apka akhbarप्रदीप सिंह ।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को हारना था और वह हार गई। पर सवाल है कि उसकी हार के कारण क्या हैं। साथ ही कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्योंकि दिल्ली में भाजपा की यह लगातार छठी हार है।दो दशक से हारते जाने का मतलब है कि दिल्ली भाजपा में कुछ बुनियादी खामी है। पर इस हार से ब्रैंड अमित शाह को नुक्सान हुआ है।


 

पहले बात ताजा चुनाव की करते हैं। भाजपा की हार के कारणों की पड़ताल करें तो पांच बातें ऊभरकर आती हैं। एक, पार्टी की चुनावी रणनीति को अरविंद केजरीवाल ने फेल कर दिया। दूसरा, संगठन की अक्षमता। तीसरा, बाहरी नेताओं/कार्यकर्ताओं पर भरोसा। चौथा, आम आदमी पार्टी की सरकार की खामियों को उजागर करने में नाकामी। पाचवां, परसेप्शन की लड़ाई हार जाना।

भाजपा की चुनावी रणनीति कैसे फेल हुई? पार्टी ने एक मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया। वह मुद्दा था शाहीनबाग में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुस्लिम औरतों का धरना। भाजपा को इसमें अवसर नजर आया। एक, इसके जरिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा सकता है। दूसरे, इस धरने के कारण सड़क बंद होने से जिन करीब पच्चीस-तीस लाख लोगों को रोज परेशानी हो रही है, उनका गुस्सा।दोनों उल्टा पड़ा। सड़क बंद होने से लोगों में गुस्सा तो था लेकिन वे समझ गए कि केंद्र सरकार यानी भाजपा जानबूझ कर धरने पर बैठे लोगों को नहीं हटा रही है। लोग कहने भी लगे थे जिस सरकार को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने में दर नहीं लगी, उसके लिए धरने पर बैठे लोगों को हटाना कौन सा मुश्किल काम है। इसलिए ये नाराज लोग या तो वोट देने नहीं गए और जो गए उन्होंने भाजपा के खिलाफ वोट दिया।

शाहीनबाग के मुद्दे पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए जरूरी था कि इसमें अरविंद केजरीवाल कूदें। पर भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद केजरीवाल ने शाहीन बाग जाना तो दूर इस मुद्दे पर कुछ बोला ही नहीं। इतना ही नहीं वे खुलकर सीएए के खिलाफ भी नहीं बोले। अनुच्छेद 370 और तीन तलाक पर तो केजरीवाल ने मोदी सरकार का साथ दिया। भाजपा ने केजरीवाल को तमाम तरह से घेरने की कोशिश की कि वे शाहीनबाग के मुद्दे पर खुलकर सामने आएं। इसका नतीजा यह हुआ कि ध्रुवीकरण न होता देख भाजपा की हताशा बढ़ने लगी। ऐसे में उसके नेता भारत-पाकिस्तान, गद्दारों को गोली मारने, आतंकवादी और न जाने क्या बोलने लगे। इससे फायदा होने की बजाय नुक्सान हुआ। जब भी किसी लोकप्रिय नेता पर व्यक्तिगत आक्रमण होता है तो आक्रमण करने वाले को नुक्सान होता है। यह बात भाजपा से बेहतर कौन समझ सकता है। मोदी को उनके विरोधियों ने जितनी गाली दी मोदी को उतना ही फायदा हुआ। यह जानते हुए भी भाजपा ने केजरीवाल पर निजी हमले क्यों किए यह समझ से परे है।

भाजपा की विचारधारा से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। पार्टी को पता है कि दिल्ली में कांग्रेस के समय से ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है झुग्गी झोपड़ी के वोटरों में जनाधार न होना। कांग्रेस का वह जनाधार केजरीवाल ले गए। उसमें सेंध लगाने के लिए भाजपा ने पिछले पांच साल में कोई प्रयास नहीं किया। इसके बावजूद कि मोदी-शाह के युग में शहरी गरीबों में भाजपा का वोट काफी बढ़ा है। पर दिल्ली में वह नौ दिन में अढ़ाई कोस भी नहीं चल पाई। चुनाव के समय झुग्गी-झोपड़ी पर्यटन से न कुछ होना था और न हुआ।

