प्रदीप सिंह ।
आपको जब भी लगेगा कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस अब और नीचे नहीं गिर सकती, उसी समय कांग्रेस आपको गलत साबित कर देगी। यह एक लकवाग्रस्त, नेतृत्व विहीन और दिशाहीन पार्टी हो गई है जिसके नेता के साथ उसकी सहयोगी पार्टियां तो छोड़िए अपनी पार्टी के लोग भी खड़े होने को तैयार नहीं हैं। आजादी के बाद से यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी सरकार ही नहीं बाकी विपक्ष से भी अलग थलग खड़ी नजर आई। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी अपने देश की सरकार के साथ खड़े होने की बजाय ऐसी बातें बोल रहे हैं जोचीन को लिए मददगार साबित हो रही हैं।
ये आजादी के आंदोलन की वारिस कांग्रेस तो नहीं हो सकती। यह वह कांग्रेस नहीं हो सकती जिसने देश में राष्ट्रवाद को परिभाषित किया और उसी मुद्दे पर आजादी का आंदोलन चलाया। यह तो नेहरू और इंदिरा गांधी की भी कांग्रेस नहीं हो सकती। पिछले महीने भर से सोनिया गांधी और राहुल गांधी जिस तरह के बयान दे रहे हैं वह चीन के लिए मददगार साबित हो रहा है। यह पहली बार नहीं हो रहा है। पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट में एयर स्ट्राइक के समय भी पार्टी का रवैया ऐसा ही रहा है। यदि आपको लग रहा हो कि यह केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति घृणा के भाव के कारण हो रहा है तो आप पूरी तरह से सही नहीं हैं।
कारगिल युद्ध के समय भी कांग्रेस का यही रवैया था। वह तब भी ऐसे ही प्रश्न पूछ रही थी और ऐसे आरोप लगा रही थी जिससे हमारी फौज का मनोबल गिरे और दुश्मन का हौसला बढ़े। दरअसल यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस का डीएनए ही बदल गया है। यह सोनिया और राहुल गांधी की कांग्रेस है। इसमें राष्ट्र हित प्राथमिकता में नहीं है। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि दलगत हित को भी दरकिनार कर दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी तो कांग्रेस की विरोधी है। इसलिए कांग्रेस के बारे में उसकी राय को किनारे रख दीजिए। प्रधानमंत्री के साथ सर्वदलीय बैठक में उसके सहगोयगी द्रविड़ मुनेत्र कषगम और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सहित बाकी विपक्षी दल प्रधानमंत्री और सरकार के साथ खड़े नजर आए। यहां तक कि हर बात पर मोदी का विरोध करने वाली ममता बनर्जी ने भी दलगत राजनीति को परे रखकर राष्ट्रहित के साथ खड़े होना बेहतर समझा। राजनीतिक रूप से सबसे परिपक्व रुख बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का था। शरद पवार ने तो परोक्ष रूप से राहुल गांधी को झिड़क ही दिया।
पर इन बातों का कांग्रेस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह इस मुद्दे पर जीवाश्म (फॉसिलाइज्ड) बन चुके वामदलों के साथ है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी पंचशील की बात कर रहे हैं। जो जवाहर लाल नेहरू के समय शुरू हुआ और उनके जीते जी ही खत्म हो गया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी राजा को सपने में भी अमेरिका सताता है। अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु संधि का विरोध करके 2009 के चुनाव में मिट्टी में मिलने के बाद भी वामपंथियों को समझ में नहीं आ रहा है कि देश और दुनिया इक्कीसवीं सदी में हैं। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस को वामदलों की स्थिति की ओर ले जा रहा है।
