apka akhbarप्रदीप सिंह

जिस देश की आजादी के आंदोलन का लक्ष्य राम राज्य की स्थापना हो उसी देश में राम के जन्म स्थान के लिए करीब पांच सौ साल संघर्ष करना पड़े इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है।राम जन्म भूमि पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला  पूरे हिंदू समाज को निराशा और अंधेरे से निकालने वाला है। हिंदुओं के लिए यह मुद्दा जमीन के एक टुकड़े का नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ है। राम किसी एक धर्म के नहीं भारतीय सभ्यता और संसकृति के आधार हैं। राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना कठिन है।


 

विवादित भूमि के मालिकाना हक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या हिंदुओं को जमीन का एक टुकड़ा मिला है। जी नहीं, बिल्कुल नहीं। इस फैसले से इस देश को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक पहचान मिली है। वह पहचान जिसे आजादी के बाद राज्य के समाजवाद की स्थापना की खातिर विस्मृत कर दिया गया था। जिसे यूरोपीय और भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने एक विकृति की तरह निरूपित किया। भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म की बात करना प्रतिगामी, रूढ़िवादी और धर्मनिरपेक्षता के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा के रूप में पेश किया गया। हिंदू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी कसौटी बन गया। देश की बहुसंख्यक आबादी के मन में यह बात घर कर गई थी कि वह अपने ही वतन में दोयम दर्जे का नागरिक बन गया है। अयोध्या में जिसने भी  नौ नवम्बर से पहले राम लला विराजमान के दर्शन किए होंगे वह कलेजे पर पत्थर रखकर लौटा होगा।

इन इतिहासकारों की नजर में शिकागो की विश्व धर्म संसद में कही स्वामी विवेकानंद की बातों की भी कोई अहमियत नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि‘हिंदू धर्म ने एक धर्म के रूप में दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकार्यता सिखाया है। इसीलिए यहां इतने धर्म आए और सब भारतीय समाज में समाहित हो गए। इस देश ने किसी धर्म का विरोध नहीं किया।‘रामजन्म भूमि राम भक्तों के लिए एक पवित्रतम स्थान है। उसे हिंदुओं को लौटाकर किसी से कुछ छीना नहीं गया है। इतिहास की एक गलती को सुधारा गया है, जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। कम से कम आजादी के बाद तो ही जाना चाहिए था।

आजादी से पहले तो अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाया। उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं। 1934 में अयोध्या में हुए दंगे में विवादित ढ़ांचे के गुम्बद को नुकसान पहुंचा तो प्रशासन ने उसकी मरम्मत का पैसा हिंदुओं से यह कह कर वसूलागया कि यह तोड़फोड़ के अपराध की सजा है। साल 1934 से निकलिए और 1994 में आइए। पीवी नरसिंह राव की सरकार ने  संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति को मिले अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह बताए कि रामजन्म भूमि-बाबरी मसजिद के निर्माण के पहले क्या वहां कोई हिंदू मंदिर या कोई हिंदू धार्मिक ढ़ांचा था? सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधानपीठ ने बहुमत के फैसले में इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया।सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक इसका जवाब देना एक पक्ष( हिंदू) की हिमायत करना होगा, जो धर्मनिरपेक्षता के लिए ठीक नहीं है।

