डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मीपति सिंहानिया (1910-1976) ने एक बार स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (1911–1987) से कहा कि मैं जब आफिस में काम करता हूँ तो थोड़े ही परिश्रम से थक जाता हूँ। क्या करूँ?
लक्ष्मीपति सिंहानिया की माताजी स्वामी अखण्डानन्दजी को अपने चतुर्थ पुत्र के रूप में मानतीं थीं। और स्वामीजी भी उन्हें माँजी कहते थे।
स्वामी अखण्डानन्दजी भी लक्ष्मीपति सिंहानिया के आचार-व्यवहार से प्रभावित थे। एक संस्मरण में स्वामीजी ने लिखा: “(लक्ष्मीपति सिंहानियाजी) अत्यन्त सज्जन, सौम्य एवं सरल व्यक्ति थे। अभिमान तो उन्हें छू तक नहीं गया था। अधिक बोलते नहीं थे। स्वर कभी ऊँचा नहीं होता था। जितने में सामने वाला सुन ले, उतना ही बोलते थे। सदाचार में उनकी निष्ठा थी। भगवान् के प्रति उनकी आस्था थी। व्यापारकी कला में निपुण, उत्साह एवं पौरुष के पक्षपाती तो थे ही, अपनी माता-पिता, बड़े भाईके प्रति श्रद्धा एवं आदर का भाव रखते थे। किसी के प्रति भी उनके मुख से कभी निष्ठुर वचन सुनने को नहीं मिला। बड़ी कोमलता का व्यवहार करते थे।“
स्वामी अखण्डानन्दजी का यह संस्मरण ‘आनन्द बोध’ पत्रिका के वर्ष 1985 के 11वें अंक में प्रकाशित हुआ। स्वामीजी का शरीर सन् 1987 में शांत हो जाने के बाद प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ के चतुर्थ संस्करण (मई 2012) के पृष्ठ संख्या 259-262 में भी छपा। इस पुस्तक का पहला संस्करण फरवरी 1998 में प्रकाशित हुआ था। वैसे इस पुस्तक में अखण्डानन्दजी ने विद्वानों, साधू, सन्तों, और अपनी माँ और पितामह के जीवन से जुड़े अपने अनुभव लिखे हैं, परन्तु केवल एक उद्योगपति लक्ष्मीपति सिंहानिया की भी चर्चा की है। इन महात्माओं में शामिल हैं उड़िया बाबा, स्वामी करपात्रीजी, गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयन्दकाजी, गीता प्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दारजी, आदि। अखण्डानन्दजी ने गीता प्रेस में काम भी किया था। आज गीता प्रेस की जो श्रीमद्भागवत बाज़ार में उपलब्ध है, उसका संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद अखण्डानन्दजी ने ही किया था। तब उनका नाम शान्तनु बिहारी द्विवेदी था। सन्यास लेने के बाद उनका नाम स्वामी अखण्डानन्दजी हुआ। जब वह सात वर्ष की अवस्था में आपके पिताजी परलोक सिधार गए थे।
जीवन में सद्गुणों की वृद्धि कैसे हो”
लक्ष्मीपति सिंहानिया के बारे में अपने संस्मरण में स्वामीजी ने लिखा:
“एक बार भाई लक्ष्मीपति से कोई सत्संग का प्रसंग चल रहा था। मनुष्य के
जीवन में सद्गुणों की वृद्धि कैसे होती है, इस पर मैंने उनको श्रीमद्भागवत का यह
श्लोक सुनाया- आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च। ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारोदशैते गुणहेतवः॥ (श्रीमद्भागवत 11.13.4)”
इस श्लोक का अर्थ और व्याख्या उन्हें बहुत पसन्द आई जो इस प्रकार है-
“मनुष्य के जीवन में सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण का प्रकाश-विकास।अथवा वृद्धि-समृद्धि के लिए दस बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि वे सात्त्विक होंगी तो जीवन में सद्गुणोंका विकास होगा। वे दस बातें इस प्रकार हैं-
1. आप अध्ययन क्या करते हैं ?
हृदय पवित्र करनेवाले उपनिषद्, गीता, भागवत, रामायण आदि ग्रन्थ! भोग-विलास, धनोपार्जन सम्बन्धी पुस्तकें अथवा भूत-प्रेत, चोर, डाकू आदि के काल्पनिक ग्रन्थ या बेईमानी, चालाकी, तिलस्माती या वासना बढ़ाने वाली कहानियाँ? आपके जीवन को अपनी-अपनी दिशा में आकृष्ट करने वाली यही किताबें हैं।
2. आप कैसे जल का सेवन करते हैं, स्नान में, पान में, भोजन में ?
भगवान् का चरणामृत, पवित्र नदी एवं स्रोतों का जल, फलों का रस, शाकों के द्वारा निर्मित पेय
अथवा सुरा आदि? आप जल के प्रभावसे मुक्त नहीं रह सकते।
3. आप कैसे लोगों में रहना, मिलना-जुलना पसन्द करते हैं?
