डॉ. संतोष कुमार तिवारी

क्या आपको कभी ऐसा अनुभव हुआ कि आपके दिवंगत प्रियजन किसी फार्म में या स्वरूप में आपसे मिलने आए हैं। इस बारे में मेरा कुछ अपना अनुभव रहा है। लेकिन यह लेख अपना अनुभव बताने के लिए नहीं लिख रहा हूँ।  इस लेख में भगवान राम का अनुभव बताना चाहूँगा। भगवान राम का अनुभव वाल्मीकीय  रामायण के युद्ध काण्ड के एकोनविंशत्यधिकशततम: सर्ग: अर्थात 119वें अध्याय में दिया हुआ है । राजा दशरथ की मृत्यु पुत्र वियोग में बहुत पहले हो चुकी थी। परन्तु जब रामचन्द्रजी ने रावण-बध किया, तब  बाद राजा दशरथ सशरीर उनसे मिलने आए और लक्ष्मणजी और सीताजी से बातचीत की।

दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में रामायण कई बार लिखी गई और उसके अनेक अनुवाद भी हुए। सबसे प्राचीन उपलब्ध रामायण संस्कृत भाषा में है – वाल्मीकीय  रामायण। इसके अतिरिक्त भागवत में और अनेक पुराणों में भी राम कथा की चर्चा है।

महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई रामायण अद्वितीय है, अद्भुत है। उसमें कथा द्वारा राजा के, भाई के, पत्नी आदि के कर्तव्य बताए गए हैं। उसमें ज्योतिष विज्ञान है, तन्त्र विद्या है, स्वप्न विद्या है, आयुर्वेद है, भाषण देने की कला है, आदि। इन्हीं कारणों से गोस्वामी तुलसीदास ने महर्षि वाल्मीकि की तुलना ब्रह्म से की है:

उल्टा नाम जपत जग जानाबाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।   

वाल्मीकीय  रामायण के बारे में कहा गया है:

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌।

अर्थात उसका एक-एक अक्षर महापापी के पापों को नष्ट करने वाला है।

वाल्मीकीय  रामायण समस्त काव्यों का बीज है –

काव्यबीजं सनातनाम्।

वाल्मीकीय  रामायण के युद्ध काण्ड के 119वें सर्ग में कहा गया है कि रावण वध के बाद राजा दशरथ विमान से आए और उन्होने राम, लक्ष्मण और सीता को आवश्यक सन्देश दिया, फिर इन्द्र लोक में वापस लौट गए।

पुष्कराक्ष महाबाहो महावक्षः परंतप।

दिष्ट्या कृतमिदं कर्म त्वया धर्मभृतां वर ॥ २ ॥

उस समय भगवान राम की प्रशंसा करते हुए महादेवजी बोले “शत्रुओंको संताप देनेवाले, विशाल वक्षःस्थलसे सुशोभित, महाबाहु कमलनयन ! आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं। आपने रावण वधरूप कार्य सम्पन्न कर दिया—यह बड़े सौभाग्यकी बात है”॥ 2 ॥

दिष्ट्या सर्वस्य लोकस्य प्रवृद्धं दारुणं तमः ।

अपवृत्तं त्वया संख्ये राम रावणजं भयम् ॥ 3 ॥

महादेवजी ने कहा “श्रीराम! रावणजनित भय और दुःख सारे लोकों के लिए बढ़े हुए घोर अन्धकार के समान था, जिसे आपने युद्धमें मिटा दिया” ॥ 3 ॥

आश्वास्य भरतं दीनं कौसल्यां चयशस्विनीम् ।

कैकेयीं च सुमित्रां च दृष्ट्वा लक्ष्मणमातरम् ॥ 4 ॥

प्राप्य राज्यमयोध्यायां नन्दयित्वा सुहृज्जनम् ।

इक्ष्वाकूणां कुले वंशं स्थापयित्वा महाबल ॥5 ॥

इष्ट्वा तुरगमेधेन प्राप्य चानुत्तमं यशः ।

ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा त्रिदिवं गन्तुमर्हसि ॥ 6 ॥

