apka akhbarप्रदीप सिंह

भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का ढ़ाई दशक से ज्यादा पुराना गठबंधन टूट की कगार पर है। दोनों तरफ से तलवारे खिंच चुकी हैं। बात अब आर पार की लड़ाई की हो रही है। अभी तक शिवसेना लगातार हमला कर रही थी और भाजपा चुप थी। अब भाजपा ने पलटवार किया है। इस आक्रमण की अगुआई खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने संभाली है। अमित शाह ने कहा है कि जो हमारे साथ रहेगा उसे जिताएंगे और जो खिलाफ जाएगा उसे हराएंगे। इसके साथ ही उन्होंने पार्टी की राज्य इकाई से कहा कि वह अकेले लड़ने के लिए तैयार रहे।


 

शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की राजनीतिक सूझबूझ की उपज है। जब शिवसेना का मराठी मानुष का आंदोलन ठंडा पड़ा और उसने हिंदुत्व का रुख किया तो प्रमोद महाजन ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और स्वर्गीय वाल ठाकरे के समाने प्रस्ताव रखा कि हिंदुत्व विचारधारा वाली दोनों पार्टियों को साथ मिलकर चलना चाहिए। दोनों ने पहली बार 1995 में सरकार बनाई। गठबंधन के प्रारम्भ से ही एक बात साफ थी कि शिवसेना बड़ी पार्टी और भाजपा छोटी। यह सिलसिला चलता रहा। प्रमोद महाजन के रहते ही नितिन गडकरी और प्रदेश भाजपा के कुछ नेताओं ने इसे तोड़ने का प्रयास किया। महाजन के निधन के बाद यह जिम्मेदारी गोपीनाथ मुंडे ने संभाली। पर 2004 में केंद्र और राज्य से सत्ता के बाहर होने के बाद दोनों दलों के मतभेद बढ़ने लगे।

विधानसभा चुनाव के लिए शिवसेना की शर्त अब भी वही है, जो 2014 में थी। एक नई शर्त यह जुड़ी है कि यदि गठबंधन में चुनाव लड़ना है कि तो महाराष्ट्र विधानसभा भंग की जाय और लोकसभा के साथ ही उसके चुनाव हों। जिससे लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के मुकरने की कोई गुंजाइश ही न रहे। भाजपा अभी तक दोनों शर्तें मानने को तैयार नहीं है। इसके बावजूद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मानता है कि साथ चुनाव लड़ने में फायदा है। वोटों का बंटवारा न होने के अलावा इसका बड़ा कारण यह है कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले वह नहीं चाहती कि यह धारणा बलवती हो कि उसके सहयोगी दल उसे छोड़कर जा रहे हैं।

शिवसेना को नरेन्द्र मोदी कभी पसंद नहीं आए। साल 2013 में जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मुद्दे पर चर्चा चल रही थी तो सेना ने अपनी ओर से सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ाया दिया। बाल ठाकरे की मौत के बाद सेना को उम्मीद थी कि उन्हें वही रुतबा और सम्मान मिलेगा जो बाल ठाकरे को हासिल था। पर वैसा हुआ नहीं। इसी तल्खी के बीच दोनों ने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और बड़ी कामयाबी हासिल की। लोकसभा में भाजपा का स्ट्राइक रेट बेहतर था। विधानसभा चुनाव में सेना की दो शर्तें थीं। हमेशा की तरह सीट भाजपा से ज्यादाचाहिए और सीट कोई भी पार्टी ज्यादा जीते लेकिन मुख्यमंत्री सेना का ही होगा। भाजपा ने इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया और गठबंधन टूट गया। अकेले लड़कर भाजपा राज्य की चौथे नम्बर की पार्टी से सबसे बड़ी ( 122 विधानसभा सीटें) पार्टी बनकर उभरी। तब से आजतक उद्धव ठाकरे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि शिवसेना गठबंधन की जूनियर पार्टनर है। वह केंद्र, राज्य और मुंबई नगर निगम में भाजपा के साथ सत्ता में है। पर रोज भाजपा को गाली देते है। पिछले साढ़े चार साल से शिवसेना सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों की भूमिका एक साथ निभा रही है। इतना ही नहीं वह प्रधानमंत्री पर निजी हमले के मामले कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों से भी कई बार आगे निकल जाती है।

