अजय विद्युत।
नैमिषारण्य में कई तीर्थ हैं और आपने धर्म-संस्कृति में जो पौराणिक आख्यान सुने-पढ़े हैं, वे यहां जीवंत होते दीखते हैं।
हनुमान गढ़ी
चक्रतीर्थ से पंद्रह मिनट के पैदर रास्ते पर हनुमान गढ़ी है। यहां बहुत बड़े पत्थर पर गढ़ी गयी हनुमान जी की विशाल मूर्ति है। बताया जाता है कि रावण के कहने पर पाताल का राजा अहिरावण रामचंद्र जी और लक्षमण जी को पाताल चुरा कर ले गया था। तब पाताल लोक पहुँच कर अहिरावण पर विजय प्राप्त करके लौटते समय हनुमान जी ने सर्वप्रथम इसी स्थान पर विश्राम किया था।
हनुमान मंदिर के सामने ही श्री रामदरबार है जहाँ श्री राम ,लक्ष्मण और सीता जी की प्रतिमा हैं।
ललिता देवी मंदिर
यह बहुत प्राचीन मंदिर है। आचार्य संतोष दीक्षित ने बताया कि ब्रह्मा के आदेशानुसार देवासुर के संग्राम में असुरों के सर्वनाश के लिए इसी स्थान पर प्रकट हुईं थीं।
मंदिर के बाहर माता पर चढाने के लिए पुष्प, पुष्प मालाएं, प्रसाद, चुन्नी व अन्य चढ़ावे का सामान आदि से सजी हुई दुकानें हैं। पूरे नैमिष क्षेत्र के लोग ललिता देवी की आराधना से ही अपने सारे मंगल कार्य शुरू करते हैं और यह मानते हैं कि उन्हीं की कृपा से उनका पालन-पोषण हो पा रहा है।
वेदव्यास गद्दी
व्यास गद्दी गोमती नदी के तट पर है। यह चार वेद, छह शास्त्र, 18 पुराण, गीता, श्रीमद्भागवत, महाभारत और श्री सत्यनारायण कथा की उद्गम स्थली है। वेदव्यास जी ने यहीं पर उनकी रचना की। सत्यनारायण की कथा जो भारत में घर-घर कही-सुनी जाती है उसके प्रथम स्कंध की शुरुआत ही यहां से होती है- एकदा नैमिषारण्ये…
मनु-सतरूपा तपस्थल
इसके समीप ही मनु-सतरूपा का तपस्या स्थल है। पुरातन वट वृक्ष है जहां मनु-सतरूपा ने गोमती नदी में स्नान कर तेईस हजार वर्ष तक तपस्या करके मनु ने भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त होने का वरदान माँगा था।
राजा मनु और रानी सतरूपा के दो पुत्र और तीन कन्याएं थीं। पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपद तथा कन्याएं आकृति, देवहुति और प्रसूति। बाद में उन्होंने राजपाट का भार प्रियव्रत को सौंप दिया और तपस्या करने निकल पड़े। रामचरित मानस में बाल कांड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने साफ लिखा है-
बरबस राजसुतहिं नृप दीन्हा। नारि समेद गमन बन कीन्हा।।
तीरथ वर नैमिष विख्याता। अति पुनीत साधक सिधिदाता।।
तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ अति पुनीत नैमिषारण्य स्थान साधक को सिद्धि देने वाला है।
आगे उल्लेख है कि मनु-सतरूपा ने कई हजार साल तक यहां तपस्या की। पर यह तपस्या कुछ पाने की नहीं थी। तप केवल तप के लिए था। यह कठिन तप भी दोनों का आनंद बन चुका था। अविनाशी आनंद। तभी तो, उनकी कठिन तपस्या को देखकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश इस पृथ्वी पर कई बार पधारे और कहा कि वरदान मांगो, हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं। फिर भी वे अपनी तपस्या से नहीं डिगे।