“महाबली वीर ! अब दुःखी भरत को धीरज बँधाकर, यशस्विनी कौसल्या, कैकेयी तथा

लक्ष्मणजननी सुमित्रा से मिलकर, अयोध्याका राज्य पाकर, सुहृदोंको आनन्द देकर,

इक्ष्वाकुकुल में अपना वंश स्थापित करके, अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कर, सर्वोत्तम यश का

उपार्जन करके तथा ब्राह्मणोंको धन देकर आपको अपने परम धाममें जाना चाहिए ॥ 4-6 ॥

एष राजा दशरथो विमानस्थः पिता तव ।

काकुत्स्थ मानुषे लोके गुरुस्तव महायशाः ॥ 7 ॥

हे राम! देखिए, ये आपके पिता राजा दशरथ विमान पर बैठे हुए हैं। मनुष्यलोकमें

ये ही आपके महायशस्वी गुरु थे ॥ 7 ॥

इन्द्रलोकं गतः श्रीमांस्त्वया पुत्रेण तारितः ।

लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा त्वमेनमभिवादय ॥ 8 ॥

“ये श्रीमान् नरेश इन्द्रलोक को प्राप्त हुए हैं। आप जैसे सुपुत्र ने इन्हें तार दिया। आप भाईलक्ष्मणके साथ इन्हें नमस्कार करें” ॥ 8 ॥

महादेववचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः ।

विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत् पितुः ॥ 9 ॥

महादेवजी की यह बात सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी ने विमानमें उच्च स्थान पर बैठे हुए अपने पिताजीको प्रणाम किया ॥ 9  ॥

दीप्यमानं स्वया लक्ष्म्या विरजोऽम्बरधारिणम् ।

लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा ददर्श पितरं प्रभुः ॥ 10 ॥

भाई लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीराम ने पिता को अच्छी तरह देखा। वे निर्मल वस्त्र धारण करके अपनी दिव्य शोभा से देदीप्यमान थे ॥ 10 ॥

हर्षेण महताऽऽविष्टो विमानस्थो महीपतिः ।

प्राणैः प्रियतरं दृष्ट्वा पुत्रं दशरथस्तदा ॥ 11 ॥

विमान पर बैठे हुए महाराज दशरथ अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र श्रीराम को देखकर बहुत

प्रसन्न हुए॥ 11 ॥

आरोप्याङ्के महाबाहुर्वरासनगतः प्रभुः ।

बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य ततो वाक्यं समाददे ॥ 12 

श्रेष्ठ आसन पर बैठे हुए उन महाबाहु नरेश ने उन्हें गोद में बिठाकर दोनों बाँहों में भर लिया और इस प्रकार कहा— ॥ 12 ॥

न मे स्वर्गों बहु मतः सम्मानश्च सुरर्षभैः ।

त्वया राम विहीनस्य सत्यं प्रतिशृणोमि ते ॥ 13 

“राम ! मैं तुमसे सच कहता हूँ, तुमसे विलग होकर मुझे स्वर्ग का सुख तथा देवताओं द्वारा प्राप्त हुआ सम्मान भी अच्छा नहीं लगता ॥ 13 ॥

अद्य त्वां निहतामित्रं दृष्ट्वा सम्पूर्णमानसम् ।

निस्तीर्णवनवासं च प्रीतिरासीत् परा मम ॥ 14 

“आज तुम शत्रुओं का वध करके पूर्ण मनोरथ हो गए और तुमने वनवासकी अवधि भी पूरी कर ली, यह सब देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है ॥ 14 ॥

कैकेय्या यानि चोक्तानि वाक्यानि वदतां वर ।

तव प्रव्राजनार्थानि स्थितानि हृदये मम ॥ 15 ॥

“वक्ताओं में श्रेष्ठ रघुनन्दन ! तुम्हें वन में भेजने के लिए कैकेयी ने जो-जो बातें कही थीं, वे सब आज भी मेरे हृदयमें बैठी हुई हैं ॥ 15 ॥

