apka akhbar—प्रदीप सिंह

नफरत सबसे पहले मनुष्य का विवेक हर लेती है। विवेकहीन व्यक्ति दूसरों का छोड़िए अपना भी भला नहीं कर सकता। भारतीय राजनीति आज ऐसे ही दौर से गुजर रही है। एक व्यक्ति, संगठन या विचारधारा से नफरत ही एक बड़े राजनीतिक वर्ग की विचारधारा बन गई है। इस वर्ग में देश की कमोबेश ज्यादातर विपक्षी दल शामिल हैं। पर उनका हरावल दस्ता बने हुए हैं, उनके पाले-पोसे बुद्धिजीवी। उनका विरोध हर उस व्यक्ति, संगठन और विचारधारा से है जो भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान और लगाव रखता हो।


 

हर समाज का एक एक प्रभुवर्ग होता है। पिछले सात दशकों में भारत में भी एक प्रभुवर्ग बन गया है। जो देश की सर्वोच्च सत्ता से अपनी ऊर्जा और ऊष्मा ग्रहण करता रहा है। उसे इसकी ऐसी आदत हो गई है कि वह इसे अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझने लगा है। पर उनके दुर्भाग्य और देश के सौभाग्य से राष्ट्रीय राजनीतिक के परिदृश्य पर अचानक एक ऐसा नेता आता है जिसे इस प्रभुवर्ग का न तो आशीर्वाद प्राप्त है और न उसे इसकी आकांक्षा है। इससे चतुर्दिक हाहाकार मचा हुआ है। सारे सियार इकट्ठा होकर हुआं हुआं कर रहे हैं। राजाओं/महाराजाओं को प्रिविपर्स जाने पर जितना कष्ट हुआ होगा उससे भी ज्यादा व्यथित यह प्रभुवर्ग है। इसमें नेता, अभिनेता, कलाकार, शिक्षक,छात्र और अपने को स्वयंभू मानने वाले हैं। उन्हें अपनी बुनियाद हिलती हुई नजर आ रही है। इस आसन्न संकट से निबटने के लिए सब एक हो गए हैं।

कहावत है कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है। सो कुछ फिल्मी कलाकारों को भी आंदोलन आंदोलन खेलने का चस्का लग गया है। यह वही फिल्म जगत है कि जो इमरजेंसी में संजय गांधी की इच्छामात्र से यूथ कांग्रेस के किसी भी जलसे में दौड़ते हुए आने को तत्पर रहता था। और मना करने वाले मशहूर गायक किशोर कुमार को आकाशवाणी पर ब्लैक लिस्ट किए जाने पर उफ नहीं करता। दुबई और शारजाह जाकर आतंकवादी दाउद इब्राहिम की महफिल में नाचने गाने में गर्व महसूस करता था। वही कह रहा है कि ‘ये देश मेरा नहीं है। अच्छा है कि यहां(महाराष्ट्र) में उनकी सरकार नहीं है। नहीं तो पता नहीं हम कितने सुरक्षित रहते।‘

इस वर्ग को 2014 में लगा था कि यह फौरी समस्या है, निपट लेंगे। पर 2019 के जनादेश से समस्या और विकराल हो गई। तो सबने मुखौटे उतार दिए हैं। अपने आकाओं की मर्जी के मुताबिक इतिहास लेखन करके दुनिया में नाम कमाने और बोलने की आजादी का झंडा उठाने वालों के नकाब उतर गए हैं। वे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को बोलेने से रोकने के लिए शारीरिक हमले के प्रयास से भी गुरेज नहीं करते। वरना इरफान हबीब का केरल के राज्यपाल आऱिफ मोहम्मद खान पर हमले के प्रयास को और क्या कहेंगे। कहावत है कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है। सो कुछ फिल्मी कलाकारों को भी आंदोलन आंदोलन खेलने का चस्का लग गया है। यह वही फिल्म जगत है कि जो इमरजेंसी में संजय गांधी की इच्छामात्र से यूथ कांग्रेस के किसी भी जलसे में दौड़ते हुए आने को तत्पर रहता था। और मना करने वाले मशहूर गायक किशोर कुमार को आकाशवाणी पर ब्लैक लिस्ट किए जाने पर उफ नहीं करता। दुबई और शारजाह जाकर आतंकवादी दाउद इब्राहिम की महफिल में नाचने गाने में गर्व महसूस करता था। वही कह रहा है कि ‘ये देश मेरा नहीं है। अच्छा है कि यहां(महाराष्ट्र) में उनकी सरकार नहीं है। नहीं तो पता नहीं हम कितने सुरक्षित रहते।‘ यह कथन है स्वनामधन्य फिल्मकार अनुराग कश्यप का। मुंबई में आतंकी हमले के समय इनसे आपने ऐसी कोई बात सुनी थी। ये वही सज्जन है जो आंतकी हमले में तबाह ताजहोटल में अपने दोस्त( रितेश देशमुख) के मुख्यमंत्री पिता के साथ अपनी अगली फिल्म की लोकेशन देखने पहुंचे थे। जब मुबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट हो रहे थे, देश के किसी न किसी हिस्से में आए दिन आतंकी हमले हो रहे थे, तो इन्हें यह देश अपना लग रहा था। साढ़े पांच साल से देश में कोई आतंकी हमला नहीं हुआ(जम्मू-कश्मीर को छोड़कर)। इसलिए अनुराग कश्यप जैसे लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वे भूल गए हैं जिस राज्य में सुरक्षित महसूस करने की बात कर रहे हैं वहां पिछले पांच साल से उसी पार्टी की सरकार थी जिनसे वे खतरा बता रहे हैं।