कथा बताती है कि कई बार के अनुरोध के बाद भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप में बालक बनकर उनके पास आए और किसी प्रकार उनकी तपस्या पूर्ण कराई। फिर वर मांगने को कहा कि दोनों ने कुछ भी वर नहीं मांगा। भगवान के बहुत जोर देने पर मनु ने कहा कि आप बालक रूप में यहां आए हैं। हम यही चाहते हैं कि आगे आपके समान ही मेरा पुत्र हो। भगवान ने वर दे दिया किंतु कहा कि मैं अपने समान पुत्र खोजने कहां जाऊं। हमारे समान तो इस भूमण्डल पर कोई और नहीं है। मैं ही आपके यहां जन्म लूंगा।
इसके बाद भगवान से सतरूपा से कहा कि देवि, आप भी वरदान मांगें। इस पर सतरूपा ने कहा कि हमारे पति ने जो वरदान मांगा है, वही हमको भी अतिशय प्रिय है। फिर भगवान बोलते हैं- जब तुम अयोध्यापुरी के राजा दशरथ और तुम रानी कौशल्या होगी, तब मैं तुम्हारे यहां पुत्र के रूप में अवतार लूंगा।
यहां हमारे लिए यही सीख है कि फल की इच्छा के बिना की गई तपस्या सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि तब भगवान स्वयं सर्वश्रेष्ठ ही देने को आतुर हो जाते हैं। यह उनकी आनंददायक विवशता है।
दूसरी बात- हमें किसी से मांगते समय शालीनता का भी ध्यान रखना चाहिए। राजा मनु भगवान को भी पुत्ररूप में मांग सकते थे। लेकिन उन्होंने सोचा कि यह उचित नहीं होगा कि मैं अपने प्रभु को ही मांग लूं। तो उन्होंने भगवान समान पुत्र मांगा। और स्वयं भगवान ने स्वेच्छा से उनका पुत्र बनना स्वीकार किया।
सूतजी का स्थान
यही वह स्थान है जहां पर सूतजी ने शौनक जी समेत 88 सहस्र ऋषियों को अठारहों पुराणों की कथा सुनायी थी। यहां एक साधारण सा मंदिर है जिसमें सूतजी और भगवान कृष्ण, राधाजी तथा बलराम जी विराजमान हैं। यहां आकर आपको ऊर्जा का स्तर स्वयं ही अनुभव करा देता है कि मन के विचार धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं, एक शांति सी आ रही है।
दधीचि कुंड
चक्रतीर्थ से ग्यारह किलोमीटर की दूरी पर दधीची कुंड है। यहीं उन्होंने अपनी अस्थियां दान दी थीं।
वृत्तासुर राक्षस के वध के लिए वज्रायुध के निर्माण हेतु जब इन्द्रादि देवताओं और ऋषियों ने महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियों की मांग की तो उन्होंने कहा कि मेरी इच्छा है कि मैं सभी देवताओं, तीर्थों का दर्शन कर लूं और पवित्र सरोवरों में स्रान कर लूं। उसके बाद ही मैं शरीर छोड़ पाऊंगा।
ऋषियों ने कहा कि इसमें तो बहुत समय लग जाएगा और तब तक यह राक्षस ऋषियों और आमजन का काफी नुकसान कर चुका होगा। लेकिन दधीचि की इच्छा की पूर्ति भी आवश्यक थी। इसलिए सभी तीर्थों, देवताओं और पवित्र नदियों-सरोवरों को नैमिष आने का आमंत्रण दिया गया। वे सभी आ गए। एक सरोवर में सभी पवित्र तीर्थों के सरोवरों का जल मिलाया गया। अस्थिदान से पूर्व महर्षि दधीचि ने इस सरोवर में स्नान किया था। उसके बाद तीर्थों और देवताओं की दधीचि ने परिक्रमा की। सभी तीर्थों से पवित्र नदियों के जल को लाकर एक ही स्थान पर इसी मानसरोवर में मिलाया गया था, इसलिए यह स्थान मिश्रित या फिर मिश्रिख के नाम से जाना जाता है और फाल्गुनी पूर्णिमा को महर्षि ने परमार्थ में अपनी अस्थियाँ दान में दे दी!
दधीचि के देहदान की कहानी भी अद्भुत है। उन्होंने सरोवर में स्रान किया और शरीर पर दही-नमक लगाकर मांस-मांस गौओं को खिला दिया। जब हड्डियां शेष रह गर्इं तो उनका वज्र बना। (जारी)
एकदा नैमिषारण्ये 1 : भारतीय संस्कृति और ज्ञान की गंगोत्री
एकदा नैमिषारण्ये 3 : अश्वमेघ यज्ञ के लिए कहां गए थे श्रीराम : वाल्मीकि रामायण