प्रदीप सिंह।
यूक्रेन में चल रहे युद्ध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की भूमिका पर हमेशा की तरह दो राय हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय मोदी की ओर उम्मीद से देख रहा है। भीषण संकट में फंसा यूक्रेन कह रहा है कि विश्व में मोदी की हैसियत बहुत बड़ी है। वे चाहें तो इसका हल निकल सकता है। घरेलू मोर्चे पर वही चिरपरिचित लोग हैं, जो रूस और यूक्रेन विवाद में मोदी को खलनायक के रूप में देख रहे हैं। वे चाहते हैं कि भारत अपने सदाबहार मित्र रूस के खिलाफ और हर मुद्दे पर भारत का विरोध करने वाले यूक्रेन के साथ खड़ा हो जाय।
मोदी विरोधियों के कहे का मतलब
मोदी विरोधियों के तर्क सुनिए तो आप को समझ में आएगा कि उनके कहे का मतलब क्या है। उनका कहना है कि रूस आक्रांता है और यूक्रेन पीड़ित। रूस अधिनायकवादी है और यूक्रेन जनतांत्रिक। रूस की यह कार्रवाई एक स्वतंत्र देश की संप्रभुता पर हमला है। ये तीनों बातें ठीक हैं। पर बात यहीं खत्म नहीं होती। फिर अमेरिका के इराक, वियतनाम, क्यूबा अफगानिस्तान जैसे कई देशों पर हमले को क्या कहेंगे। अमेरिका ने तो अपने पड़ोसी ग्वाटेमाला और होनडुरस पर इस आरोप में हमला कर दिया कि साम्यवाद उसके दरवाजे तक पहुंच गया है। सोवियत संघ में 1956 में जब हंगरी पर हमला किया तो संयुक्त राष्ट्र में उसके विरुद्ध प्रस्ताव पर नेहरू तटस्थ रहे।
उस अमेरिका के साथ कैसे खड़े हो जाएं
रूस को छोड़कर हम उस अमेरिका के साथ कैसे खड़े हो जाएं जिसने 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय अपना सातवां बेड़ा भेजा था। ब्रिटेन ने भी अपनी नौसेना भेजी थी। उस समय रूस ने भारत के बचाव में अपनी पनडुब्बियां भेजीं जिसके कारण अमेरिका- ब्रिटेन को वापस लौटना पड़ा। कश्मीर के मुद्दे पर रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया। जनतंत्र की चिंता करने वाले तब कहां थे जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया और अभी हाल भारतीय सीमा में अतिक्रमण का प्रयास किया।
ये जो भारत के हित के विरोध में खड़े हैं
इन सारी बातों लब्बोलुआब यह है कि सब अपने हित की चिंता करते हैं। जनतंत्र, मानवता, संप्रभुता की बातें ढ़कोसला हैं। जो अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए सुविधा के अनुसार इस्तेमाल की जाती हैं। पर दुख की बात यह है कि अपने देश में ऐसे भी लोग हैं जो भारत के हित की बात पर भी विरोध में खड़े नजर आते हैं। भारत सरकार फरवरी के शुरु से ही यूक्रेन में रह रहे भारतीयों को एडवाइजरी जारी कर रही है। फिर यूक्रेन में भारतीय दूतावास के कर्मचारियों से कहा गया कि अपने परिजनों को भारत भेज दें। वह समय था जब भारतीय छात्र-छात्राओं को वहां से निकल जाना चाहिए था। क्यों नहीं निकले? उसका एक बड़ा कारण समझ में आया एक छात्रा के ट्वीट से। उसने कहा कि फाइनल परीक्षा में सिर्फ तीन महीने बचे हैं। बिना डिग्री के जाऊंगी तो घर वालों को क्या मुंह दिखाऊंगी। उन्होंने कर्ज लेकर पढ़ने के लिए भेजा है। ये छात्र इस उम्मीद में रुके रहे कि शायद युद्ध की नौबत न आए। अब सरकार ऑपरेशन गंगा के जरिए उन्हें निकालने के हर संभव प्रयास कर रही है। रूस और यूक्रेन के अलावा यूक्रेन की सीमा से लगे देशों के प्रमुखों से प्रधानमंत्री बात कर रहे हैं। इन देशों में चार मंत्री भेजे गए हैं। वायुसेना को भी लगाया जा रहा है। फिर भी सारा दोष मोदी का है।
एक और संकट खड़ा करने का अभियान