व्यंगकार शरद जोशी ने चार दशक पहले लिखा था- ‘कांग्रेस अमर है वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएंगे। जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता, ढ़ीलापन, दोमुहांपन, पूर्वाग्रह, ढ़ोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी। जो कुछ होना है आखिर में उसे कांग्रेस होना है। तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएंगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली।‘ शरद जोशी आज होते तो पता नहीं क्या लिखते। पर एक बात तो दिखाई दे रही है नरेन्द्र मोदी ने धारा का रुख मोड़ दिया। उन्होंने साबित कर दिया कि जो ‘कुछ होना है’ आखिर में उसे कांग्रेस नहीं होना है। मोदी काल में भाजपा कांग्रेस नहीं हुई, यही कांग्रेस के पतन का कारण बन गया है। पतन की यह प्रक्रिया जो धीमी गति से चल रही थी, उसे राहुल गांधी ने तेज कर दिया है।
चीन से सीमा विवाद और कोरोना काल में राहुल गांधी के ‘राफेल अवतार’ की वापसी हुई है। राफेल पर उन्होंने राजनीति और सार्वजनिक जीवन की सारी मर्यादा तोड़ दी थीं। अब एक बार फिर वे अपने उसी रूप में मैदान में हैं। उस समय उन्हें सत्ता में पहुंचाने का सपना दिखाकर उनके विद्वान सलाहकारों ने कहा कि डटे रहो, बस मोदी गिरने ही वाले हैं। नतीजा यह हुआ कि मोदी पहले से ज्यादा ताकतवर हो गए। इस बार यह धतकरम इसलिए हो रहा है कि सत्ता नहीं मिली कम से कम पार्टी के सिंहासन पर तो वापसी हो। राफेल अवतार में भी उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं से शिकायत थी कि वे उनकी तरह चुनावी सभाओं में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा नहीं लगवाते। मंगलवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में फिर वही शिकायत, कि मोदी केखिलाफ पार्टी के दूसरे नेता नहीं बोल रहे। इस बार उनका साथ देने के लिए बहन प्रियंका भी थीं।
राहुल परस्पर विरोधी बातें एक साथ कर रहे हैं। बाहर बोलते हैं मोदी कायर हैं। अंदर बोलते हैं उनकी पार्टी के नेता मोदी से डरते हैं। आलम यह है कि पार्टी साथ नहीं दे रही, सहयोगी दल साथ नहीं दे रहे और बाकी विपक्ष साथ आने को तैयार नहीं। फिर भी उन्हें समझ में नहीं आ रहा। जब पूरे देश में चीन विरोधी माहौल है तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री के विरोध में खड़े हैं। और कुछ नहीं तो शहीदों के पार्थिव शरीर उनके घर पहुंचने पर जैसा हुजूम उमड़ रहा है, उसे ही देख लेते। श्रद्धांजलि देने वालों की भीड़ देखकर कोई भी जमीनी नेता समझ जाएगा कि देश की भावना क्या है।
तो क्या विपक्ष को सरकार से सवाल नहीं पूछना चाहिए। जरूर पूछना चाहिए। विपक्ष का यह संवैधानिक दायित्व है। पर यह याद रखना चाहिए कि राजनीति में कुछ बोलते समय तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। पहला, किस समय, यानी समय। दूसरा, किस तरह यानी किस मंशा या नीयत से। तीसरा, कौन यानी बोलने वाले की अपनी विश्वसनीयता। राहुल के बोलने का समय और लहजा दोनों गलत है यह नसीहत उन्हें शरद पवार ने दे दी।रही बात विश्वसनीयता की तो जिस नेता की बात उसकी पार्टी के लोग ही मानने को तैयार न हों और उसे इसकी बार-बार शिकायत करना पड़े, उसकी कौन सुनेगा? कम से कम देश के लोग तो नहीं सुन रहे। यह बात कांग्रेसियों को समझ में आ रही है। कांग्रेस के लोगों को सोचना पड़ेगा कि क्यों हर बार यह धारणा बनती है कि जैसे उनका नेता दुश्मन देशके पाले में खड़ा हो। राजनीति में धारणा बहुत महत्वपूर्ण होती है।