प्रदीप सिंह
किसी भी पार्टी को भारी जनादेश मिले तो आमतौर पर विपक्ष करीब साल भर सरकार के प्रति आक्रामक नहीं होता। पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के बारे में भारतीय राजनीति के ये सामान्य सिद्धांत लागू नहीं होते। सिर्फ सात महीने पहले प्रचंड जनादेश लेकर आए मोदी का विरोध पहले दिन से शुरू हो गया। आखिर क्यों? मोदी से नफरत का सिलसिला तो अब दो दशक पुराना हो गया है। नई बात यह हुई है कि नफरत के साथ अब डर जुड़ गया है। मोदी की दूसरी जीत में विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस और उसके सहयोगियों को अब अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना कठिन नजर आ रहा है।
साल 2014 में मोदी जीते तो विपक्ष को लगा कि यह अनायास मिली सफलता है। किसी तरह पांच साल गुजारना है। पहले कार्यकाल में मोदी ने शासनात्मक काम ज्यादा किए। करीब सैंतीस करोड़ लोगों के जनधन खाते खुले, उसे मोबाइल और आधार से जोड़ा गया। सब्सिडी का पैसा सीधे लोगों के खाते में पहुंचने लगा और बिचौलिए साफ हो गए। प्रधानमंत्री आवास योजना में लोगों को घर मिले, मुफ्त गैस कनेक्शन, बिजली कनेक्शन और नौ करोड़ घरों में शौचालय बन गए। दस करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा और किसान सम्मान निधि की व्यवस्था हो गई। सरकार में शीर्ष स्तर का भ्रष्टाचार खत्म हो गया।
आर्थिक मोर्चे पर नोटबंदी से ईमानदारी से जीने और व्यापार करने के का संदेश दिया। जीएसटी से अप्रत्यक्ष कर का सबसे बड़ा सुधार किया। बेनामी सम्पत्ति का कानून, लुटेरे बिल्डरों से घर खरीददारों को बचाने के लिए रेरा का कानून बनाया। आईबीसी कानून लाकर बता दिया कि बैंक का पैसा लेकर डकारने वालों को अपनी कंपनी से हाथ धोना पड़ेगा। सत्तारूढ़ दल के नेता के फोन पर मिलने वाले हजारों करोड़ के कर्ज का सिलसिला खत्म किया। सरकारी बैंकों को डूबने से बचाया और उनका वित्तीय स्वास्थ्य सुधारा। आतंकवाद को जम्मू-कश्मीर तक सीमित कर दिया।
विपक्षी दलों को इन सब कामों से ज्यादा परेशानी नहीं थी। बल्कि व्यवस्था को सुधारने की वजह से जो व्यवधान आए उससे उपजी नाराजगी उनके लिए सुअवसर था।नोटबंदी के बाद विपक्ष को लगा गरीब नाराज हो जाएगा। उल्टा हो गया। फिर लगा जीएसटी से व्यापारी भाग जाएगा, नहीं भागा। इसके बावजूद मोदी के पाकिस्तान जाने और पीडीपी के साथ सरकार बनाने से बहुत से लोगों को लगने लगा कि यह सरकार भी वाजपेयी सरकार की ही तरह है। तीन राज्यों में भाजपा हारी तो विपक्ष को लगा कि 2019 में मोदी को पूरी तरह हरा नहीं पाए तो भी घायल तो कर ही देंगे। उस समय भाजपा के अंदर भी कई लोगों की उम्मीद का दिया भभकने लगा था। हालांकि अभी भी उम्मीद का दिया बुझा नहीं है।
लोकसभा चुनाव का नतीजा आया तो पूरा विपक्ष दुविधा में था। हिंदी में संदेह अलंकार पढ़ाया जाता है। उसके उदाहरण के रूप आपमें से बहुतों लोगों ने पढ़ा होगा कि- सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी (साड़ी) है, नारी ही की सारी है कि सारी ही की नारी है। इस संदेह की स्थिति से विपक्ष निकल पाता उससे पहले ही मोदी सरकार ने धड़ाधड़ विधायी कार्य शुरू कर दिए। जो समस्या दशकों पुरानी हो जाय उसके हल होने की उम्मीद खत्म हो जाती है। तीन तलाक हो या अयोध्या में राम मंदिर( शताब्दियों पुरानी) या जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए। इन सब मुद्दों को लोगों ने कोरा चुनावी आश्वासन मान लिया था।दूसरा कार्यकाल शुरु होते ही मोदी शाह की जोड़ी ने धड़ाधड़ ये सारे मुद्दे सुलझा दिए। वह भी संसद के जरिए। राज्यसभा में जहां भाजपा या एनडीए को साधारण बहुमत नहीं है वहां संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिल गया।
