प्रदीप सिंह।
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पंद्रह जनवरी को अपने जन्म दिन पर घोषणा की कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। इसके साथ ही उन्होंने किसी तरह के गठबंधन की संभावना को खत्म कर दिया। राज्य के राजनीतिक दलों को यह समझने में सात दशक लग गए कि उत्तर भारत का यह अकेला राज्य है जहां बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के बावजूद गठबंधन की राजनीति कभी सफल नहीं हुई।

संविद सरकारों से शुरू हुआ गठबंधन का प्रयोग

उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति का पहला प्रयोग 1967 से 1971 के दौरान संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों के साथ शुरू हुआ जब कांग्रेस कमजोर हो रही थी और गैर कांग्रेसवाद की राजनीति जोर पकड़ रही थी। इस बीच 1969 में कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर विभाजन भी हो गया। उस समय जितने भी गठबंधन बने वे कांग्रेस से निकले लोगों के कारण ही बने। उस समय का समूचा विपक्ष उसमें शामिल हो गया। उसमें वाम, दक्षिण और मध्यमार्गी सब थे। सारे सिद्धांत ताक पर रखकर गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत को सबने गले लगा लिया। पर इस बेमेल गठबंधन को गैर कांग्रेसवाद का चुम्बक भी जोड़कर नहीं रख सका। नतीजा यह हुआ कि गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो पर चली नहीं।
चार साल, पांच मुख्यमंत्री
इस दौरान मुख्यमंत्री का पद म्यूजिकल चेयर के खेल की तरह चलता रहा। 14 मार्च, 1967 से तीन अप्रैल 1971 के बीच पांच मुख्यमंत्री बने। चंद्रभानु गुप्त और चौधरी चरण सिंह दो दो बार मुख्यमंत्री बने। पांचवीं बार त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने। कोई भी एक साल तक पद पर नहीं रह सका। हां, इसी बीच दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। ये तीनों ही नेता कांग्रेस से निकले हुए थे। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के नाम पर विपक्षी दलों ने इनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। मकसद एक ही था, कांग्रेस को कमजोर करना। अपनी ताकत बढ़ाना प्रथामिकता में नहीं था। कांग्रेस को कमजोर करने की इस कोशिश में कांग्रेस मजबूत हो गई। कांग्रेस में विभाजन के बावजूद इंदिरा गांधी को पूरे देश ने स्वीकार कर लिया। विपक्षी दलों की हालत नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली हो गई।
केवल अंकों का खेल नहीं चुनावी राजनीति
The house where it all happened...
साल 1971 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों ने कांग्रेस को पछाड़ने की आखिरी (उस समय तक) कोशिश की। सारे विपक्षी दलों ने मिलकर ग्रैंड एलायंस बनाया। सोच यह थी कि विपक्षी वोट बंटने से कांग्रेस को लाभ मिलता है। सब मिल जायं तो कांग्रेस को हरा सकते हैं। विपक्ष के बड़े बड़े दिग्गज नेता यह भूल गए कि चुनावी राजनीति केवल अंकों का खेल नहीं है। चुनाव का परिणाम आया तो इंदिरा कांग्रेस की शानदार जीत हुई। दिसम्बर, 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी दुर्गा बन गईं। सो साल 1972 के विधानसभाओं के चुनाव में विपक्ष को धूल फांकना पड़ा। गुजरात से शुरू हुआ नवनिर्माण आंदोलन बिहार पहुंचते पहुंचते जेपी आंदोलन बन गया। कांग्रेस के भ्रष्टाचार, किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए इंदिरा गांधी के देश में इमरजेंसी लगाने और लोगों के मौलिक अधिकार छीनने के धतकरम ने वह काम किया जो विपक्ष 1971 में नहीं कर पाया था। वामदलों को छोड़कर ज्यादातर विपक्षी दल एक हुए और जनता पार्टी बनी। उसका क्या हश्र हुआ यह इतिहास की बात है।
उत्तर भारत और उत्तर प्रदेश
Vishwanath Pratap Singh
पर यह तो राष्ट्रीय राजनीति की बात हुई। हम तो उत्तर प्रदेश की बात कर रहे हैं। यह अजीब सी बात है कि उत्तर भारत के दूसरे राज्यों बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और पूरब के पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में गठबंधन की सरकारें बनी और चलीं भी। लेकिन उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सरकारें बनीं तो पर चली नहीं। साल 1989 में एक बार फिर विपक्षी एकता के सूत्रधार बने कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह। विपक्षी एकता में उनकी अहमियत इस बात से समझिए कि जब जार्ज फर्नान्डीज से पूछा गया कि वीपी सिंह नहीं होते तो विपक्ष कैसे एक होता? जार्ज का जवाब था हमें एक वीपी सिंह गढ़ना पड़ता।
मुलायम, कांशी राम साथ आए
Election throwback: When Mulayam aligned with Kanshiram, UP rejected the 'politics of Jai Shree Ram' | India.com
जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनी। पर न तो केंद्र की सरकार चली और न ही राज्य की। साल 1991 में फिर चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार हो कर कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। पर अयोध्या के विवादित ढ़ांचे के विध्वंस के बाद उसे बर्खास्त कर दिया गया। साल 1993 में विधानसभा के चुनाव  हुए तो समाजवादी पार्टी बन चुकी थी। उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव को कारसेवकों पर गोली चलवाने के कारण उस समय तक मुल्ला मुलायम का खिताब मिल चुका था। खिताब भाजपा ने दिया था लेकिन मुलायम को इस पर कोई ऐतराज नहीं था। उन्होंने बसपा प्रमुख कांशी राम के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा। सामाजिक आधार की दृष्टि से मजबूत इस गठबंधन को बहुमत तो नहीं मिला पर जनता दल के समर्थन से सरकार बनी।
