मंत्रिमंडल विस्तार में डा. लोहिया का सामाजिक न्याय का सपना साकार किया मोदी ने।
प्रदीप सिंह।
राम मनोहर लोहिया- समाजवादी लेखक, चिंतक, राजनेता, अद्भुत सांसद… सामाजिक न्याय और सामाजिक शक्तियों को जगाने के लिए उन्होंने जितना काम किया किसी एक नेता ने उनके समय में शायद नहीं किया। उनके बहुत से शिष्य आज भी राजनीति में सक्रिय हैं। डा. लोहिया ने एक सपना देखा था और उसके आधार पर एक नारा दिया था- संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।
संसोपा यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जो डा. लोहिया की पार्टी थी। डा. लोहिया की पिछड़े की परिभाषा में केवल पिछड़ा वर्ग के ही लोग नहीं आते थे। उसमें पिछड़ा वर्ग की जातियां तो आती ही थीं- उसके अलावा दलित, आदिवासी और महिलाएं भी आती थीं। उनका मानना था कि इन सबको सत्ता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और दूसरी जगहों पर साठ फीसदी हिस्सा मिलना चाहिए। डा. लोहिया ने यह नारा तो दिया लेकिन अपने जीवन में उसको लागू नहीं करवा पाये। उनके कई शिष्य बाद में मुख्यमंत्री बने लेकिन वे भी इसे लागू नहीं करवा पाये। डा. लोहिया के उस नारे और सपने को साकार किया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने।
‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ से कहीं आगे…
बुधवार को हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में मंत्रिमंडल के कुल 78 सदस्यों में से 47 डा. लोहिया की परिभाषा के अनुसार पिछड़ा वर्ग से हैं। इसमें महिलाओं को जोड़ दें तो ये संख्या 50 के ऊपर जाती है। 27 मंत्री पिछड़ा वर्ग से हैं, 12 दलित समाज से हैं और 8 आदिवासी हैं। केंद्रीय स्तर पर इस प्रकार के मंत्रिमंडल की कल्पना भी किसी ने की होगी, मुझे नहीं लगता। कोशिश भी नहीं की… कर पाए, नहीं कर पाए वह एक अलग बात होती है लेकिन करने की कोशिश आप करें- यह भी नहीं हुआ।
पिछड़े वहीं खड़े, नेता साइकिल से हवाई जहाज तक पहुंचे
पिछड़े वर्ग के लोगों की पहचान करने और उस वर्ग के लोगों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन बना था। उसकी रिपोर्ट 1983 में बन गई थी लेकिन लागू 1992 में हुई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के लिए आंदोलन हुआ और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने रिपोर्ट लागू करने की घोषणा की तब आंदोलन समाप्त हुआ। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले साइकिल से उठकर जेट तक पहुंच गए यानी चार्टर्ड प्लेन पर चलने लगे। लेकिन पिछड़ों को सत्ता में प्रतिनिधित्व देने का काम उन्होंने भी नहीं किया। बल्कि इसका उल्टा किया… चाहे हम उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की, बिहार में लालू प्रसाद यादव की या कुछ हद तक नीतीश कुमार की भी बात करें। हालांकि नीतीश कुमार ने प्रयास किए इसमें दो राय नहीं हैं, लेकिन उनका कुल प्रयास अति पिछड़ी और कुछ महादलित जातियों को समेटने-जोड़ने तक सीमित रहा।
मंत्रिमंडल में सामाजिक न्याय की झलक
जो काम डा. लोहिया के शिष्य नहीं कर पाए वह नरेंद्र मोदी ने किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्तर पर सामाजिक न्याय को साकार किया- जहां कर पाना सबसे मुश्किल काम होता है। हर छोटी जाति के समूह को प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी देने का काम उन्होंने किया है। यहां छोटी जाति से आशय संख्या की दृष्टि से छोटी जाति से है। आप उस वर्ग से वोट लें और जब सत्ता में भागीदारी देने की बात आए तो उनको अनदेखा कर दें- यह अब चलने वाला नहीं है। जिस तरह से लोगों में जागरूकता और अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ रही है उसमें यह संभव नहीं है।