यूक्रेन संकट के बीच देश में एक संवैधानिक संकट खड़ा करने का अभियान चल रहा है। इसमें चार प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की खास भूमिका है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्यपाल जगदीप धनखड़ के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। उनकी अवमानना, अपमान करने का वे कोई अवसर नहीं छोड़तीं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे केंद्र सरकार पर हमला कर रही हैं। राज्यपाल विधानसभा का सत्रावसान मंत्रिमंडल की सिफारिश पर करते हैं। पर अभियान चलाया जाता है कि राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की सिफारिश के बिना किया। इस मुद्दे को उठाते हैं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन। केंद्र से टकराव के लिए कैसे कैसे मुद्दों को चुना जाता है। तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के अभिभाषण से जय हिंद निकलवा दिया। स्टालिन को जय हिंद ही नहीं भारत माता की जय बोलने से भी तकलीफ है। यूक्रेन से लौटे राज्य के विद्यार्थियों ने एयरपोर्ट पर भारत माता की जय बोला तो उस वीडियो के प्रसारण को रोक दिया गया। एक चैनल ने प्रसारित कर दिया तो सबको पता चला।
संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सरकार का लक्ष्य केंद्र से निरन्तर टकराव का है। ऐसा लगता है जैसे सरकार के गठन का उद्देश्य ही यही है। पर सबसे खतरनाक काम करने जा रहे हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव। उनकी सरकार ने तय किया है कि राज्य के बजट सत्र के प्रारम्भ में होने वाले विधानसभा के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में राज्यपाल का अभिभाषण नहीं होगा। इसलिए संयुक्त अधिवेशन की जरूरत नहीं है। इसलिए मंत्रिमंडल ने दोनों सदनों के सत्र की घोषणा कर दी है। केसीआर सरकार का यह कदम सीधे संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देने वाला है। जिससे संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है। वे दरअसल भारत के संविधान को चुनौती देना चाहते हैं। इसके जरिए एक संकट खड़ा करना चाहते हैं। इसमें बाकी तीन मुख्यमंत्रियों की सहमति है। चाहती तो कांग्रेस की भी यही है। पर ठाकरे के अलावा बाकी तीन मुख्यमंत्री कांग्रेस को साथ नहीं लेना चाहते।
मकसद मोदी को कमजोर करना
इन घटनाओं को मार्च में होने वाले इन मुख्यमंत्रियों के प्रस्तावित सम्मेलन के संदर्भ में देखिए तो नीति और नीयत दोनों साफ नजर आएगी। मोदी को चुनाव के मैदान में राष्ट्रीय स्तर हराने में नाकाम ये दल अब एक नया विमर्श खड़ा करना चाहते हैं। इस विमर्श के मुताबिक यह चुनावी राजनीति का मुद्दा नहीं है। यह राज्यों के अधिकार का मुद्दा है। यह केंद्र और राज्यों के संबंध का मुद्दा है। यह मोदी के कोऑपरेटिव फेडरलिज्म को चुनौती है। इन पार्टियों ने तय किया है कि सहयोग से मोदी और मजबूत हो रहे हैं। मोदी को कमजोर करना है तो टकराव का रास्ता अपनाना चाहिए।
असली एजेंडा खतरनाक
इसी नीति के तहत अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार ने नियमों जो परिवर्तन किया है उसका पुरजोर विरोध हो रहा है। केंद्र में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की भारी कमी है। पर कई गैर भाजपा शासित राज्य यह वीटो पावर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। इसी रणनीति के तहत एक-एक करके इन राज्यों में केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई को मिली सामान्य अनुमति रद्द कर दी है। इसकी वजह से भ्रष्टाचार के कई बड़े मामलों की जांच रुकी हुई है। ये मुख्यमंत्री इस बात को समझने को तैयार नहीं है कि वे मोदी को कमजोर करने की कोशिश में संविधान और देश को कमजोर कर रहे हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)