दिल्ली में भाजपा का संगठन उसकी पुरानी दुखती रग है। यहां नेता अपने राजनीतिक विरोधियों से ज्यादा अपने लोगों से लड़ते हैं। एक विधानसभा सीट जीतने की जिनकी हैसियत नहीं है उनका मुगालता आसमान छूने वाला है। साल 2015 में हार के बाद भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा। अगले चुनाव की कोई तैयारी नहीं की। अक्षम सतीश उपाध्याय की जगह प्रदेश की बागडोर मनोज तिवारी को सौंप दी। उन्हीं मनोज तिवारी को जिन्हें राजनीति में अमर सिंह लाए और गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़वाया। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि वे दूसरी पार्टी से आए हैं। उनका राजनीति में योगदान शून्य है। भाजपा की विचारधारा से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। पार्टी को पता है कि दिल्ली में कांग्रेस के समय से ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है झुग्गी झोपड़ी के वोटरों में जनाधार न होना। कांग्रेस का वह जनाधार केजरीवाल ले गए। उसमें सेंध लगाने के लिए भाजपा ने पिछले पांच साल में कोई प्रयास नहीं किया। इसके बावजूद कि मोदी-शाह के युग में शहरी गरीबों में भाजपा का वोट काफी बढ़ा है। पर दिल्ली में वह नौ दिन में अढ़ाई कोस भी नहीं चल पाई। चुनाव के समय झुग्गी-झोपड़ी पर्यटन से न कुछ होना था और न हुआ।

प्रदेश के बाहर के नेताओं की चुनाव के समय भीड़ जुटाने का 2015 में दिल्ली और बिहार दोनों जगह नुक्सान हुआ और पार्टी ने यह नीति बदली। पर इस बार दिल्ली में वही गलती दोहराई। बाहर से लोग आते हैं तो स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय हो जाता है। यह जानते हुए भी पार्टी ने ऐसा किया। इन बाहरी लोगों के भरोसे पंद्रह दिन में चुनाव पलट देने की अमित शाह की रणनीति फेल हो गई। जबकि अमित शाह खुद हीकहते हैं कि आखिरी समय पर कोई चुनाव नहीं बदलता। मतदाता चुनाव से छह महीने पहले ही अपना मन बना लेता है कि किसे वोट देना है।

आम आदमी पार्टी ने आठ महीने पहले से अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी थी, जब मुफ्त योजनाओं की घोषणा होने लगी। लोकसभा चुनाव बाद केजरीवाल ने हार से सबक लिया कि मोदी पर निजी हमले से नुक्सान हो रहा है। और उसके बाद मोदी पर निजी हमले छोड़िए, खिलाफ बोलने से भी बचने लगे। केजरीवाल सरकार ने इस बात का बड़ा प्रचार किया कि बजट का सत्ताइस फीसदी शिक्षा पर खर्च किया। पर इतने बड़े आवंटन से पांच साल में कोई नया स्कूल, कालेज नहीं खुला। छात्रों की संख्या घट गई और परीक्षा परिणाम पहले से खराब हो गए। फिर पैसे का किया क्या। तो पुराने स्कूलों में कुछ नए कमरे बनवाए, रंग रोगन किया, फर्नीचर और बच्चों की यूनीफार्म बदल दी। इसी तरह दूसरी योजनाओं की खामियों को लोगों तक पहुंचाने में भाजपा नाकाम रही।

भाजपा की पांचवीं खामी थी, केजरीवाल को मुसलिम समर्थक या हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश। जिसमें वह औंधे मुहं गिरी। केजरीवाल ने हनुमान चालीसा का पाठ करके नरम हिंदुस्तव का जो कार्ड खेला उससे भाजपा चित हो गई। वह इस मुद्दे पर केजरीवाल पर जितनी आक्रामक हुई उन्हें उतना ही फायदा मिला।

इस हार में भाजपा के लिए संतोष की एक ही बात है कि इसे उसके राष्ट्रवाद या हिंदुत्व के एजेंडे की हार के रूप में पेश करना उसके विरोधियों के लिए कठिन होगा। केजरीवाल ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वे भाजपा के इस एजेंडे के खिलाफ हैं। दरअसल केजरीवाल और उनकी पार्टी की कोई विचारधारा है ही नहीं। भाजपा के एजेंडे पर उनके मौन को स्वीकृति समझ लिया जाय तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। सात साल पहले जो केजरीवाल अपने को नास्तिक कहते थे, वे आज हनुमान भक्त हो गए। इससे भाजपा को तब तक चिंता नहीं होगी जब तक केजरीवाल अपने को दिल्ली तक सीमित रखते हैं।