प्रदीप सिंह ।
अमित शाह, एक ऐसी शख्सियत जो पचास की उम्र से पहले ही देश की सबसे बड़ी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गया और साढ़े पांच साल में उसे दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। दुनिया के राजनीतिक इतिहास की यह बहुत बड़ी परिघटना है। चुनावी सफलता, संगठन विस्तार और पार्टी का भौगोलिक विस्तार सब कुछ साढ़े पांच सालों में। राजनीति में पद का मोह सबसे बड़ा होता है। पर बीस जनवरी को नये अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा से ज्यादा खुश अमित शाह ही नजर आ रहे थे। राजनीति में ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। इसकी तस्दीक उस समय मंच विराजमान चार दूसरे पूर्व अध्यक्षों से की जा सकती है।
तो अमित शाह की खासियत क्या है? सहज, पर सरल नहीं, दूरदृष्टि पर बारीकियों पर नजर, जीत पर जश्न से परहेज नहीं और हार पर दुख से गुरेज नहीं। वैचारिक निष्ठा अडिग, ईमानदारी रणनीति नहीं स्वभाव है। आशावादी पर यथार्थ से गहारा नाता। सामाजिक समझ और संवेदनशीलता। खुद जल्दी हां करते नहीं और नहीं किसी की ना (प्रधानमंत्री के अलावा) सुनते नहीं। सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें हमेशा पता होता है कि क्या करना है और क्यों करना है। साल 2013 में उत्तर प्रदेश का प्रभार मिलने से पहले उन्हें गुजरात से बाहर कम ही लोग जानते थे। पर 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए उत्तर प्रदेश में अपनी पहली बैठक में जब उन्होंने कहा कि मुझे सीट जिताने वाले नहीं बूथ जिताने वाले चाहिए तो उत्तर प्रदेश के नेताओँ को जोर का झटका जोर से ही लगा। उसी दिन संगठन के लोगों को लग गया कि भाजपा बदलने वाली है।
अमित शाह के साढ़े पांच साल के कार्यकाल का आंकलन करते समय यह बात जरूर में ध्यान में रखना चाहिए कि वे सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। प्रधानमंत्री ने भी इसका जिक्र करते हुए कहा कि सत्ता में आने पर दल और सरकार के बीच की महीन रेखा को बचाए रखना कठिन होता है। जो उन्होंने नहीं कहा कि 1998 से 2004 के बीच यह रेखा मिट गई थी। अमित शाह ने उस विभाजक रेखा ने केवल बनाए रखा बल्कि और गाढ़ा किया। सत्ता में रहने वाले दल इस बात से सहमत होंगे कि सत्ता में रहते हुए पार्टी को बढ़ाना कितना कठिन होता है। क्योंकि दलों का विस्तार अमूमन आंदोलनों से होता है। दूसरी बात याद रखने की यह भी है कि अमित शाह को पार्टी किस हालत में मिली थी। पूर्वोत्तर के राज्यों, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में पार्टी का जनाधार बढ़ाने की कोशिश पिछले पैंसठ साल से हो रही थी। पर नतीजे के नाम पर सिफर ही था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों का समर्थन सहयोग तब भी था। पर समर्थन और सहयोग किस तरह से, कब और कहां लेना है यह भी तो पता होना चाहिए।
संगठन में कार्यकर्ता अपने नेता की ओर देखता है। उसके आचार-व्यवहार और कामकाज के तरीके से तय करता है कितना काम करना है। जब नेता आराम पंसद हो जाय तो कार्यकर्ता को आराम तलब होने में देर नहीं लगती। पर जब राष्ट्रीय अध्यक्ष बूथ कार्यकर्ता के घर जाए, साथ बैठकर खाना खाए तो कार्यकर्ता की छाती चौड़ी हो जाती है। फिर वह काम करने नहीं जान देने के लिए तैयार हो जाता है। अमित शाह ने यही किया। वरना असम और त्रिपुरा सहित पूरे पूर्वोत्तर में भाजपा को अचानक नम्बर एक बना देना। जिस त्रिपुरा में कभी एक विधायक नहीं रहा वहां बहुमत की सरकार बन जाय़। जिस महाराष्ट्र में भाजपा चौथे और हरियाणा में तीसरे नम्बर की पार्टी थी उसे नम्बर एक बना देना और फिर दूसरे चुनाव में उसे कायम रखना यह मामूली बात नहीं है।
