प्रदीप सिंह ।
क्या देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल पराजय की मासिकता से ग्रस्त है। कहते हैं कि आपकी हार उस समय नहीं होती जब आप हारते हैं। आपकी हार उस समय होती है जब लड़ने का जज्बा खत्म हो जाता है। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व इस बात के प्रमाण दे रहा है कि जीतना तो छोड़िए उसमें लड़ने का ही माद्दा खत्म हो गया है। दिल्ली विधानसभा का चुनाव इस धारणा को एक बार फिर पुष्ट कर रहा है। कांग्रेस अपने विरोधी, भाजपा की एक आंख फोड़ने के लिए अपनी दोनों आंखें फोड़ने को तैयार है। कांग्रेस चुनाव लड़ नहीं रही। लड़ने का स्वांग कर रही है।
चिकित्सा विज्ञान कहता है कि कैंसर जैसे रोग से भी व्यक्ति लड़ सकता है अगर उसमें जिजीविषा यानी जीने की इच्छा हो। कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, वंशवादऔर हकदारी(एनटाइटलमेंट) के कैंसर से ग्रस्त है। कांग्रेस ऐसा संगठन बन गई है जिसमें नेता अपने निजी हित से आगे देखने-सोचने को तैयार ही नहीं हैं। पार्टी की कार्यवाहक(दुनिया को बताने के लिए) अध्यक्ष सोनिया गांधी को देश की कभी चिंता थी यह कहना कठिन है। अब उनकी चिंता का एक ही विषय है कि संगठन की सत्ता कैसे परिवार के हाथों में रहे। बेटे राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया तो कहा कि ‘सत्ता जहर’ है। फिर भी बेटे को जहर पिलादिया। पर बेटा जहर के प्रभाव से भाग रहा है। सत्ता सरकार की हो या संगठन की जिम्मेदारी और जवाबदेही की मांग करती है। राहुल गांधी पिछले सात साल में इसके लिए तैयार नहीं हो पाए हैं। जवाबदेही की मांग होने लगी तो डेढ़ साल में अध्यक्षी छोड़कर किनारे हो गए।
पर सोनिया गांधी उन्हें जहर की और खुराक देने की तैयारी कर रही हैं। इस परिवार से जो भी राजनीति में आता है उसे तुरुप का पत्ता बताया जाता है। पहले राहुल गांधी को बताया गया और लोकसभा चुनाव से पहले प्रियंका गांधी को। सर्वे छपवाए गए कि प्रियंका असर सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में पड़ेगा। पर हुआ यह कि परिवार का अभेद्य दुर्ग मानी जाने वाली अमेठी भी हाथ से निकल गई। प्रियंका का असर कितना होने वाला था इसका अंदाज राहुल गांधी को पहले से था। इसलिए भागकर केरल के नायनाड चले गए। प्रियंका ने एक काम जरूर किया कि उन्होंने साबित कर दिया कि सोनिया गांधी का उनकी बजाय राहुल गांधी को आगे करने का फैसला ठीक था। बहुत पुरानी कहावत है ‘करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।‘ राहुल गांधी इस कहावत को गलत साबित करने में पूरी सरह सफल रहे हैं। सोलह साल में उनका राजनीतिक सफर जहां से शुरू हुआ था उससे ज्यादा आगे नहीं बढ़ा है। हर हार के बाद वे एक खीझे हुए व्यक्ति की तरह आचरण करते हैं। पार्टी और पार्टी से बाहर उनका माखौल उड़ाने वालों की तादाद कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया पर अब वे एक ट्रोल की तरह व्यवहार करने लगे हैं।
सवाल है कि पार्टी के दूसरे नेता यह सब बर्दाश्त क्यों कर रहे हैं। पार्टी में दो वर्ग और तीन गुट हैं। परिवार के तीनों सदस्यों के अपने अपने गुट हैं। तीनों गुटों के सदस्य एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं। दिसम्बर, 2018 में तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी तो तीनों गुट अति सक्रिय हो गए। सोनिया और प्रियंका गुट ने मिलकर राहुल गुट को किनारे लगा दिया। मुख्यमंत्री वे लोग बने जिसे राहुल विरोधी गुट चाहता था। नतीजा यह हुआ कि मोदी-शाह युग में तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने का श्रेय पार्टी अध्यक्ष को नहीं मिला। पार्टी अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की नैतिक और सांगठनिक शक्ति उसी समय खत्म हो गई। पूरी पार्टी को पता चल गया कि पार्टी अध्यक्ष के ऊपर भी एक सत्ता केंद्र है और वही बड़े और निर्णायक फैसले करता है।
