अनकही सत्यकथाएं: भारत का गौरव छिपाकर दो सौ वर्षो के अत्याचारी मुग़ल साम्राज्य को ही मुख्य इतिहास बना दिया।
प्रो. बी.एस. राजपूत।
ऋषिकेश तथा मायानगरी (हरिद्वार) के बीच में खरखड़ी एवं मुनि की रेती का विशाल क्षेत्र है जिसमें अनेक साधकों एवं संतो ने आध्यात्मिक- सांस्कृतिक आश्रम तथा अखाड़े बनाए हुए हैं। वहां पर सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में एक बहुत संपन्न, गौरवमय तथा पूर्णतः स्वयत्तशासित राज्य था जिसके प्रतापी राजाओं ने किसी भी मुग़ल शासक की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। इस राज्य का नाम कनेरी कला था।
हिन्दुओं का मनोबल समाप्त करने के लिए हजारों मंदिर तोड़े
आक्रमणकारी मुग़ल शासक बाबर तथा उसके सभी वंशजों ने भारत के मूल निवासी हिंदुओं पर जघन्य अत्याचार किए थे तथा उन्हें अपमानित करने के लिए अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि, मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमी तथा काशी में श्रीविश्वनाथ के मंदिर में तोड़फोड़ की। उन्होंने पूरे देश में हजारों भव्य मंदिर तोड़े थे एवं देवी देवताओं की मूर्तियों को खंडित एवं अपमानित किया था। इन विदेशी आक्रमणकारी आक्रांताओं का कुत्सित उद्देश्य भारत की सनातन संस्कृति के प्रतीकों को मिटाकर हिन्दुओं के मनोबल को सदा के लिए समाप्त कर देना था। उन अनाचारी विदेशी आक्रांताओं के शासन काल में भी देवभूमि उत्तराखंड के चारों धाम पूर्णतः सुरक्षित रहे थे तथा वहां के किसी अन्य मंदिर में भी किसी प्रकार की कोई तोड़फोड़ नहीं हुई थी और ना ही कोई मुग़ल सेना कभी हरिद्वार पार करके पर्वतीय क्षेत्र में प्रवेश कर पाई थी। इसका कारण कनेरी कला राज्य के नेतृत्व में बना उत्तरी भारत के छोटे स्वतंत्र राजपूत राज्यों (मालिन, रवाशा, खोह, तथा गंगा नदियों की बीच का क्षेत्र) मद्रेपुर (मंडावर), पथरगढ (मानगढ़), नहटोर, शेरकोट, हल्डोर, कटेहर, तथा सरसावा का अति प्रबल संगठन था जिनमें से कभी भी किसी ने मुग़ल साम्राज्य की अधीनता स्वीकार नहीं की थी और ना ही कभी मुग़ल सेना को इनमें से किसी राज्य में प्रवेश करने दिया था। इन्हीं राज्यों की सम्मिलित शक्ति के कारण कभी भी मुग़ल सेना हरिद्वार तथा देवभूमि में प्रवेश नहीं कर पाई थी जिस से इन क्षेत्रों तथा देव भूमि उत्तराखंड के सभी भव्य मंदिर सुरक्षित रह सके थे।
अनिरुद्ध सिंह का जन्म
इसी कनेरी कला राज्य में विक्रमी संवत 1699 (1642 ईसवी) के फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में राजपूतों के सिसोदिया कुल एवं सूर्यवंश के राजा ब्रजपाल सिंह के घर अति तेजस्वी बालक अनिरुद्ध सिंह का जन्म हुआ था जिसकी शिक्षा दीक्षा दिव्य संत महर्षि आनंद मूर्ति की देखरेख में उनके भव्य शिक्षा केंद्र बियासी के आश्रम में हुई थी जो ऋषिकेश तथा देवप्रयाग के बीच में स्थित है। इस आश्रम के कुलपति महर्षि आनंदमूर्ति के मार्गदर्शन में राजकुमार अनिरुद्ध