त्वां तु दृष्ट्वा कुशलिनं परिष्वज्य सलक्ष्मणम् ।

अद्य दुःखाद् विमुक्तोऽस्मि नीहारादिव भास्करः ॥ 16 ॥

“आज लक्ष्मणसहित तुमको सकुशल देख कर और हृदय से लगाकर मैं समस्त दुःखों से छुटकारा पा गया हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे चन्द्रमा कुहरे से निकल आए हों ॥ 16 ॥

तारितोऽहं त्वया पुत्र सुपुत्रेण महात्मना ।

अष्टावक्रेण धर्मात्मा कहोलो ब्राह्मणो यथा ॥ 17 

“बेटा! जैसे अष्टावक्र ने अपने धर्मात्मा पिता कहोल नामक ब्राह्मणको तार दिया था, वैसे ही

तुम जैसे महात्मा पुत्र ने मेरा उद्धार कर दिया ॥ 17 ॥

इदानीं च विजानामि यथा सौम्य सुरेश्वरैः ।

वधार्थं रावणस्येह विहितं पुरुषोत्तमम् ॥ 18 ॥

“सौम्य! आज इन देवताओंके द्वारा मुझे मालूम हुआ कि रावणका वध करनेके लिये स्वयं

पुरुषोत्तम भगवान् ही तुम्हारे रूप में अवतीर्ण हैं” ॥ 18 ॥

सिद्धार्थ खलु कौसल्या या त्वां राम गृहंगतम् ।

हुए वनान्निवृत्तं संहृष्टा द्रक्ष्यते शत्रुसूदनम् ॥ 19 ॥

“श्रीराम ! कौसल्या का जीवन सार्थक है, जो वन से लौटने पर तुम जैसे शत्रुसूदन वीर पुत्र को

अपने घर में हर्ष और उल्लास के साथ देखेंगी ॥ 19 ॥

सिद्धार्थाः खलु ते राम नरा ये त्वां पुरीं गतम् ।

राज्ये चैवाभिषिक्तं च द्रक्ष्यन्ते वसुधाधिपम् ॥ 20 

“रघुनन्दन ! वे प्रजाजन भी कृतार्थ हैं, जो अयोध्या पहुँचने पर तुम्हें राज्य सिंहासन पर

भूमिपालके रूपमें होते देखेंगे ॥ 20 ॥

अनुरक्तेन बलिना शुचिना धर्मचारिणा ।

इच्छेयं त्वामहं द्रष्टुं भरतेन समागतम् ॥ 21 ॥

“भरत बड़ा ही धर्मात्मा, पवित्र और बलवान् है। वह तुममें सच्चा अनुराग रखता है। मैं उसके साथ तुम्हारा शीघ्र ही मिलन देखना चाहता हूँ॥ 21 ॥

चतुर्दश समाः सौम्य वने निर्यातितास्त्वया ।

वसता सीतया सार्धं मत्प्रीत्या लक्ष्मणेन च ॥ 22 

“सौम्य ! तुमने मेरी प्रसन्नता के लिए  लक्ष्मण और सीता के साथ रहते हुए वन में चौदह वर्ष व्यतीत किए ॥ 22 ॥

निवृत्तवनवासोऽसि प्रतिज्ञा पूरिता त्वया ।

रावणं च रणे हत्वा देवताः परितोषिताः ॥ 23 

अब तुम्हारे वनवासकी अवधि पूरी हो गई। मेरी प्रतिज्ञा भी तुमने पूर्ण कर दी तथा संग्राम में

रावणको मारकर देवताओंको भी संतुष्ट कर दिया ॥ 23 ॥

कृतं कर्म यशः श्लाघ्यं प्राप्तं ते शत्रुसूदन ।

भ्रातृभिः सह राज्यस्थो दीर्घमायुरवाप्नुहि ॥ 24 ॥

“शत्रुसूदन ! ये सभी काम तुम कर चुके । इससे तुम्हें स्पृहणीय यश प्राप्त हुआ है। अब तुम