पिछले नौ दिसम्बर से आज तक नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मुद्दे पर अपने को बड़ा बुद्धिजीवी और संविधान का रक्षक समझने वाले जितने फिल्मी सितारों ने बोला वह उनकी कूपमंडूकता को उजागर करता है। एक साहब हैं, फरहान अख्तर। पिता और सौतेली मां दोनों भारी बुद्धिजावी हैं लेकिन बेटे को बता नहीं पाए कि नागरिकता कानून दरअसल है क्या। एक मोहतरमा हैं दीपिका पादुकोण। एक चैनल पर बोल रही थीं जो हो रहा उस पर उन्हें गर्व है। उन्हें गर्व है कि लोग बोल रहे हैं। लोग क्या बोल रहे हैं और मुद्दा क्या है उन्हें पता नहीं है। कुछ रटे हुए फिल्मी डायलॉग उदास चेहरे से बोलकर उन्हें लगा होगा कि वे भी नाखून कटवाकर आंदोलकारियों में शामिल हो गई हैं।ऐसे नामों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। ये बहुत कुछ बोलते हैं। पर एक सच कभी नहीं बोलते कि वे मोदी से नफरत करते हैं और किसी भी तरह उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। भले ही मोदी को भारी जनादेश मिला हो। इनकी नजर में मोदी और भाजपा को मिले जनादेश का कोई महत्व नहीं है।


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देश में केंद्रीय, राज्य, निजी और डीम्ड को मिलाकर नौ सौ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जेएनयू, अलीगढ़, हैदराबाद और जाधवपुर विश्वविद्यालय के कुछ हजार छात्रों को छोड़ दें तो विश्वविद्यालय परिसरों में आमतौर पर शांति है। पर ये थोड़े से छात्र राजनीतिक दलों के शिखंडी बने हुए हैं। उन्हें पता नहीं है कि भीष्म पितामह केवल शिखंडी के कारण नहीं मारे गए। शिखंडी के पीछे अर्जुन का गांडीव और कृष्ण की नीति थी। विपक्ष के पास दोनों ही नहीं हैं। मोदी विरोधियों की समस्या एक नहीं है। वे सारी कोशिश करके भी जनता की अदालत में मोदी को कटघरे में खड़ा नहीं कर पा रहे। मोदी पर लोगों का विश्वास अडिग बना हुआ है। सबसे बड़ी बात यह कि देश के आम लोगों को लगता है कि मोदी हमारे अपने बीच का आदमी है। वे मोदी से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं।

विपक्ष के पास सरकार के खिलाफ मुद्दे तो हैं पर न तो नेतृत्व है और न ही संगठन। जो है उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। कांग्रेस आज भी मरणासन्न वामपंथ पर विचारों और मुद्दों के लिए आश्रित है। उसका अपना बौद्धिक कोष खाली है। गांधी-नेहरू परिवार के लोग चुप रहते हैं तो कमजोरी उजागर होती है और बोलते हैं तो बौने नजर आते हैं। पिछले छह महीने में मोदी सरकार ने जो और जितना काम किया है उसकी छह दशक से भी ज्यादा समय से प्रतीक्षा थी। विपक्ष की परेशानी इस बात से और बढ़ रही है कि ये काम किसी चुनाव में फौरी फायदे को ध्यान में रखकर नहीं किए गए हैं और अभी तो साढ़े चार साल का कार्यकाल बाकी है। मोदी को गिराने की विपक्ष की छटपटाहट उसे और नीचे गिरा रही है। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे खुशी के मौके तो उसे मिलते हैं पर वे प्यासे के होंठ पर ओस की बूंद की तरह साबित होते हैं। उन्हें पता है कि दो साल में पांच राज्यों में भाजपा की सरकार भले चली गई हो लेकिन ब्रैंड मोदी जस का तस बना हुआ है। इस अकुलाहट और हताशा में विपक्ष भाजपा और मोदी-शाह के जाल में फंसता जा रहा है।

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