सिंह ने दस वर्ष की अल्प अवधि में ही चारों वेद, चारों उप वेद (धनुर्वेद, आयुर्वेद, स्थापत्य वेद तथा गंधर्व वेद), छहों वैदिक दर्शन ( सांख्य, वैशेशिक, न्याय, मीमांसा, योग एवं वेदांत), चार अवैदिक दर्शन ( चार्वाक, जैन, बौद्ध तथा तंत्र) एवं सभी उपनिषद् का ज्ञानप्राप्त कर लिया था। आश्रम के शारीरिक एवं युद्ध विद्या विशारद आचार्यों से धनुर्वेद, शस्त्र परिचालन, अश्वारोहण, तथा रथ परिचालन एवं सभी प्रकार की सैन्य व्यूह रचना की शिक्षा ग्रहण कर ली थी। इस थोड़ी अवधि में ही उसने आश्रम के सर्वश्रेष्ठ छात्र के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी तथा सदगुरु महर्षि आनंदमूर्ति का असीम स्नेह एवं कृपा प्राप्त कर ली थी। महर्षि के चरणों में उतरी भारत के सभी राजाओं के राज मुकुट झुके रहते थे तथा प्रत्येक राजा आश्रम के द्वार पर ही वाहन को छोड़कर आश्रम में प्रवेश करता था।
भूरे खान का वध
मुग़ल सेनापति भूरे खान ने कनेरी कला राज्य की पूर्वी सीमा पर दक्षिणी गंगा द्वार पर धोखे से षडयंत्र करके राजा ब्रजपाल की हत्या कर दी और जब इसकी सूचना आश्रम पहुंची तो राजकुमार अनिरुद्ध सिंह को बहुत क्रोध आया और वह युद्ध में भूरे खान का सर काटने को उतावला हो गया तो सदगुरु ने उसे एक साल तक उसके पिता की बरसी तक किसी भी प्रकार की हिंसा से विरत रहने की और उस अवधि के बाद भूरे खा को दंडित करने का निर्देश दिया। उक्त अवधि के पूर्ण होने पर अनिरुद्ध ने रवासा और मालिन नदियों के बीच के क्षेत्र के विकट वीर और अपने आश्रम के मित्र विशाल सिंह (रवा राजपूत योद्धा) की मदद से भूरे खान की समस्त मुग़ल सेना को आमने सामने के युद्ध में काट कर भूरे खान का वध करके अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया। पत्थरगढ़ के किले को भूरे खान के आतंक से मुक्त करके उसे राजा मानसिंह के पोते विजय सिंह (विशाल सिंह के अनुज) को सौंप दिया। सरसावा के विशाल राज्य को मुग़ल साम्राज्य की दासता से मुक्त करा कर उसे उसकी वास्तविक उत्तराधिकारी राजकुमारी ऋचा को सौंप दिया। ऋचा का पालन पोषण उसके पिता राजा जसवंत सिंह की मुगलों के षडयंत्र से उनके सेनापति हरनाम सिंह द्वारा हत्या होने पर महर्षि आनन्द मूर्ति के आश्रम में हुआ था। राजकुमारी ऋचा ने सरसावा का विशाल राज्य अपने मुंहबोले भाई विशाल सिंह को दे दिया। राजकुमारी ऋचा महर्षि आनन्द मूर्ति के आशीर्वाद से योगी नरेश अनिरुद्ध सिंह की पत्नी बनी थी। अनिरुद्ध और विशाल सिंह की वीरता, सैन्य कुशलता, प्रबंधन क्षमता, संगठन क्षमता और दूरदर्शिता ने सुदूर उतरी भारत के सभी स्वतंत्र राज्यों का एक विशाल संगठन अनिरुद्ध सिंह के नेतृत्व में संगठित कर लिया। इसकी प्रबल सम्मिलित शक्ति के कारण ही कोई मुग़ल सेना कभी भी देवभूमि उत्तराखंड में प्रवेश नहीं कर सकी थी और वहां के सभी दिव्य मंदिर सुरक्षित रह सके थे।
श्वेत वस्त्रधारी छह संन्यासी