भाइयों के साथ राज्य पर प्रतिष्ठित हो दीर्घ आयु प्राप्त करो” ॥ 24 ॥

इति ब्रुवाणं राजानं रामः प्राञ्जलिरब्रवीत् ।

कुरु प्रसादं धर्मज्ञ कैकय्या भरतस्य च ॥ 25 ॥

जब राजा इस प्रकार कह चुके, तब श्रीरामचन्द्रजी हाथ जोड़कर उनसे बोले – ‘ धर्मज्ञ

महाराज ! आप कैकेयी और भरत पर प्रसन्न हों- उन दोनों पर कृपा करें॥ 25 ॥

सपुत्रां त्वां त्यजामीति यदुक्ता कैकयी त्वया ।

स शापः कैकयीं घोरः सपुत्रां न स्पृशेत् प्रभो ॥ 26 

“प्रभो! आपने जो कैकेयी से कहा था कि मैं पुत्रसहित तेरा त्याग करता हूँ, आपका वह घोर

शाप पुत्रसहित कैकेयी का स्पर्श न करे” ॥ 26 ॥

तथेति स महाराजो राममुक्त्वा कृताञ्जलिम् ।

लक्ष्मणं च परिष्वज्य पुनर्वाक्यमुवाच ह ॥ 27 

तब श्रीरामसे ‘बहुत अच्छा’ कहकर महाराज दशरथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और हाथ

जोड़े खड़े हुए लक्ष्मण को हृदय से लगाकर फिर यह बात कही— ॥

रामं शुश्रूषता भक्त्या वैदेह्या सह सीतया ।

कृता मम महाप्रीतिः प्राप्तं धर्मफलं च ते ॥ 28 

‘वत्स! तुमने विदेहनन्दिनी सीता के साथ श्रीराम की भक्तिपूर्वक सेवा करके मुझे बहुत प्रसन्न किया है। तुम्हें धर्मका फल प्राप्त हुआ है ॥ 28 ॥

धर्मं प्राप्स्यसि धर्मज्ञ यशश्च विपुलं भुवि ।

रामे प्रसन्ने स्वर्गं च महिमानं तथोत्तमम् ॥ 29 

“धर्मज्ञ ! भविष्यमें भी तुम्हें धर्म का फल प्राप्त होगा और भूमण्डलमें महान् यश की उपलब्धि होगी। श्रीराम की प्रसन्नता से तुम्हें उत्तम स्वर्ग और महत्त्व प्राप्त होगा ॥ 29  ॥

रामं शुश्रूष भद्रं ते सुमित्रानन्दवर्धन ।

रामः सर्वस्य लोकस्य हितेष्वभिरतः सदा ॥ 30 

“सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम श्रीराम की निरन्तर सेवा करते रहो। ये श्रीराम सदा सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्परहते हैं ॥ 30  ॥

एते सेन्द्रास्त्रयो लोकाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।

अभिवाद्य महात्मानमर्चन्ति पुरुषोत्तमम् ॥ 31 ॥

“देखो, इन्द्रसहित ये तीनों लोक, सिद्ध और महर्षि भी परमात्मस्वरूप पुरुषोत्तम राम को प्रणाम करके इनका पूजन कर रहे हैं” ॥ 31 ॥

एतत् तदुक्तमव्यक्तमक्षरं ब्रह्मसम्मितम् ।

देवानां हृदयं सौम्य गुह्यं रामः परंतपः ॥ 32 ॥

“सौम्य ! शत्रुओं को संताप देने वाले ये श्रीराम देवताओंके हृदय और परम गुह्य तत्त्व हैं। ये ही वेदों द्वारा प्रतिपादित अव्यक्त एवं अविनाशी ब्रह्म हैं॥ 32 ॥

