प्रदीप सिंह ।
बिहार को राजनीति से और राजनीति को बिहार से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसे बिहार में आज राजनीति ही खतरे में है। राजनीति खतरे में यानी लोकतंत्र खतरे में। बिहार में प्रतिस्पर्धी राजनीति और राजनीतिक विरोध की सतत जलने वाली ज्वाला बुझ रही है। वैसे इस मामले में बिहार अकेला नहीं है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ता भोग चुकी बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी हाइबरनेशन में है। मेंढ़क छह महीने रहता है लेकिन ये साढ़े तीन साल से हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल बंद गली का आखिरी मकान बन गया है। जो शिकमी किराएदार(तेजस्वी यादव) के कब्जे में है। हैं तो और भी राज्य। पर राज्य को छोड़िए राष्ट्रीय स्तर पर हाल इससे भी बुरा है।
कांग्रेस कई साल से एक ही गियर में चल रही है, दूसरा गियर लगाना आता ही नहीं
एक कांग्रेस पार्टी है, जो पिछले कई साल से एक ही गियर में चल रही है। उसके ड्राइवर(नेहरू-गांधी परिवार) को दूसरा गियर लगाना आता ही नहीं। वामपंथी दल हैं जो कभी कहते थे कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। उनकी बंदूक ही खो गई है। वैसे भी वे डाक टिकट के आकार में पहुंच गए हैं। बाकी दलों का हाल यह है कि जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कहते हैं तब विरोधी दल वाला बैनर हटाकर सत्तारूढ़ दल के खेमे में ठंडी हवा लेने आ जाते हैं। काम खत्म होते ही विरोधी दल का बैनर फिर तन जाता है। तुम्हारी भी जय, हमारी भी जय जय। आजकल विपक्षी दलों और नेताओं की सक्रियता दो जगह दिखती है। एक, ट्विटर पर और दूसरे चुनाव के समय। चुनाव आ गया है। पर कोरोना ने सुविधा दे दी है कि चुनाव भी सोशल मीडिया से ही लड़ सकते हैं। इसलिए ज्यादा कष्ट नहीं है।
किसी भी राज्य में और खासतौर से बिहार में पहली बार हो रहा है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनाव हारने का कोई डर नहीं है। समस्या केवल सीटों के बंटवारे के फार्मूले की है। सत्ता के बंटवारे का फार्मूला तो तय है। इसलिए सीट बंटवारे का फार्मूला प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। अब मानकर चलने में कोई हर्ज नहीं है कि जो काम तरुण गोगोई, शीला दीक्षित, डा रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान नहीं कर पाए, वह नीतीश कुमार कर सकते हैं। उनकी तुलना अब आगे ज्योति बसु से ही होगी। नीतीश कुमार के इस विजय रथ को भाजपा ही रोक सकती है। पर भाजपा बिहार नहीं पश्चिमबंगाल, असम और केरल की तरफ देख रही है। उस बड़ी लड़ाई के लिए वह बिहार की छोटी लड़ाई नीतीश कुमार से हारने के लिए तैयार बैठी है।
नीतीश का सुशासन और राजनीतिक नैतिकता का आभामंडल क्षीण हो गया, वह चिंतित नहीं हैं
बात बिहार की हो रही है तो नीतीश कुमार का चर्चा के केंद्र में होना लाजिमी है। नीतीश कुमार अपने अतीत की छाया भर रह गए हैं। उनका सुशासन और राजनीतिक नैतिकता का आभामंडल क्षीण हो गया है। पर चिंतित नहीं हैं। क्योंकि- कवन बात क डर बा, अब त मोदी जी क संग बा। उनके लिए यह महज नारा नहीं है। यह उनके जीवन की साधना का निचोड़ है। इसमें एक ही शर्त है कि बिहार के राजा वही रहें। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को कालपात्र में गाड़ दिया है। उससे क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा की आग और प्रबल हो गई है।
वे बिहार की जनता को भी समझ गए हैं। भाजपा, बिहार वासियों को लालू यादव के जंगल राज का डर नहीं दिखा पाती। पर नीतीश जी इस विधा के कुशल कलाकार हैं। पंद्रह साल राज करने के बाद भी लालू का डर दिखाने की उनकी क्षमता अक्ष्क्षुण है। उन्होंने समझ लिया है कि बिहार में विकास का झमेला पालने की बजाय विकास के वादे से ही काम चल जाता है। आखिर अनुभव भी कोई चीज होती है। उनके लिए राजनीतिक खतरा सिर्फ भाजपा हो सकती है। भाजपा से भी निपटने का फार्मूला उन्होंने खोज लिया है। भाजपा नेताओं के मन में यह डर बिठा दिया है कि उनकी नहीं चली तो ‘जंगल राज’ से हाथ मिला लेंगे। अब यह सही है या गलत पता नहीं। पर भाजपाई इस आशंका से डरे तो रहते हैं।