जहां तक दो वर्गों की बात है तो उसमें से एक है पार्टी के बुजुर्ग (आप वरिष्ठ भी कह सकते हैं) नेताओं का। ये लोग पार्टी पदों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। इन्हें मालूम है कि इनका समय चला गया है। पर इन्हें अपने बेटे बेटियों को पार्टी में एडजस्ट करना है। इस मुद्दे पर इनमें बड़ा एका है। जनार्दन द्विवेदी ने बुद्धिमत्तापूर्ण काम किया कि अपने बेटे को अपने पीछे चलाने की जिद करने की बजाय स्वतंत्र फैसला लेने में रोड़ा नहीं अटकाया। अब बेटे की मेहनत और किस्मत उसका आगे का रास्ता तय करेगी।
दूसरा वर्ग युवा नेताओं का है। जिन्हें भविष्य की राजनीति करनी है। सवाल है कि ये लोग इस पारिवारिक प्रहसन को क्यों बर्दाश्त कर रहे हैं। मां जाएगी तो बेटा आएगा। बेटा जाएगा तो मां आएगी। कभी अगर दोनों को हटना पड़े तो बेटी तैयार है। अभी दामाद और दूसरे सदस्य प्रतीक्षा सूची में हैं। दरअसल इन युवा नेताओं में जोखिम लेने का साहस नहीं है। ये सबएक संरक्षित वातावरण में पले बढ़े हैं। ज्यादातर को जो मिला है बिना ज्यादा संघर्ष के मिला है। इन्होंने कोई आंदोलन किया नहीं, कोई लड़ाई लड़ी नहीं, कभी जेल गए नहीं और न ही पुलिस की लाठियां खाई। जो तमाम गैर कांग्रेस दलों के नेताओं और पार्टियों ने किया। ये राजनीति के सुकुमार हैं। इन्हें अभी तक जो मिला वह माता-पिता से मिला या गणेश परिक्रमा से।
अब सवाल कि क्या कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है। उम्मीद पर दुनिया कायम है। पर असी मुददा तो यह है कि क्या कांग्रेस के लोगों को उम्मीद है? इतना तो तय मानिए कि जैसा चल रहा है वैसा चलता नहीं रह सकता और चलता रहा तो कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। तो फिर इसकी शुरुआत कैसे हो। जिन्हें भविष्य में भी कांग्रेस में रहकर राजनीति करना है उन्हें पार्टी के अतीत की ओर देखना चाहिए और कुछ घटनाओं की ओर भी। कांग्रेस के लोग सीताराम केसरी को भूले नहीं होंगे। कांग्रेस के समर्पित नेता-कार्यकर्ता थे। कभी निजी हित को पार्टी के हित पर तरजीह नहीं दी। पर उन्हें अध्यक्ष पद से किस तरह हटाया गया। क्या पार्टी के युवा नेताओं में परिवार के किसी नेता को इस तरह पद से हटाने की हिम्मत है? कहने का यह मतलब नहीं है कि वैसा ही करना जरूरी है। यदि यह इरादा भी जाहिर कर दिया कि ऐसा कर सकते हैं तो बदलाव आ जाएगा।
कांग्रेस को देश का मुख्य विपक्षी दल (सत्तारूढ़ दल बनना अभी दूर की कौड़ी है) बने रहना है तो दो चीजों से छुटकारा पाना होगा। पहला, पराजय की मानसिकता से। क्योंकि पराजय की मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति किसी भी बिंदु पर स्वंय सोच विचार करने में असमर्थ होता है। इसके साथ ही कांग्रेसियों को इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि नेहरू-गांधी परिवार उसका अतीत था। यह मान लेने में भी हर्ज नहीं कि अतीत सुनहरा था। पर अब यह परिवार उसका भविष्य नहीं है। यह भूत बेताल के कंधे से उतर जाय इसी में कांग्रेस की भलाई है।