गेस्ट हाउस कांड के बाद
Sonia Gandhi's Hongi Hug Swings 2019 Spotlight on Mayawati vs Modi
उत्तर प्रदेश की राजनीति के पानी ने फिर जोर मारा। गेस्ट हाउस कांड के साथ ही यह गठबंधन 1995 में टूट गया। गेस्ट हाउस कांड में सपाइयों से मायावती की जान बचाई भाजपा के ब्रह्म दत्त द्विवेदी ने। इसकी वजह से बसपा और भाजपा नजदीक आ गए। भाजपा ने राज्य में पहली दलित महिला को मुख्यमंत्री बनवाने का श्रेय लेने के लिए मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उस सरकार को सपा के अलावा कांग्रेस सहित सभी दलों का समर्थन था। पर सरकार को न चलना था और न चली। साल 1996 में फिर से विधानसभा के चुनाव हुए। इस बार बारी कांग्रेस और बसपा के साथ आने की थी। उस समय  पीवी नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री थे। उन्हें 1996 के लोकसभा चुनावों के लिए बसपा और कांशी राम की मदद की जरूरत थी। सौदे में उन्होंने कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई को बसपा के यहां गिरवी रख दिया। तीन दशक से ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी को समझौते में विधानसभा की 425 सीटों में से 136 सीटें मिलीं। कांग्रेस के लिए वह सौदा बहुत बड़ा राजनीतिक गड्ढा साबित हुआ। वह आजतक उससे निकल नहीं पाई। निकट भविष्य में उसकी उम्मीद भी नहीं दिखती।
1997 से 2003 के बीच
Kalyan, Rajnath ready to vacate bungalows; MSY staff refuse to receive notice | Hindustan Times
विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी भाजपा सरकार नहीं बना पाई और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। मार्च,1997 में एक बार फिर भाजपा और बसपा में गठबंधन बना। उसके बाद 2002 के विधानसभा चुनाव में भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला। सपा सबसे बड़ी पार्टी बनी पर सरकार नहीं बना पाई। साल 1997 से 2003 के बीच बसपा और भाजपा के बीच मुख्यमंत्री अदला बदली का खेल संविद सरकारों के दौर की याद दिलाने वाला था। इस बीच छह मुख्यमंत्री बने। मायावती और कल्याण सिंह दो दो बार और राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह। मायावती भाजपा का सबंध टूटा तो सपा और भाजपा का परोक्ष संबंध बना। भाजपा ने न केवल मायावती की सरकार गिरा दी बल्कि मुलायम सिंह यादव की बसपा को तोड़ने में मदद भी की।
सपा-कांग्रेस समझौते का हश्र
Uttar Pradesh Elections 2017: Rahul Gandhi And I Like Two Wheels Of A Cycle, Says Akhilesh Yadav
इतना सब कुछ होने पर भी राजनीतिक दलों ने तो कोई सबक नहीं सीखा लेकिन मतदाता ने सीख लिया। साल 2007 के विधानसभा चुनाव से उत्तर प्रदेश के मतदाता ने राज्य में गठबंधन की राजनीति की गुंजाइश ही खत्म कर दी। तब से तीन चुनावों में जिसको दिया पूरा बहुमत दिया। पर आदत इतनी जल्दी कहां जाती है। अखिलेश यादव ने 2017 में कांग्रेस से समझौता कर लिया। उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने बहुत मना किया पर अखिलेश यादव सत्ता के नशे में थे। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि शिवपाल यादव से झगड़े में पार्टी का चुनाव चिन्ह खतरे में पड़ा और सपा रणनीतिकारों ने नये चुनाव चिन्ह पर चर्चा शुरू की तो अखिलेश यादव ने कहा कि मेरे फोटो को चुनाव चिन्ह बनवा दो, लोग देखकर वोट करेंगे। चुनाव का नतीजा आया तो सपा और कांग्रेस दोनों अपने इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन किया।
राजनीतिक अस्थिरता का बीज
उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों ही समाजवादी राजनीति का बड़ा अखाड़ा रहे हैं। बिहार में गठबंधन की राजनीति चली लेकिन उत्तर प्रदेश में नहीं। संविद सरकारों के दौर में दोनों राज्यों में ज्यादा फर्क नहीं रहा। पर नब्बे के दशक में नीतीश कुमार ने लालू यादव का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अलग हुए तो भाजपा ने उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हो पाया। मुलायम सिंह यादव ने बसपा के साथ प्रयोग किया पर असफल रहा। कल्याण सिंह भाजपा की बजाय किसी क्षेत्रीय दल के नेता होते तो शायद दोनों का गठबंधन बन जाता। पर यह बात इस मुद्दे का अति सरलीकरण जैसा लगता है। उत्तर प्रदेश में इस राजनीतिक अस्थिरता का बीज शायद कांग्रेस ने ही बोया। यह बहुत ही अजीब बात है कि तीन दशक से ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने अपने किसी मुख्यमंत्री को उसका निर्वाचित कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। किसी भी दल से निर्वाचित कार्यकाल पूरा करने वाली पहली मुख्यमंत्री बनीं मायावती।
Before Nitish decides on Tejashwi, a look at ever-changing equation between Bihar CM and Lalu - India News
वास्तविकता की स्वीकारोक्ति
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के मतादाताओं ने गठबंधन की राजनीति के प्रयोग से तौबा कर लिया है। राज्य की चारों प्रमुख पार्टियां भी सारे गठजोड़ आजमा चुकी हैं। अब उनके आपसी संबंध ऐसे नहीं है कि निकट भविष्य में वे फिर साथ आ सकें। इसलिए मायावती का बयान पिछले अनुभवों के सबक लेने के साथ वास्तविकता की स्वीकारोक्ति भी लगता है।