आप जैसे लोगों में रहेंगे, बड़ा मान कर सेवा करेंगे और जैसा होना चाहेंगे वैसे हो जायेंगे।
4. आपको मन से कैसे स्थान प्रिय हैं?
नदी-तट, पर्वत, हरी-भरी वनराजि, तीर्थ, मन्दिर, सन्तों का निवास अथवा जहाँ सत्संग हो रहा हो वैसी भूमि। आप स्वयं अपनी रुचि को परखिये, निरखिये। आप वैसे ही होने जा रहे हैं।
5. आप अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं, निद्रा, आलस्य, प्रमाद के कारण निकम्मे तो नहीं हो रहे हैं?
आप पौरुष से वञ्चित हो जायेंगे। आप अर्थलिप्सा एवं भोग-वासना से आक्रान्त होकर कर्म करते हैं? निश्चय ही आपके जीवन में विक्षेप की वृद्धि होगी। आप अपने जीवन के अमूल्य क्षणों का कौन सा अंश सत्य के चिंतन में, एकाग्रता में, भगवद्भक्ति में एवं लोकहित में लगाते हैं? आपके एक क्षण आपके जीवन को स्वर्ग एवं नर्क बनाने में समर्थ है।
6. आपको क्या करना पसंद है?
चोरी, हिंसा, पक्षपात? मोह से प्रेरित कर्मों से बचने का प्रयास करते हैं? स्वयं कष्ट सह कर भी दूसरों का हित करने का प्रयत्न करते हैं या नहीं। कर्म बाहर से देखने में कितना भी छोटा हो, उसका प्रभाव बहुत व्यापक होता है। भले दूसरों को उसका पता न लगे, परन्तु आपका अन्त:करण उसके प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकता। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और वह अपने अंग-अंग और अन्तरंग पर भी होती है। … सबसे अच्छा यह होगा कि आप कोई कर्म करने के पहले इस ओर गम्भीरता से ध्यान दे लें कि इससे मेरी आदतें सुधरेंगी या बिगड़ेंगी। जिससे किसी का अहित होता हो और अपनी आदत बिगड़ती हो, ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिए।
7. किस वंश में आपका जन्म हुआ, यह तो एक गौण बात है।
अतः शरीर का जन्मदाता शिक्षक अथवा गुरु होता है। उत्तम वंश परम्परा, दोषापनयन एवं गुणाधान रूप संस्कार और सदाचार का पालन, ये तीनों ही हमारे जीवन को सँवारते हैं। जीवन में सदाचार की स्थिति ही सच्चा जीवन है। आप अपनी बुद्धि-तुला पर तौल कर देख लीजिये कि यह आपका जन्म अपने आचरण से कुलीन हो रहा है न!
8. आपके चिन्तन की दिशा क्या है?
जागते समय, बैठे हुए एकान्त में, सोने के पूर्व आप मन-ही-मन क्या सोचते रहते हैं? आत्मचिन्तन, लोक-कल्याण
या शरीर, भोग, रोग, राग, योग। सावधान! यदि चिन्तन की दिशा अनुचित एवं
अशुद्ध दिशा में चली गयी तो आप कहीं के नहीं रहेंगे, न घर के न घाट के। मनुष्य का वास्तविक चिन्तन ही उसका सच्चा जीवन है।
यह निश्चित रूप से समझिये कि कोई दूसरे के मन का ज्ञाता नहीं हो सकता। न आपके मन की बात दूसरे समझ पाते हैं और न तो दूसरों के मन की आप। अतः ठोस जगत् में आप अपनी वाणी एवं शरीर के व्यवहार को अपने पवित्र चिन्तन का अनुयायी बनाइये। दूसरों की बुराई सोचना अपने को बुरा बनाना है। ध्यान बुरा है तो आप बुरे हैं। ध्यान अच्छा है तो आप अच्छे हैं।
9. आप मन्त्रणा किस लक्ष्य से करते हैं?
