प्रदीप सिंह ।
पिछले छह साल में चीन को दूसरी बार मुहं की खाना पड़ा है। पहले डोकलम और अब लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर। भारत का इस बार का प्रहार पिछली बार से ज्यादा घातक है। सरकारों के बदलने से फौज की ताकत में कमी या बढ़ोत्तरी नहीं होती। पर शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की दृढ इच्छाशक्ति उनका मनोबल कई गुना बढ़ा देती है। पंद्रह-सोलह जून की रात गलवन घाटी में हमारे बीस फौजी शहीद हुए लेकिन वे चीन की सेना को जो सबक सिखा गए वह अगले सौ साल तक उसे याद रहेगा।भारत ने जवाब केवल फौजी ताकत से ही नहीं अर्थनीति और राजनय से भी दिया।
इसके बावजूद देश में एक रुदाली ब्रिगेड है जो सवाल पर सवाल पूछ रही है। इसके मुखिया कांग्रेस नेता राहुल गांधी हैं। सवाल पूछने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन सवाल पूछने वाले को विषय की जानकारी तो होनी चाहिए। जहां जानकारी मिल सकती है, वहां वे जाएंगे नहीं। राहुल गांधी संसद की रक्षा मामलों की स्थायी समिति के सदस्य हैं। इस लोकसभा में उसकी ग्यारह बैठकें हो चुकी हैं। वे किसी बैठक में नहीं गए। सेना स्थायी समिति के सदस्यों को लेकर लद्दाख गई थी। जमीनी स्थिति की जानकारी देने के लिए। राहुल इसमें भी नहीं गए।क्योंकि एनटाइटलमेंट( हकदारी) का बुखार अभी उतरा नहीं है।
सवाल है कि राहुल गांधी जानकारी से भागते क्यों हैं? मशहूर ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक नॉर्मन फैंक डिक्सन ने सैन्य अक्षमता के मनोविज्ञान पर 1976 में छपी अपनी किताब में लिखा है कि- ‘नेतृत्व की नाकामी की सबसे सामान्य वजह बेताबी/ अधीरता होती है।‘ उनके मुताबिक ‘अक्षम नेता अक्सर नयी जानकारी से बचते हैं। क्योंकि नई जानकारी उनके दृष्टिकोण में बदलाव ला सकती है। दृष्टिकोण बदलने का मतलब यह मामना होगा कि पहले गलत थे।‘राहुल गांधी इसी मनोरोग से ग्रस्त हैं। सर्जिकल स्ट्राइक हो, बालाकोट एयर स्ट्राइक, राफेल की खरीद हो या अब चीन के साथ संघर्ष, आपको एक पैटर्न दिखाई देगा।
आचार्य रजनीश ने कहा कि था कि ‘अच्छा आदमी बुरे आदमियों के लिए बहुत अपमानजनक है, अच्छे का होना उसे बर्दाश्त नहीं होता।‘ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। उनकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वे अच्छे आदमी हैं। उन्हें समाज के सामूहिक हित में ही अपना हित नजर आता है। क्योंकि उनका अपना कोई निजी हित नहीं है। उन्होंने बुरे लोगों की सांठ-गांठ को छिन्न भिन्न कर दिया है। ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और सुधार की बात सार्वजनिक मंचों से करते रहो लेकिन लूटखसोट, बेईमानी और झूठ की विषबेल को सींचते रहो। दिखो ईमानदार पर रहो बेईमान। छह-सात दशक से चल रही इस रवायत को उन्होंने बंद कर दिया। बड़ी छटपटाहट है। इसे( मोदी को) कैसे हटाया जाय। तो सच नहीं है तो क्या हुआ। झूठ, प्रपंच और अप-प्रचार का अभियान चलाओ।