अवाप्तधर्माचरणं यशश्च विपुलं त्वया ।

एवं शुश्रूषताव्यग्रं वैदेह्या सह सीतया ॥ 33 ॥

“विदेहनन्दिनी सीताके साथ शान्तभावसे इनकी सेवा करते हुए तुमने सम्पूर्ण धर्माचरण का फल और महान् यश प्राप्त किया है “ ॥ 33 ॥

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं राजा स्नुषां बद्धाञ्जलिं स्थिताम् ।

पुत्रीत्याभाष्य मधुरं शनैरेनामुवाच ह ॥ 34 ॥

लक्ष्मण से ऐसा कह कर राजा दशरथ ने हाथ जोड़कर खड़ी हुई पुत्रवधू सीता को ‘बेटी’  कह कर पुकारा और धीरे-धीरे मधुर वाणीमें कहा- ॥ 34 ॥

कर्तव्यो न तु वैदेहि मन्युस्त्यागमिमं प्रति ।

रामेणेदं विशुद्ध्यर्थं कृतं वै त्वद्धितैषिणा ॥ 35 

“विदेहनन्दिनि! तुम्हें इस त्याग को लेकर श्रीराम पर कुपित नहीं होना चाहिए; क्योंकि ये तुम्हारे हितैषी हैं और संसारमें तुम्हारी पवित्रता प्रकट करने के लिए ही इन्होंने ऐसा व्यवहार किया है ॥ 35 ॥

सुदुष्करमिदं पुत्रि तव चारित्रलक्षणम् ।

कृतं यत् तेऽन्यनारीणां यशो ह्यभिभविष्यति ॥ 36 

बेटी ! तुमने अपने विशुद्ध चरित्रको परिलक्षित कराने के लिए जो अग्नि प्रवेश रूप कार्य किया है, यह दूसरी स्त्रियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर है। तुम्हारा यह कर्म अन्य नारियोंके यश को ढक लेगा ॥ 36 ॥

न त्वं कामं समाधेया भर्तृशुश्रूषणं प्रति ।

अवश्यं तु मया वाच्यमेष ते दैवतं परम् ॥  37 ॥

पति-सेवा के सम्बन्ध में भले ही तुम्हें कोई उपदेश देने की आवश्यकता न हो; किंतु इतना तो

मुझे अवश्य बता देना चाहिए कि ये श्रीराम ही तुम्हारे सबसे बड़े देवता हैं “ ॥ 37 ॥

इति प्रतिसमादिश्य पुत्रौ सीतां च राघवः ।

इन्द्रलोकं विमानेन ययौ दशरथो नृपः ॥ 38 ॥

इस प्रकार दोनों पुत्रों और सीताको आदेश एवं उपदेश देकर रघुवंशी राजा दशरथ विमानके द्वारा इन्द्रलोक को चले गए ॥ 38 ॥

विमानमास्थाय महानुभावः श्रिया च संहृष्टतनुर्नृपोत्तमः ।

आमन्त्र्य पुत्रौ सह सीतया च जगाम देवप्रवरस्य लोकम् ॥ 39 ॥

नृपश्रेष्ठ महानुभाव दशरथ अद्भुत शोभा से सम्पन्न थे । उनका शरीर हर्ष से पुलकित हो रहा था । वे विमानपर बैठकर सीता सहित दोनों पुत्रोंसे विदा ले देवराज इन्द्र के लोक में चले गए।

अनुवादक

उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का लगभग समस्त हिन्दी अनुवाद गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण से लिया गया है। दो खण्डों में गीता प्रेस से प्रकशित इस ग्रन्थ का हिन्दी भाषान्तर पाण्डेय पं. राम नारायणदत्त शास्त्री ‘राम’ दवारा किया गया था। वह गीता प्रेस में काम करते थे। संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। जिन लोगों ने उन्हें काम करते देखा, वे बताते हैं कि शास्त्रीजी सबेरे नौ बजे से शाम पांच बजे तक बिना किसी शब्दकोश अर्थात डिक्शनरी के वह अनुवाद करते जाते थे। बाद में शास्त्रीजी वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय में साहित्याचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। अब इस विश्वविद्यालय को सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है।

(इस लेख के लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)