आपके संकल्प एवं योजना का उद्देश्य क्या है? आपके मन में बार–बार क्या आता है? आप किस मन्त्र का जप करते हैं? हृदय पवित्र करने वाले मन्त्र, संयम एवं परमात्म चिन्तन से भरपूर होते हैं। भूत-भैरव के मन्त्र या दूसरों के अहित करने वाली मन्त्रणा हमारे जीवन को बुराई के गड्ढे में डाल देती है।
10. प्रकृति का गुण-दोषमय प्रवाह अनादि-अनन्त है।
चित्त-वृतियों की नदी, अंतर्मुखता और बहिर्मुखता दोनों की ओर जाती है। उसमें कभी विष बहता है, कभी अमृत। कभी शांति, करुणा, तो कभी ईर्ष्या-द्वेष। इसी में सावधान रहने की बारी है। आप अपने को उत्तम विचारों की धारा में डाल दीजिये। कभी डूबेंगे, कभी उतरायेंगे। कभी-कभी दायें बायें भी होंगे। परन्तु, उत्तमता की धारा को न छोड़िये। वह केवल बाह्य जीवन को ही नहीं सुधारेगी-सँवारेगी बल्कि अन्तरंग जीवन को भी अमृतमय बना देगी। थोड़े ही दिनों में आप स्वयं आश्चर्यचकित रह जायेंगे कि आपके जीवन को इतना मधु-मधुर, इतना सरस, इतना सौरभमय, इतना सुकुमार और इतना संगीतमय क्यों बनाया गया? आप अमृत के पुत्र हैं और अमृत होने, रहने में ही आपके जीवन को सफलता है।
भाई लक्ष्मीपति सिंहानिया को यह प्रसंग इतना पसन्द आया कि उन्होंने कहा कि इसको प्रकाशित करके वितरण करवा दीजिये।
थकान मिटाने की प्रक्रिया
जब लक्ष्मीपति सिंहानिया ने अखण्डानन्दजी से कहा कि मैं जब आफिस में काम करता हूँ तो थोड़े ही परिश्रम से थक जाता हूँ। तो अखण्डानन्दजी उन्हें एक प्रक्रिया बतायी जो उपनिषदों और महाभारत में है। वह यह है कि बीच-बीच में एक-दो मिनट के लिए मुँह बन्द कर लें। दाँत परस्पर सटे नहीं । जीभ, ऊपर-नीचे किसी का स्पर्श न करे। ज्यों-की-त्यों बनी रहे। एक मिनट भी ऐसा कर लें तो थकान दूर हो जायेगी और मन को विश्राम मिलेगा। उन्होंने ऐसा किया और बतलाया कि इससे मुझे बहुत लाभ हुआ। असल में बात यह है कि अब जीभ अधर में निष्क्रिय हो जाती है तो किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता। शब्द के उच्चारण के बिना मन की भाग-दौड़ बन्द हो जाती है। एक मिनट के लिए भी मन की दौड़-धूप बन्द हो जानेसे बहुत विश्राम मिलता है। यदि कदाचित् ऐसा न कर सकते हों तो नेत्र जहाँ हैं, वहीं उनको स्थिर कर दीजिये; पुतली दाँयें-बायें, ऊपर-नीचे कहीं न जाय। परन्तु उन पर कोई दबाव न डाला जाय। क्षण भर के लिए आपका मन सब तरह के तनावों से मुक्त हो जायेगा और बहुत विश्राम मिलेगा। आँख बन्द हो या खुली, इस पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अखण्डानन्दजी की पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ मिलने का पता है: स्वामी श्री अखण्डानन्द पुस्तकालय, आनन्द कुटीर, मोती झील, वृन्दावन- 281121
थकान मिटाने के अन्य उपाय
सन् 1993 की बात है। एक बार इस लेख के लेखक अर्थात मेरा जाने माने राजनीतिज्ञ डॉ. सुब्रह्मण्यम् स्वामी के साथ लखनऊ से अयोध्या जाना हुआ। हम दोनों एक कार से गए थे। Contessa कार थी, जो कि शायद भारत में निर्मित पहली एयर कण्डीशण्ड कार थी। आज तो भारत में निर्मित सभी जानी-मानी कारें एयर कण्डीशण्ड होती हैं। तब मैं नवभारत टाइम्स लखनऊ में काम करता था। लखनऊ से अयोध्या का हमारा सफर कोई साढ़े तीन घण्टे का रहा होगा। कार में सिर्फ हम दोनों थे और ड्राइवर था। मैंने देखा कि रास्ते में डॉ. सुब्रह्मण्यम् स्वामी कुछ समय के लिए दो जगह सर्किट हाउस में रुके। वह सर्किट हाउस में थोड़ी देर के लिए अपने कमरे का दरवाजा बन्द कर लेते थे। मैं बाहर इन्तजार करता था। मैंने उनसे पूछा कि आप दरवाजा बन्द करके क्या करते हैं? तो उन्होंने कहा कि मैं शव-आसन करता हूँ।
शव-आसन भी एक प्रक्रिया है थकान उतारने की। थकान मिटाने की जिन प्रक्रियाओं का इस लेख में जिक्र किया गया है, वह अभ्यास अर्थात प्रैक्टिस से ही सीखी जा सकती हैं। शव-आसन की चर्चा पातंजलि के योगशास्त्र में भी की गई है। इसे किसी निपुण व्यक्ति से ही सीखना चाहिए।
स्वामी अखण्डानन्दजी की उपर्युक्त पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ पर आधारित एक अन्य लेख है:
स्वामी अखण्डानन्द के प्राण हनुमानजी ने बचाए
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(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)