पिछले छह साल से यह सिलसिला अबाध रूप से चल रहा है। फिर चीन से सीमा पर तनातनी के मामले में यह क्यों नहीं हो? क्या फर्क पड़ता है अगर इससे चीन को फायदा मिलता हो और भारत का नुक्सान होता हो। इस वर्ग के लिए गोस्वामी तुलसीदास लिख गए हैं- ‘पर अकाज लगि तनु परिहरहीं, जिमि हिम उपल कृषी दल गरहीं।‘ अर्थ यह है कि दूसरे का काम बिगाड़ने के लिए खुद को नष्ट कर देंगे। जैसे ओले चाहे खुद गल जायं पर फसल को चौपट कर देंगे। पर क्या करें गल जाना ओलों का प्रारब्ध है, उनकी नियति है। पर वे नहीं जानते की इस ‘फसल’ की प्रकृति जरा अलग है वह ‘ओलों’ से नहीं गलती। गुजरात के मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक के नरेन्द्र मोदी के सफर में एक बात प्रचुरता से नजर आती है कि हर संकट के बाद वह और निखरकर सामने आते हैं।
मोदी की इस कामयाबी की वजह क्या है। जाहिर है इसकी कोई एक वजह नहीं हो सकती। पर कुछ बातें प्रमुखता से उभऱ कर सामने आती हैं। सबसे पहली बात जो नजर आती है वह यह कि हर चुनौती में उनके लिए जीत एकमात्र विकल्प होता है। हारने या नाकाम होने का उनके सामने विकल्प ही नहीं होता। उन्नीस साल से मीडिया, तत्कालीन सरकारों, राजनीतिक दलों, नेताओं, कानून और अदालतों की अग्नि परीक्षा से गुजर कर वे यहां तक पहुंचे हैं और हर परीक्षा के बाद पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरते हैं। पर उनके विरोधियों के मन में उनके प्रति घृणा कम नहीं हुई है। जिस व्यक्ति का कोई निजी स्वार्थ नहीं होता वह हर समय समाज के स्वार्थ सो जुड़ा होता है। मोदी की यह दूसरी खूबी है, जो उन्हें उर्जा देती है। उनकी तीसरी ताकत है यह सोच है कि इतनी शक्ति अर्जित करो कि अवसर का लाभ उठा सको। उन्हें यह शक्ति मिलती है संगठन के सामूहिक प्रयास से।
एक तरफ चीन से सीमा पर विवाद चल रहा था तो दूसरी ओर उनके विरोधी बर्छी बाले लेकर उन पिले पड़े थे। उस समय वे भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं से कोरोना महामारी में लोगों की मदद में किए गए काम का लेखा जोखा ले रहे थे। इस तरह से वही व्यक्ति काम कर सकता है जो आत्मविश्वास से लबरेज हो। जिसमें देश के प्रति एक निष्ठ भाव हो और देश की क्षमता पर भरोसा हो। जिसकी स्ट्रेटेजी और टैक्टिक्स दोनों ही सही हों। यही वजह है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर फौज की हौसला अफजाई के लिए वे स्वयं लेह पहुंच गए।
उनकी लेह यात्रा पर भी भाई लोग सवाल उठाने से नहीं चूके।उनकी यह यात्रा फौज का मनोबल बढ़ाने के लिए ही नहीं थी। यह बताने के लिए भी कि देश की सरकार जनता उनके शौर्य को सलाम करती है। इस यात्रा से उन्होंने चीन को संदेश दिया कि भारत पीछे हटने वाला नहीं है। इस बात को वह जितनी जल्दी समझ ले उतना अच्छा। उन्होंने दुनिया को भी संदेश दिया कि यह नया भारत है, जो विस्तारवादी ताकतों के सामने चट्टान की तरह खड़ा है। इसका असर चीन और दुनिया दोनों पर पड़ा। जिस तरह से तमाम देशों का भारत को समर्थन मिला वह चीन को परेशान करने वाला है। दुनिया में मोदी की छवि का अंदाजा लगाने के लिए ह्वाइट हाउस के पूर्व चीफ स्ट्रेटेजिस्ट स्टीफेन बैनन की बात सुननी चाहिए। बैनन ने कहा कि ‘मोदी को कोई खरीद नहीं सकता। वे भारतीय अर्थव्यवस्था, भारत के लोगों और दुनिया के लिए भी सर्वश्रेष्ठ हैं।‘
उन्नीस साल हो गए लेकिन मोदी विरोधियों को एक बात समझ में नहीं आई कि सचाई से भागने या उसे छिपाने की कोशिश करने से सचाई बदल नहीं जाती। मोदी को दुनिया में ऐसे सम्मान की नजर से देखा जाता है जैसे भारत के किसी प्रधानमंत्री को कभी नहीं देखा गया। यही है गलवान का संदेश। यह बात देश के आम लोगों को समझ में आ रही है। पर कुछ लोगों ने दिमाग बंद कर रखा है।