बात यहीं तक नहीं रही। बहुमत का फैसला मुख्य न्यायाधीश वेंकटचेलैया और जीएन रे के लिए जस्टिस जेएस वर्मा ने लिखा। उन्होंने लिखा कि ‘हिंदुओं को मेकशिप्ट मंदिर में खुद पूजा के अधिकार से वंचित किया जाना उचित है, जो उन्हें छह दिसम्बर से पहले हासिल था।‘ उन्होंने लिखा है कि ‘हिंदुओं को यह सलीब अपने सीने पर लगाकर चलना होगा। क्योंकि जिन शरारती तत्वों ने ढ़ांचे को गिराया वे हिंदू धर्म के अनुयायी माने जाते हैं।‘ दुनिया के किसी देश में क्या ऐसा सम्भव है कि बहुसंख्यक समाज अपने सबसे बड़े आराध्य की पूजा से सजा के तौर पर वंचित कर दिया जाय। इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले में माना है कि विवादित ढ़ांचे के ध्वंस के लिए पूरे हिंदू समाज को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस फैसले से ही मुसलिम पक्ष को यह हक मिला कि समय समय पर जाकर देख सकता है कि रामजन्म स्थान पर यथा स्थिति में कोई बदलाव तो नहीं किया गया है। इसका मुसलिम पक्ष ने कैसा  लाभ उठाया इसका एक उदाहरण रामलला विराजमान के मुख्य पुजारी सत्येन्द्र दास जी ने दिया। उनके मुताबिक कि टेंट के पास तुलसी के दो छोटे पौधे उग आए थे। मुसलिम पक्षकारों ने उसे यह कहकर उखड़वा दिया कि इससे यथास्थिति बदल जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने देश के बहुसंख्यक समाज को यह यकीन दिलाया है कि धर्मनिरपेक्षता की सूली पर उसे हमेशा नहीं चढ़ाया जाएगा। फैसले से पहले और फैसले के बाद टेंट में रामलला विराजमान को देखने की लोगों की दृष्टि बदल गई है। रामलला को टेंट में देखकर जो रामभक्त खून के आंसू रोते थे, आज उसी टेंट में उन्हें देखने के बावजूद खुश हैं। अब उन्हें लगता है कि राम लला का यह टेन्टवास रूपी वनवास जल्दी ही खत्म होने वाला है। फैसले के तीन दिन पहले से मैं अयोध्या में था और दो दिन बाद तक रहा। यह कार्तिक का महीना है। जो कल्पवास का महीना होता है। देश के ज्यादातर राज्यों से हजारों भक्त अयोध्या में थे। जिससे भी फैसले के बारे में पूछिए किसी के चेहरे पर हार्दिक खुशी की चमक थी तो किसी के भाव गूंगे के गुड़ की तरह।

वामपंथी इतिहासकारों को समय समय पर भारत और भारत के बाहर से भी भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के बारे में उनके पूर्वाग्रह का जवाब मिलता रहा है। प्रसिद्ध नाट्य समालोचक विलियम आर्चर ने भारतीय संस्कृति पर आक्रमण करते हुए भारतीय दर्शन, धर्म, काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला, उपनिषद, रामायण और महाभारत को अवर्णनीय बर्बरता का घृणास्पद स्तूप कह दिया। उसका जवाब देने के लिए विख्यात विद्वान एवं तंत्र-दर्शन के व्याख्याता सर जॉन वूड्रॉफ ने ‘क्या भारत सभ्य है?’ शीर्षक से एक किताब लिखी। उसमें उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता क संकट के दौर से गुजर रही है। इसका विनाश पूरी दुनिया के लिए विपत्तिकारक होगा। पुस्तक का सार यह था कि भारतीय सभ्यता/संस्कृति की रक्षा करना भारत के लिए ही नहीं पूरी मानव जाति के लिए परम आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या पर यह फैसला भारतीय सभ्यता की रक्षा की दिशा में उठा बहुत महत्वपूर्ण कदम है। इसे कानूनी दांव पेंच,जमीन, हिंदू मुसलमान या हार जीत के चश्मे से देखना इसकी महत्ता को घटाना होगा। यह फैसला भारतवासियों को एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर लौटने का का अवसर देता है। सुप्रीम कोर्ट की अपनी सीमा है। वह इतना ही कर सकता था। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इस अवसर का लाभ उठाएं और आगे बढ़ें। क्या हुआ, क्यों हुआ सब भूलकर इस बात पर ध्यान दें कि आगे क्या करना है। यह पीढ़ी भाग्यशाली है कि उसे यह शुभ दिन देखने का अवसर मिला है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम जीवन में उन सब बातों के प्रतीक हैं जो शुभ है, सुंदर और नैतिक है।

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