बिहार में भाजपा डरी हुई है
बिहार में भाजपा डरी हुई है। इसलिए नहीं कि उसके सामने कोई खतरा है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की चुनाव में जीत और फिर से सरकार बनवानेमें सबसे ज्यादा मदद और मेहनत तो तेजस्वी यादव ही कर रहे हैं। तेजस्वी को लगता है कि माता पिता की धनसम्पदा की ही तरह पार्टी भी उनकी पैतृक सम्पत्ति है। इसलिए वे उसे दोनों हाथों से लुटा रहे हैं। पिताजी जेल में हैं और माता जी रसोई में चली गई हैं। राजद के परम्परागत मतदाता, यादव और मुसलमान की बड़ी दुविधा में हैं। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह करे तो करे क्या। नया पुल बनाया नहीं और पुराना कब ढह जाएगा कहना मुश्किल है। वैसे भी बिहार में आजकल पुल नदी पर बना हो या राजनीति में बड़ी जल्दी-जल्दी गिर रहे हैं।
किसी भी राज्य में और खासतौर से बिहार में पहली बार हो रहा है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनाव हारने का कोई डर नहीं है। समस्या केवल सीटों के बंटवारे के फार्मूले की है। सत्ता के बंटवारे का फार्मूला तो तय है। इसलिए सीट बंटवारे का फार्मूला प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। अब मानकर चलने में कोई हर्ज नहीं है कि जो काम तरुण गोगोई, शीला दीक्षित, डा रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान नहीं कर पाए, वह नीतीश कुमार कर सकते हैं। उनकी तुलना अब आगे ज्योति बसु से ही होगी। नीतीश कुमार के इस विजय रथ को भाजपा ही रोक सकती है। पर भाजपा बिहार नहीं पश्चिमबंगाल, असम और केरल की तरफ देख रही है। उस बड़ी लड़ाई के लिए वह बिहार की छोटी लड़ाई नीतीश कुमार से हारने के लिए तैयार बैठी है।
नीतीश कुमार के विजय रथ को भाजपा ही रोक सकती है
बात केवल इतनी ही नहीं है। बिहार में भाजपा की समस्याएं और भी हैं। उसकी राज्य इकाई नीतीश कुमार की बगलबच्चा बन गई है। बारह साल उप मुख्यमंत्री रहने के बावजूद सुशील मोदी नेता नहीं बन पाए। इसमें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का चौबीस साला योगदान है। राज्य भाजपा के किसी नेता को नीतीश कुमार के सामने खड़ा होने ही नहीं दिया। सारे मामले नीतीश कुमार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच तय होते रहे। आपसी विवाद होने पर राज्य इकाई के अस्तित्व को ही पार्टी नकारती रही। सो बिहार भाजपा नीतीश कुमार के सामने दंडवत हो गई।
भाजपा की दूसरी समस्या है, साल 2015 के विधानसभा चुनाव की हार। अकेले लड़कर हारने का दर्द अभी गया नहीं है। उसी दर्द को याद करके पार्टी ने लोकसभा में जदयू को बराबर सीटें दे दीं। सीट बंटवारे में भाजपा को ज्यादा सीटें लेने की बात करने वालों से कहा गया कि यह मत भूलिए कि 2014 के बाद हम 2015 का चुनाव हारे भी हैं। क्या इसी तर्क से इस बार भाजपा को ज्यादा सीट नहीं लेना चाहिए। क्योंकि 2015 के बाद 2019 में एक चुनाव वह शानदार तरीके से जीती भी है। पर ऐसा कुछ होना नहीं है। बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में दोयम दर्जे की पार्टी बनी रहने के लिए भाजपा अभिशप्त है।कमजोर नीतीश कुमार और आत्मविश्वास की कमजोरी का शिकार बिहार भाजपा मिलकर बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत हैं। यह खुश होने की बात या दुखी होने की, आप तय करें।
इन दिनों फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेयी का गाया एक गीत- ‘बम्बई में का बा’ बड़ा लोकप्रिय हो रहा है। उसी तर्ज पर कहें तो बिहार में का बा, लालू के जंगल राज क अबहिंयो डर बा, नीतीश के विकास क भरम बा। बिहार में का बा,भाजपा के मन में कमजोरी क भरम बा। बिहार में का बा, विपक्ष खतम बा। बिहार में का बा,मतदाता क मरन बा।
Video Courtesy: T Series