मोदी से विपक्ष का रिश्ता निराशा, नाराजगी और नफरत से होते हुए अब आक्रोश का रूप ले चुका है। पहले तीन विधायी फैसलों से विपक्ष संभल भी नहीं पाया था कि नागरिकता संशोधन कानून बन गया। पिछले तीन मुद्दों से उपजा आक्रोश नागरिकता कानून पर फूटा। विपक्ष ने पहले नोटबंदी को मोदी खिलाफ मुहिम के तौर इस्तेमाल करना चाहा और नाकाम रहा। फिर जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बनाया। वह भी नहीं चला तो राफेल में भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाने का असफल प्रयास किया। रोजगार और किसानों की समस्या उठायी पर दोनों वर्गों का वोट मोदी को गया। बात केवल मुद्दों तक सीमित नहीं रही। सामाजिक स्तर पर भी विपक्ष मात खाता जा रहा है। मायावती से असदुद्दीन ओवैसी और राहुल गांधी से सीताराम येचुरी तक सभी ने एक नया सामाजिक समीकरण गढ़ने का भरपूर प्रयास किया। प्रयास था, मुसलिम-दलित धुरी बनाने का। मोदी शाह के दांव से उल्टे बांस बरेली को लद गए। दलितों का एक बड़ा समूह मोदी का मुरीद हो गया। उसे मोदी में अपना भविष्य नजर आ रहा है।
दलित-मुसलिम धुरी नहीं बन पाने के गम से विपक्ष उबरा भी नहीं था कि लोकसभा चुनाव के नतीजों ने 2014 के लोकसभा और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के जनादेश के एक संदेश को एक बार फिर पुष्ट कर दिया। मुसलिम वोटों के वीटो को मोदी ने खत्म कर दिया। नागरिकता संशोधन कानून पर विपक्षी वितंडा उसी वीटो को बहाल करने की कोशिश है। पर मुश्किल यह है कि इस एक अनार के कई बीमार दावेदार हैं जो परस्पर विरोधी खेमे में खड़े हैं। समस्या यह है कि यह अनार जिसे मिल रहा है उसकी भी बीमारी ठीक नहीं हो पा रही है। सीएए का विरोध मुसलमानों को डरा कर अपने खेमे में बुलाने या बनाए रखने की पुरानी रणनीति का हिस्सा है। मुसलमान को डराकर अपने साथ रखो और मुसलमान के गुस्से का डर दिखाकर विरोधी को डराओ। वे भूल रहे हैं कि यह अटल- आडवाणी की नहीं मोदी-शाह की भाजपा है। यहां डरना मना है।
उसका असर यह हुआ है कि जिस उत्तर प्रदेश के हर जिले में किसी न किसी हिस्से में कुछ समय पहले तक पाकिस्तान का झंडा फहराया जाता था, वहां अब तिरंगा लहराता है और जनगणमन गाया जाता है। पहले ऐसा कब हुआ था कि पथराव आगजनी करने वाले आकर कहें कि यह लीजिए जुर्माना। आगे से ऐसी गलती नहीं होगी।यह मोदी और शाह का असर है। विपक्ष की हताशा बढ़ती जा रही है। उससे समझ में नहीं आ रहा कि बेरोजगारी, महंगाई बढ़ने और अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बावजूद लोग मोदी से नाराज क्यों नहीं हो रहे? कोढ़ में खाज यह है अभी तो दूसरा कार्यकाल शुरू ही हुआ है। साढ़े चार साल बाकी हैं। तो जो हो चुका है उससे भी ज्यादा जो होने वाला है उसका डर है। विपक्ष को कोई अंदाजा नहीं है कि सरकार का अगला कदम क्या होगा। कयास है कि शायद समान नागरिक संहिता पर विधेयक आए या फिर पाक अधिकृत कश्मीर में कोई बड़ी कार्रवाई हो।
विपक्ष का डर वास्तविक है। मोदी चुनाव जीतने के लिए कुछ नहीं कर रहे। जीत को स्थायी बनाने के लिए सामाजिक बदलाव ला रहे हैं। इस बदलाव का आयाम सार्वदेशिक है। इसलिए अभी मोदी का और विरोध होगा और उसी अनुपात में मोदी और मजबूत होंगे। विपक्ष की हताशा और बढ़ने वाली है।