मिर्ज़ा राजा जयसिंह के पुत्र कुंवर रामसिंह की मदद से वीर शिवाजी महाराज वि. स. 1723 के भाद्रपद की एकादशी, (17 अगस्त, 1666) मुग़ल बादशाह औरंगजेब की आगरा स्थित कारागार से छिपकर चतुराई से निकल कर अपने पुत्र शंभाजी एवं मंत्रियो त्रियंबक पंत तथा हीरोजी के साथ मथुरा की ओर गेरूए वस्त्र धारी संन्यासियों के वेश में तीव्र गति से चले। मुग़ल सेना नायक फौलाद खान ने पांच हजार हब्शियो की सेना के साथ उनका पीछा किया। कुंवर शंभाजी को मथुरा में सुरक्षित स्थान पर छोड़ कर शिवाजी महाराज के मार्ग की सभी सैनिक बाधाओं को निर्मूल करते हुए जिन श्वेत वस्त्रधारी आठ संन्यासियों ने फौलाद खान की पूरी सेना को नष्ट करके शिवाजी महाराज को डेढ़ हजार मील दूर रायगढ़ तक सुरक्षित पहुंचाया, उनके नाम थे: कनेरी कला नरेश वीर अनिरुद्ध सिंह, सरसावा नरेश योद्धा विशाल सिंह, बुंदेलखंड के वीर राजकुमार छत्रसाल, कनेरी कला के सेनापति नवरंग सिंह, सरसावा के सेनापति बादल सिंह, पथेरगढ़ के सेनापति अमर सिंह तथा महाराणा प्रताप के प्रपौत्र मेवाड़ नरेश महाराणा राज सिंह के वीर सेनानायक अजय रावल तथा दुर्जय चूड़ावंत। इन संन्यासी वेशधारी वीरो ने योगी नरेश अनिरुद्ध सिंह के नेतृत्व में फौलाद सिंह जैसे दुर्दांत और उसकी हब्शी सेना को समूल नष्ट करके शिवाजी महाराज की आगरा से रायगढ़ तक की उस यात्रा को निशकंटक बना दिया था जिसके सम्पूर्ण पथ के क्षेत्रों में मुग़ल साम्राज्य का ही शासन था।
औरंगजेब को जीवन दान
मेवाड़ के आदर्श वीर दुर्गादास राठोड़, वीर रानी सारांधा एवं वीर चम्पावत का वि. स. 1760 के ज्येष्ठ माह (4 मई 1649) में जन्मा वीर पुत्र छत्रसाल बुंदेलखंड का नरेश एवं महान योद्धा था। इन दोनों वीरों दुर्गादास राठौड़ तथा छत्रसाल ने मेवाड़ के वीर महाराणा राजसिंह एवं कनेरी कला के वीर नरेश अनिरुद्ध के सहयोग से मुग़ल साम्राज्य की नीव हिला दी थी। अनेक मंदिरो एवं देव प्रतिमाओं को मुग़लशासन के अत्याचार से बचाया था तथा दो बार के युद्ध में मुग़ल सेना को पराजित करके स्वयं औरंगजेब को जीवन दान दिया था। दुर्गादास राठौड़ ने मेवाड़ नरेश महाराणा राजसिंह की मदद से मुगल सेना को कई बार पराजित करके मारवाड़ के शिशु राजकुमार अजीत सिंह के प्राणों की रक्षा की थी और एक युद्ध में तो वीर दुर्गादास स्वयं औरंगजेब को पराजित करके उसका शिरोच्छेद करने ही वाले थे परन्तु उन्हें महाराणा राज सिंह ने रोक दिया था।
स्वप्न में भी दुर्गादास को देख भय से कांपता था औरंगजेब
मारवाड़ को जोधपुर के रूप में स्वतंत्र एवं स्वशासित (मुग़ल साम्राज्य से पूर्णतः मुक्त ) राज्य के रूप में स्थापित करके वीर दुर्गादास कथाओं के योद्धा के रूप में विख्यात हो गए थे। जिस कारण मुग़ल शासक औरंगजेब को स्वप्न में भी दुर्गादास को देखकर भय से कांपता देखा जाता था। इसी प्रकार बुंदेलखंड शासक छत्रपाल ने मुग़ल साम्राज्य की सेना के विरुद्ध अस्सी युद्ध किए और हर युद्ध में विजयी हुए थे। सन 1689 ई में औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर पुत्र छत्रपति शंभाजी को छल पूर्वक बंदी कराकर उन्हें बहुत भयंकर अमानवीय यातनाएं देकर उनका वध कराकर उनके सात वर्ष के पुत्र शाहूजी एवं शम्भाजी जी की पत्नी येशुबाई को अहमद नगर के कारागार में बंदी बना लिया था। इससे मराठों में बहुत आक्रोश था जिसे दबाने के लिए औरंगजेब को लगभग डेढ़ दशक तक अहमद नगर में रहना पड़ा था। इस अवधि में उत्तरी भारत के वीर राजपूत राजाओं अनिरुद्ध सिंह, महाराणा राज सिंह, छत्रसाल, सवाई राजा जयसिंह तथा वीर दुर्गादास राठोड़ की सम्मिलित शक्ति से औरंगजेब बहुत भयभीत रहने लगा था। वह उन्हें मुग़ल साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा मानता था। इसलिए उसने अफगानिस्तान से कुख्यात खूंखार दाउद खान को निमंत्रित करके कटेहर का राज्य सौंप दिया ताकि वो उत्तरी भारत के स्वतंत्र तथा स्वयंशासित राज्यों कनेरीकला, सरसावा, शेरकोट, हल्दौर, सहारण, पथरगढ़ एवं जगादरी की शक्तियों पर अंकुश लगा सके। परन्तु वीर अनिरुद्ध सिंह के नेतृत्व में इन राज्यों की सम्मिलित शक्ति के सामने मुग़ल सेना तथा बर्बर दाउद खान की एक न चली। मुग़ल सेना इनमें से किसी भी राज्य की सीमा को लांघ कर देवभूमि उत्तराखंड में प्रवेश न कर सकी। इन राज्यों की सम्मिलित शक्ति ने कनेरी कला के ध्वज और परम योद्धा मिर्ज़ा राजा जयसिंह के नेतृत्व में मुगलों और दाउद खान की विशाल सेना को विदुर कुट्टी के गंगा घाट पर परास्त करके पूरी तरह छिन्न भिन्न कर दिया। अब तो औरंगजेब और बुरी तरह भयभीत हो गया और बौखला गया था। उसी कुंठा में उसने षडयंत्र करके मिर्ज़ा राजा जयसिंह को बहरामपुर में विष दिलवाकर मरवा दिया था। वीर अनिरुद्ध सिंह, सवाई राजा जयसिंह तथा वीर छत्रसाल की मदद से ही वीर मराठे औरंगजेब को छत्रपति शांभाजी की निर्मम हत्या के अपराध के लिए दंडित करने और अहमद नगर के कारागार से मराठा युवराज शाहूजी को मुक्त कराने तथा उन्हें 3 मार्च 1707 में छत्रपति बनाने में सफल हुए थे।
हमारे नायक हमारे ही इतिहास से गायब
इन सभी घटनाओं के नायकों वीर अनिरुद्ध सिंह, अद्भुत संगठन कर्ता विशाल सिंह, महा महीमामई महारानी ऋचा, पथरगढ़ के शासक वीर विजय सिंह, बुंदेलखंड नरेश अद्भुत वीर छत्रसाल, वीर दुर्गादास राठौड़ आदि अनेक अद्भुत राजपूत वीरों का कोई भी उल्लेख उस इतिहास में नहीं है जो ब्रिटिश काल तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमारे स्कूलों, कोलेजो तथा विश्वविद्यालयो में पढ़ाया जा रहा है। यह इतिहास अंग्रेजो द्वारा बाबरनामा, अकबरनामा, आईने अकबरी, जहांगीरी इंसाफ तथा औरंगजेब के अनेक तथ्यरहित दस्तावेजों के आधार पर लिखा गया है। इसे इरफान हबीब तथा रोमिला थापर जैसे कई वामपंथी इतिहासकारो ने अनेक प्रकार से प्रदूषित तथा कलुषित बना दिया है जिससे भारत की महान प्राचीन संस्कृति तथा गौरवशाली अतीत से देशवासियों को अनभिज्ञ रखा जा सके। इन सभी वामपंथी इतिहासकारों के कुत्सित प्रयासों और स्वतंत्र