सवाल है कि तीनों जगहों पर सत्ता में साझीदार होने के बावजूद शिवसेना ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है। पहली वजह तो यही है कि वह अब भी भाजपा को बड़ा भाई मामने को तैयार नहीं है। दूसरा कारण आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सीटों की दावेदारी का दबाव बनाने की पेशबंदी है। विधानसभा चुनाव के लिए शिवसेना की शर्त अब भी वही है, जो 2014 में थी। एक नई शर्त यह जुड़ी है कि यदि गठबंधन में चुनाव लड़ना है कि तो महाराष्ट्र विधानसभा भंग की जाय और लोकसभा के साथ ही उसके चुनाव हों। जिससे लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के मुकरने की कोई गुंजाइश ही न रहे। भाजपा अभी तक दोनों शर्तें मानने को तैयार नहीं है। इसके बावजूद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मानता है कि साथ चुनाव लड़ने में फायदा है। वोटों का बंटवारा न होने के अलावा इसका बड़ा कारण यह है कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले वह नहीं चाहती कि यह धारणा बलवती हो कि उसके सहयोगी दल उसे छोड़कर जा रहे हैं।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अमित शाह ने शिवसेना के प्रति ऐसा आक्रामक रुख क्यों अपनाया?करीब दो ढ़ाई महीने पहले उद्धव ठाकरे ने सेना के लोकसभा सदस्यों और वरिष्ठ नेताओं की बैठक बुलाई। बैठक में उन्होंने कहा कि भाजपा से गठबंधन तोड़कर हमें अकेले चुनाव लड़ना चाहिए। उनके इस प्रस्ताव का सबसे पुरजोर समर्थन राज्यसभा सदस्य संजय राउत ने किया। पर लोकसभा के ज्यादातर सदस्यों का कहना था कि यदि पार्टी अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला करती है तो वे इस बार चुनाव नहीं लड़ना चाहेंगे। यह बात अमित शाह को पता है। पर सवाल है कि यह तो थोड़ी पुरानी बात है। फिर इस समय आक्रमण का क्या औचित्य है। विभिन्न समाचार चैनलों और भाजपा के अंदरूनी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट बता रही है कि महाराष्ट्र में भाजपा अकेले लड़ी तो गठबंधन की तुलना में बेहतर करेगी। पर इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि शिवसेना की अलोकप्रियता बढ़ती जा रही है। वह पिछले साढ़े चार साल जो नकारात्मक राजनीति कर रही है, उसका उसे नुक्सान हो रहा है। भाजपा को लग रहा है कि शिवसेना अब बोझ बन गई है। साथ ही उसे अब राज्य सरकार के गिरने का भी डर नहीं रह गया है। शिवसेना को झटका देने के लिए हो सकता है भाजपा न केवल गठबंधन तोड़ दे बल्कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने का फैसला कर ले।

सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे जिस तरह रोज सामना अखबार के जरिए केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री को निजी तौर पर कोस रहे हैं उससे भाजपा की प्रदेश इकाई में भारी नाराजगी थी। अमित शाह का बयान शिवसेना के लिए तो था ही अपने कार्यकर्ताओं के लिए भी था। इसके अलावा भाजपा को पता है कि सेना की जीवन डोर मुंबई महानगर पालिका से जुड़ी हुई है। भाजपा से गठबंधन टूटते ही वह सत्ता के तीनों केंद्रों से बाहर हो जाएगी। भाजपा अब शिवसेना को अपनी शर्तों पर झुकाकर भी कोई गठबंधन करेगी या नहीं यह भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता।

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