यह तो शुरुआत
नरेंद्र मोदी ने जो किया वह अभूतपूर्व काम है। लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार पूरे काम का एक हिस्सा है। हम इक्कीसवीं सदी में हैं। दुनिया में सबसे युवा देश हैं। हमारी दो तिहाई आबादी युवाओं की है। ऐसे देश में इस समय मंत्रिमंडल में औसत आयु 58 साल है। राजनीति में पचास-पचपन तक तो लोग युवा ही माने जाते हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में औसत आयु 58 साल हो- ऐसा आज तक किसी मंत्रिमंडल में नहीं हुआ। यह इस समय हुआ- और यह शुरुआत है, अंत नहीं… यह आगे बढ़ने वाला है। मंत्रिमंडल के सबसे युवा मंत्री पश्चिम बंगाल के निशीथ प्रमाणिक हैं, जो राजवंशी समूह से आते हैं और उम्र मात्र पैंतीस साल है। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं।
पहली बार में इतनी बड़ी जिम्मेदारी
आप सीसीएस (कैबिनेट कमेटी आन सिक्यूरिटी) को छोड़ दें जो सरकार की सबसे शक्तिशाली कमेटी होती है, जिसमें केवल प्रधानमंत्री गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री होते हैं- तो इसके अलावा दूसरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी मिली है अश्विनी वैष्णव को। वह मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले हैं। ओडिशा कैडर के आईएएस अफसर थे। आईआईटी कानपुर से इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग में बीटेक और एमटेक किया। उसके बाद आईएएस बने। फिर अमेरिका के वार्टन यूनिवर्सिटी से एमबीए की डिग्री ली। आईएएस की नौकरी छोड़कर कारपोरेट सेक्टर में गए। फिर अपना एक उद्योग शुरू किया। वह जब आईएएस थे और ओडिशा में डीएम तैनात थे तब डिजास्टर मैनेजमेंट में उनका रिकार्ड बहुत अच्छा रहा और उसकी बहुत प्रशंसा हुई। उसके अलावा प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) के प्रोजेक्ट्स पर उनकी दृष्टि की भी प्रशंसा हुई है। इन सबको देखते हुए अश्विनी वैष्णव को सबसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रोजेक्ट या कहें विभाग की जिम्मेदारी दी गई है। रेलवे, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्रालय। देश के विकास में ये सबसे बड़े औजार साबित होंगे और इनकी सबसे बड़ी भूमिका होगी। यह कार्य ऐसे व्यक्ति को दिया गया है जिसे आप डोमेन एक्सपर्ट कह सकते हैं। अश्विनी सीमेंस की लोकोमोटिव कंपनी में बड़े पद पर काम कर चुके हैं। वह रेलवे के कामकाज को समझते हैं। और उनकी उम्र सिर्फ पचास साल है। इससे अनुमान लगाइए कि ये तमाम फैसले करते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिमाग में क्या चल रहा होगा। मैंने पहले ही कहा था कि मंत्रिमंडल विस्तार में अति पिछड़ों और दलितों को प्रतिनिधित्व देने और पीढ़ी परिवर्तन पर जोर रहेगा। वह बात सही साबित हुई।
मंत्रालयों में सिनजी- सिनर्जी से एनर्जी
एक बड़ी बात यह कि गवर्ननेंस की एक नई इबारत लिखने की कोशिश हुई है। मंत्रालयों में सिनर्जी। हमने रेलवे, आईटी और कम्युनिकेशन की बात की- इनकी सिनर्जी देखिए। स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए मनसुख मंडाविया ने, महामारी के दौरान और उससे पहले भी, आयुष औषधि केंद्रों से दवाओं का प्रबंध जिस प्रकार से किया उसका पुरस्कार उन्हें मिला है। हेल्थ के साथ केमिकल एंड फर्टिलाइजर को जोड़ दिया गया है। दवाओं को स्वास्थ्य से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। एजूकेशन और स्किल डेवलपमेंट ये दोनों विभाग किसी एक