भारत के मौलाना आज़ाद, मोहम्मद करीम छागला तथा नुरुल हसन जैसे शिक्षामंत्रियों की भारतीय संस्कृति के प्रति उदासीनता ने दो सौ वर्षो के मुग़ल साम्राज्य को ही भारत का मुख्य इतिहास बना दिया है। ऐसा भ्रमजाल फैलाया गया है मानो भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य से पहले कोई यशस्वी सम्राट नहीं हुआ था। इन धूर्त इतिहासकारों ने इन प्रयासों ने लोकनायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण को भी भारत के इतिहास का भाग नहीं बनने दिया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय काल गणना में मान्धाता संवत के बाद राम संवत और उसके बाद युधिष्ठिर संवत तथा विक्रमी संवत के उल्लेख अनेक बार हुए हैं।
हजारों साल पुराना शौर्यता का इतिहास
श्रीराम से पहले भी सूर्यवंश में 66 प्रतापी तथा यशस्वी नरेश हो चुके थे। उनके बाद भी इस वंश में महाभारत काल तक 31 वीर राजा हुए थे जिनमे से नरेश ब्रहथ बल का वध महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथो हुआ था। महाभारत के बाद युधिष्ठिर संवत 2905 में इस वंश में सुमित नाम के राजा हुए थे जो अयोध्या के अंतिम सूर्यवंशी नरेश थे। इस प्रकार श्रीराम के बाद भी अयोध्या में लगभग पांच हजार वर्षों तक यशस्वी तथा उज्ज्वल सूर्यवंश का शासन रहा था। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर संवत 3000 तक चंद्रवंश में भी अनेक प्रतापी तथा यशस्वी सम्राट हुए। उसी समय पर अवंती तथा मगध में 138 वर्षो तक प्रद्योत साम्राज्य तथा 150 वर्षो तक हरायंका साम्राज्य रहा, जिसमे बिंबसार तथा अजातशत्रु जैसे सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट हुए। उसके बाद शिशुनाग साम्राज्य और नंद साम्राज्य रहा और बाद में सूर्यवंशी यशस्वी मौर्य साम्राज्य रहा। युधिष्ठिर संवत 3139 ( 3082 ईशा पूर्व) में अग्नि वंशी महाप्रतापी सम्राट परमवीर विक्रमादित्य हुए जिन्होंने कालगणना के लिए विक्रमी संवत चलाया था, जो अभी भी भारतीय काल गणना में प्रयोग किया जाता है। उनके वंश के 800 वर्षो के शासन के बाद सातवाहन राजवंश ने 200 वर्षो तक अबाध रूप से शासन किया।
इतिहास का पुनर्लेखन जरुरी क्यों
इस प्रकार रामायण काल से सम्राट अशोक तक के लगभग पांच हजार वर्षों के अत्यंत गौरवशाली इतिहास का तथा मुग़ल काल के उक्त प्रतापी राजपूत राजाओं का उस इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है जिसे हमारे देश मे पढ़ाया जाता है। जबकि केवल दो सौ वर्षो के विदेशी आक्रमणकारी मुग़ल साम्राज्य को बहुत महिमा मंडित किया गया है। इन तथ्यों के प्रकाश में ये परम आवश्यक है कि भारत के गौरव शाली इतिहास का पुनर्लेखन किया जाए।
(लेखक हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर और कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल के पूर्व कुलपति हैं। आलेख उनकी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक धरोहर” से साभार)