अमित शाह के कार्यकाल के आंकलन के लिए थोड़ा अतीत की ओर नजर घुमाना भी जरूरी है। सोमवार को मंच पर पार्टी के पुरोधा लाल कृष्ण आडवाणी भी आसीन थे। उनकी याददाश्त साथ दे रही हो तो उन्हें याद होगा कि 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह दिन की सरकार गिरने के बाद उन्होंने क्या कहा था। आडवाणी ने कहा कि था कि ‘विचारधारा पर आधारित पार्टियों के विकास की एक सीमा होती है। भाजपा उस सीमा तक पहुंच गई है।‘ इसके बाद ही तय हुआ कि पार्टी अपने कोर मुद्दों से समझौता करेगी। संघ भी इससे मन या बेमन से सहमत हो गया। सत्ता में आने के लिए पार्टी ने अपने तीन मुख्य मुद्दों अयोध्या में राम मंदिर, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता को ठंडे बस्ते में डाल दिया। उसके बाद ही उसे सत्ता मिली। इसके अलावा भी भाजपा अपने वैचारिक मुद्दों पर बोलने की बजाय, आडवाणी जी के शब्दों में छद्म धर्मनिरपेक्ष दल की तरह बोलने लगी। नतीजा यह हुआ कि विचारधारा में पगा भाजपा का कार्यकर्ता और संघ का स्वयंसेवक घर बैठ गया। उसका परिणाम 2004 और 2009 में दिखा। इस पृष्ठ भूमि में अपने कोर वैचारिक एजेंडे पर आक्रामक होकर पार्टी का विस्तार करके अमित शाह ने इस मिथक को तोड़ दिया।
साढ़े पांच साल पहले उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने का अवसर मिलातो उन्होंने इस मौके को दोनों हाथों से पकड़ लिया। इस अवसर को चुनौती की तरह लिया। काम किया ही नहीं काम करवाया भी। उन्होंने राजनीति में नैनो टेक्नालॉजी का इस्तेमाल किया। य़ानी लोगों को छोटी छोटी जिम्मेदारियां सौंपी। काम सौंप कर निश्चिंत नहीं हो गए। उसकी बराबर निगरानी भी की। 2019 का लोकसभा चुनाव उनके लिए यह अग्नि परीक्षा की तरह था जिससे वे कुंदन की तरह तप कर निकले। उन्होंने पार्टी को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी तो बनाया ही। साथ ही भाजपा को अमित शाह के रूप में एक राष्ट्रीय नेता दे भी दिया। सिर्फ साढ़े पांच साल में वंशवाद के बिना कोई राष्ट्रीय नेता तैयार हो जाय, भारतीय राजनीति में तो ऐसा उदाहरण नहीं है।
एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अमित शाह के परिश्रम,(प्रधानमंत्री के शब्दों में परिश्रम की पराकाष्ठा) निष्ठा, वैचारिक दृढ़ता, सहज बुद्धि और तीव्र गति से फैसला लेने की क्षमता के साथ साथ मोदी की लोकप्रियता, अद्भुत सम्प्रेषणीयता और लोगों के विश्वास की पराकाष्ठा का योगदान कम नहीं है। अमित शाह के तप मेंमोदी का सहयोग प्राणवायु की तरह लगातार प्रवाहमान रहा। इस सबके बावजूद इच्छा, लक्ष्य और योजना को जमीन पर उतारने का काम अमित शाह ने किया। उनकी उम्र और राष्ट्रीय राजनीति में उनके अनुभव को देखते हुए यह उपलब्धि और बड़ी लगती है। और समकालीन राजनीति में उनके विरोध पक्ष के नेताओं की क्षमता पर नजर डालें तो अमित शाह आपको महामानव नजर आएंगे।
उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष के अपने कार्यकाल में इतनी बड़ी लकीर खींच दी है जिसे बड़ा करना असंभव न हो तो भी बहुत कठिन तो है ही। हालांकि बड़ी लकीर तो उन्होंने देख के गृह मंत्री के रूप में भी खींच दी है लेकिन उसकी बात फिर कभी। नये अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के सामने इस लकीर को बड़ा करने की नहीं उसे बरकरार रखने की चुनौती है।
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