मंत्री के पास होने चाहिए ताकि उनमें सिनर्जी हो। ये दोनों मंत्रालय धर्मेन्र्द प्रधान को दिए गए हैं। सिनर्जी से एनर्जी- मंत्रिमंडल में अलग अलग विभाग इसी को ध्यान में रखकर जोड़े गए हैं। इसी तरह पब्लिक एंटरप्राइजेज डिपार्टमेंट जिसके अंतर्गत 36 सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम (पीएसयू) आते हैं- वह हेवी इंडस्ट्रीज में शामिल था- उसे वित्त मंत्रालय से जोड़ दिया गया है। इस तरह के बहुत से काम किए गए हैं और मंत्रालयों में एक सिनर्जी बिठाने की कोशिश हो रही है।
24 प्रोफेशनल्स
केंद्रीय मंत्रिमंडल में 24 प्रोफेशनल्स को जगह मिली है जिनमें आईआईटीयन, इंजीनियर, डाक्टर, वकील और पीएचडी किए लोग हैं। इससे पहले ऐसी बातों पर कौन सोचता था मंत्रिमंडल के गठन में… यही चलता था कि फलां हमारा जानने वाला है, फलां वफादार है, इस प्रदेश से इतने मंत्री बनाने हैं, ये अपना आदमी है इसे बना दो… इससे ज्यादा नहीं सोचा जाता था।
भविष्य की भाजपा का रोड मैप
इस मंत्रिमंडल विस्तार के जरिये नरेंद्र मोदी भविष्य की भाजपा बनाने की तैयारी कर रहे हैं। यह उसका रोड मैप है, शुरुआत है। यह कोई इत्तफाक नहीं है कि अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल के सिर्फ दो सदस्य इस 78 सदस्यीय केंद्रीय मंत्रिमंडल में हैं। एक- राजनाथ सिंह और दूसरे- मुख्तार अब्बास नकवी। इनके अलावा सब नए लोग हैं।
दूरगामी नतीजे
मोदी ने जो किया है उसके दूरगामी नतीजे देखने चाहिए। सब लोग यह जोड़कर देख रहे हैं कि 2022 में उत्तर प्रदेश का चुनाव है, फिर पंजाब में चुनाव है, गोवा में है, हिमाचल और गुजरात का चुनाव है, उसके बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़- इस तरह 2022-23-24 में लगातार चुनावों का सिलसिला है। कुछ लोग कह रहे हैं कि मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति इस पूरी एक्सरसाइज को केवल इस दृष्टि से देखता है तो इसका सीधा सा मतलब है कि वह नरेंद्र मोदी को नहीं समझता है। नरेंद्र मोदी नजदीक की नहीं सोचते। वह दूर की सोचते हैं और उसके हिसाब से प्लानिंग करते हैं। नजदीक में भी उसका फायदा होता है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि उनकी नजर में 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव नहीं हैं या 2023 में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उन पर उनकी नजर नहीं है या 2024 का लोकसभा चुनाव वह नहीं देख रहे हैं। यह सब निश्चित रूप से उनकी दृष्टि में है और महत्वपूर्ण है। लेकिन वह उससे बड़ा सोच रहे हैं।
पहले कार्यकाल में भूमिका बनाई, दूसरे में कर दिखाया
प्रधानमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल के दौरान पांच सालों में बीजेपी के कोर वोटर को बड़ी निराशा हुई कि उन्होंने कुछ नहीं किया। 370 पर कुछ नहीं किया, राम जन्मभूमि के मुद्दे पर कुछ नहीं किया। मोदी ने जम्मू कश्मीर से 370 और 35ए हटाने का फैसला 2019 से शुरू हुए अपने दूसरे कार्यकाल में किया। ऐसा नहीं है कि इससे पहले इन दोनों को संसद में पास कराने का इंतजाम नहीं हो सकता था। हो सकता था। लेकिन बात उसकी नहीं है। जब विपक्ष आलोचना कर रहा था कि ये तो विदेश घूमते रहते हैं, कौन सा ऐसा देश बच गया है जहां वह नहीं गए हैं… तब प्रधानमंत्री घूम घूमकर बहुत से और काम करने के साथ साथ यह भी सुनिश्चित करते रहे कि जब भारत सरकार ऐसा कोई फैसला ले तो विदेशों से उसके विरोध की आवाज न उठे- खासतौर से इस्लामी देशों से। अब देखिए 370 और 35ए चला गया, सीएए लागू हो गया, एनआरसी लागू होगा ही, रामजन्मभूमि पर भगवान राम का मंदिर बनना शुरू हो