं आता। और वैचारिक निष्ठा का आग्रह भारत ही नहीं दुनिया भर की राजनीति से लगभग समाप्त हो गया है। पर सत्ता मिलना ही काफी नहीं है। ऐसा नेता भी चाहिए जिसमें सत्ता को संभाल कर रखने की क्षमता हो, जो छोटे संगठनों को जोड़ सके और जनाधार भी बढ़ा सके।

नया विकल्प ही एकमात्र रास्ता

अब फिर से मूल मुद्दे पर लौट आते हैं। मैंने पिछली बार लिखा भी था और अब भी मेरा निजी मत है कि कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय विकल्प तो छोड़िए राज्यों में भी यह क्षमता खो रही या खो चुकी है। कांग्रेस सार्वदेशिक वर्चस्व वाली पार्टी से मल्टी स्टेट पार्टी बनकर रह गई है। वह उन्हीं राज्यों में बची है जहां सिर्फ दो ही पार्टियों का गठबंधन हैं। इसलिए राष्ट्रीय विकल्प की तलाश में नया विकल्प का ही एकमात्र रास्ता है। जनता दल के जो घटक दल बचे हैं, उनमें जनता दल (यूनाइटेड) (16), बीजू जनता दल (12), लोजपा (6), समाजवादी पार्टी (5) और जनता दल सेक्युलर के पास एक लोकसभा सीट है। सबको जोड़ लें तो लोकसभा की चालीस सीटें होती हैं। यदि इनका विलय हो जाय और इनके साथ डीएमके (24), तृणमूल कांग्रेस (22), एनसीपी (3) टीडीपी (3), नेशनल कांफ्रेंस (3) और झारखंड मुक्ति मोर्चा (एक) का गठबंधन हो जाय। तो इसी लोकसभा में करीब सौ (98) सीटों का बड़ा ब्लॉक बन सकता है। इतनी बड़ी संख्या किसी भी सरकार पर दबाव बनाए रखने के लिए काफी है। इस लोकसभा के कार्यकाल का अभी साढ़े तीन साल बचा है। अब आप पूछ सकते हैं कि जनता दल के घटक दल के अलावा छह पार्टियों का चयन किस आधार पर हुआ है। दो कारण हैं। एक, इन छह दलों का जनता दल से पहले भी सहयोग रहा है या हो सकता है। दूसरा इनका आपस में अपने अपने राज्यों में जनाधार का कोई टकराव नहीं है।

साथ रहेंगे तो सब बचेंगे

पहले तो इन सबका साथ आना ही मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसा है। क्योंकि साथ आने के लिए इन दलों के नेताओं को अपनी महत्वाकांक्षा और अहं से समझौता करना पड़ेगा। एक ही चीज उन्हें जोड़ सकती है। वह है कि सर्वाइवल इन्सटिंक्ट यानी बचेंगे तो ही लड़ पाएंगे। साथ रहेंगे तो सब बचेंगे नहीं तो सब डूबेंगे, बारी बारी। दूसरी बात यह कि इनका मिलना तभी संभव है जब ये वर्तमान से ज्यादा भविष्य के बारे में सोचें। मान लीजिए कि यह हो जाता है। तो आगे का रास्ता तो और भी जटिल है। वह यह कि इस पार्टी/गठबंधन का नेता कौन होगा। इनमें से कोई अपने को दूसरे से कम नहीं समझता। इसके लिए जरूरी है कि अध्यक्ष की बजाय अध्यक्षीय मंडल बने। लोकसभा में नेता का चुनाव पार्टी के लोकसभा सदस्यों की संख्या की बजाय गुप्त मतदान के जरिए हो। मान लीजिए और तर्क के लिए मान लेने में क्या हर्ज है। तो यकीन जानिए कि कांग्रेस पार्टी टूट जाएगी और उसका एक बड़ा हिस्सा इस नये दल या गठबंधन के साथ आ सकता है।

पहल कौन करे

अब सवाल है कि इसके लिए पहल कौन करे। तो जिन नेताओं को लगता हो कि उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन पांच सात साल से ज्यादा नहीं है उन्हें आगे आना चाहिए। वैसे एक सचाई यह भी है कि भारतीय राजनीति में कोई रिटायर नहीं होना चाहता, करना पड़ता है। उन्हें यह सोचने की बजाय कि अभी क्या मिलेगा, सोचना चाहिए कि वे कैसी विरासत छोड़कर जाना चाहते हैं। किस तरह से याद किया जाना चाहते हैं। क्योंकि यह संघर्ष लम्बा चलेगा। चुनाव जीतने की बात तो बाद में आती है। पहले तो लड़ने का माद्दा होना चाहिए। जो लोग दिन रात जनतंत्र की दुहाई देते हैं क्या वे उसे ताकत देने के लिए कुछ करने को भी तैयार हैँ? यदि इस सवाल का जवाब हां है तो एक नया राष्ट्रीय दल बन सकता है। यदि नहीं तो भाजपा के सार्वदेशिक वर्चस्व को रोकना तो छोड़िए कोई चुनौती देने वाला भी नहीं होगा।