गया है- पाकिस्तान और टर्की जैसे पारंपरिक विरोधी दो तीन देशों की बात छोड़ दें तो किसी मुस्लिम देश से इसके विरोध में आवाज नहीं उठी। यह ऐसे ही नहीं हो गया। ये पिछले पांच साल के उस काम का असर था जो लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि ये विदेश क्यों जा रहे हैं और क्या कर रहे हैं? जिस तरह से उन्होंने खाड़ी के देशों से मित्रता बढ़ाने की कोशिश की, वहां यात्राएं कीं, एमओयू साइन किए… वह उस समय लोगों को समझ में नहीं आ रहा था लेकिन मोदी के दिमाग में साफ था कि आगे क्या करना है। तो इस तरह वह जो भी करते हैं वह आगे का सोचकर करते हैं।
सपा-बसपा के सामने अस्तित्व का संकट
प्रधानमंत्री ने अभी जो किया है उसमें दो बातें हैं। उसे तत्काल की दृष्टि से देखें और आगे की दृष्टि से भी देखें। उत्तर प्रदेश में सात-आठ महीने बाद चुनाव होने वाला है। इस मंत्रिमंडल विस्तार से नरेंद्र मोदी ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों के सामने राजनीतिक अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। इसके बाद समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के लिए अति पिछड़ी जातियों को जोड़ने या उसमें सफलता की उम्मीद करना कठिन ही नहीं लगभग असंभव होगा। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी की मायावती के लिए गैर जाटव दलितोें को जोड़ना पहले से बड़ी टेढ़ी खीर बन जाएगी। दोनों के लिए राजनीतिक अस्तित्व का संकट होगा।
भावनात्मक मुद्दों पर निर्भरता से मुक्ति
लेकिन नरेंद्र मोदी केवल उत्तर प्रदेश नहीं देख रहे हैं। वह भविष्य की राजनीति को देख रहे हैं। आप 2014 से पहले की बीजेपी को देखिए। भाजपा का उफान हमें तब दिखता था जब कोई भावनात्मक मुद्दा आता था। अचानक बीजेपी का समर्थन बढ़ जाता था। फिर उसके बाद यह होता था कि समर्थक तो रहते थे लेकिन वोटर कम हो जाते थे। नरेंद्र मोदी इस बात को समझ रहे थे कि पार्टी के पास कोई कोर समर्थन का आधार नहीं है, जैसा 1977 से पहले तक कांग्रेस पार्टी का था- दलित, ब्राह्मण और मुसलमान। ये समर्थन का कोर ग्रुप था। इसके बाद उम्मीदवार की जाति, मुद्दा और और बातें मिलती थीं और एक विनिंग कांबिनेशन बनता था। भाजपा के पास ऐसा नहीं था। 2014 में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने उत्तर प्रदेश से जो सोशल इंजीनियरिंग शुरू की, उसका नतीजा 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में दिखा। वह इसको और मजबूत करना चाहते हैं और देश की राजनीति को ही बदल देना चाहते हैं। वह भावनात्मक मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी की निर्रभरता को खत्म करना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि कोई भावनात्मक मुद्दा हो या न हो, पार्टी के मत प्रतिशत पर उसका ऐसा असर न पड़े कि उसे हार का सामना करना पड़े। मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि आप सभी पार्टियों का विवेचन कर लीजिए कोई पार्टी इस दृष्टि से नहीं सोच रही है। जो जातियों के नेता हैं और जातियों के बल पर ऊपर तक पहुंचे हैं उनके लिए भी संकट है।
कुछ प्रश्न:
-महाराष्ट्र में आगे क्या करने वाली है भाजपा? शिवसेना से कैसे रिश्ते रहेंगे?
-क्या सहयोगियों के साथ भाजपा का रवैया बदल रहा है?
-कुछ मंत्रियों की छुट्टी और कुछ के वजन में कमी- क्या था इसका आधार?
-अपने बड़े नेताओं को क्या संदेश देना चाहती है भाजपा?
-क्या मंत्रियों के लिए परफार्म करना ही सबकुछ है? क्या निष्ठा, वफादारी, वरिष्ठता जैसी बातों के दिन लद चुके हैं?
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