प्रदीप सिंह।
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी तिहरे संकट में घिरी हुई है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इससे निकलने का रास्ता क्या है। हाल ही में भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेता प्रवीण नेतारू की गला काटकर हत्या कर दी गई। इस वारदात के पीछे पीएफआई (पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया) और कट्टर मुस्लिम संगठनों का हाथ बताया जा रहा है। इसके बाद से प्रदेश के भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेताओं के इस्तीफे का सिलसिला शुरू हो गया है। उनको लग रहा है कि उनकी सरकार उनकी सुरक्षा करने में नाकाम है। सरकार उनको इस बात से आश्वस्त करने में नाकाम है कि संकट में उनको बचाया जा सकता है, उनकी जान-माल की सुरक्षा की जा सकती है। सौ से ज्यादा नेता-कार्यकर्ता जो बीजेपी के आईटी सेल के लिए काम करते थे, उन्होंने काम करना छोड़ दिया। लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। एक दिन कार्यकर्ता गृह मंत्री के घर में घुस गए। उनकी नाराजगी से नेतृत्व के हाथ-पैर फूल गए हैं। इसी वजह से मुख्यमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि कर्नाटक में उत्तर प्रदेश का योगी मॉडल लागू करेंगे। उनके गृह मंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि पुलिस को एनकाउंटर की छूट दे देनी चाहिए। इस तरह की बातें अगर हो रही है तो सवाल है कि क्यों हो रही है?
कर्नाटक में इस समय हिंदुत्व का जो माहौल है उसकी तुलना उत्तर प्रदेश से की जाती है। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि राम मंदिर आंदोलन का दक्षिण के किसी एक राज्य में असर हुआ तो वह कर्नाटक में हुआ। इसके अलावा ईदगाह का एक मुद्दा उठाकर बीजेपी ने अपने लिए वहां जनाधार तैयार किया। उस जनाधार को तैयार करने में सबसे बड़ा योगदान बीएस येदियुरप्पा का रहा जो लिंगायत नेता हैं। वे बीजेपी के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता हैं। बीजेपी को वहां दो बातों का फायदा मिला। ईदगाह वाले मुद्दे का तो मिला ही, इसके अलावा लिंगायत समुदाय की कांग्रेस से नाराजगी का भी फायदा मिला। 1990 में राजीव गांधी ने लिंगायतों के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय नेता वीरेंद्र पाटील को बड़ी बेइज्जत करके बर्खास्त किया था। पाटील उस समय मुख्यमंत्री थे और रिकॉर्ड सीटें लेकर आए थे। इसके बावजूद उनके साथ ऐसा किया गया। वह दिन है और आज का दिन, लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस की ओर आंख उठाकर नहीं देखा। दूसरा फायदा बीजेपी को मिला रामकृष्ण हेगड़े का जो जनता दल के नेता थे और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे थे। लिंगायत समुदाय में रामकृष्ण हेगड़े का बड़ा सम्मान था। वे खुद जाति से ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों और लिंगायतों का समर्थन भारतीय जनता पार्टी को मिला। मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई जनता दल से ही आए हैं। वे जनता दल के राष्ट्रीय नेता और मुख्यमंत्री रह चुके एसआर बोम्मई के बेटे हैं। लेकिन बसवराज बोम्मई येदियुरप्पा नहीं हैं- उनका जनाधार है। बीजेपी ने जब-जब उनको हटाने की कोशिश की तब-तब कर्नाटक में बीजेपी संकट में आई है।
भरोसा डगमगाया
इस बार बीजेपी की जो ताकत थी, केंद्रीय नेतृत्व की जो ताकत थी, राज्य में जो ताकत थी, जिस तरह की परिस्थिति बन गई थी उसमें और अपनी उम्र को देखते हुए येदियुरप्पा समझौता करने को तैयार हो गए। वैसे उनको भी पता चल गया है कि बीजेपी से अलग होकर उनकी ताकत नहीं है। उनकी ताकत बीजेपी में रहते हुए ही है। अलग होने पर उनकी ताकत सिर्फ बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की है। वे अपना कुछ खड़ा नहीं कर सकते- इसलिए उन्होंने भी समझौते का रास्ता अपनाया। लेकिन सवाल यह है कि मई 2023 में राज्य विधानसभा का चुनाव होना है तो ऐसे में बीजेपी क्या करेगी? प्रदेश नेतृत्व का संकट लगभग उस तरह का हो गया है जैसा उत्तराखंड में था। हालांकि, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की तरह बसवराज बोम्मई उतने नाकाम या अक्षम नहीं हैं। मगर उनकी समस्या तीन स्तरों पर है। जिन तीन संकट की मैंने बात की उनमें पहला है प्रशासनिक। जब हिजाबवाला और उसके साथ-साथ गौ हत्या पर प्रतिबंध का मुद्दा आया तो सरकार ने फैसले तो लिए और उसे लागू भी किया लेकिन सरकार की वह दृढ़ता, तैयारी, आत्मविश्वास नहीं दिखा जो कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास पैदा कर सके। सीएए आंदोलन के दौरान और उसके बाद जो घटनाएं घटी और उन परिस्थितियों से जिस तरह से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ निपटे- सिर्फ इसलिए नहीं कि वे योगी हैं। बल्कि उन्होंने प्रशासनिक क्षमता और कानून की जानकारी का भी परिचय दिया। उन्होंने जो भी कदम उठाए- पहले उसको सुरक्षित किया कानून के कवच से। जहां कानून कमजोर पड़ता दिखा वहां उन्होंने कानून बदल दिया। इसलिए उनकी कामयाबी सबको दिखाई देती है कि- कैसे इतनी आसानी से इतने बड़े संकट से निपटे- क्या रुख अपनाया जिसकी वजह से वे अभी तक अदालत की स्क्रूटनी से पास होते रहे हैं। ये रातों-रात नहीं हो सकता कि आप घोषणा कर दें कि यूपी का योगी मॉडल लागू करेंगे और वह लागू हो जाएगा। योगी मॉडल लागू करने के लिए आपको पहले तैयारी करनी पड़ती है, उसकी पृष्ठभूमि बनानी पड़ती है। इसके अलावा प्रशासनिक, राजनीतिक, विचारधारा और कानूनी तैयारी करनी पड़ती है। वह तैयारी कर्नाटक में कहीं दिखाई नहीं दे रही है।
कार्यकर्ताओं से जुड़ाव नहीं
बोम्मई सरकार का दूसरा संकट राजनीतिक है। बसवराज बोम्मई का येदियुरप्पा जैसा जनाधार और कार्यकर्ताओं से वो जुड़ाव नहीं है। उसकी एक वजह यह है कि वे आरएसएस से नहीं आए हैं और न ही बीजेपी में नीचे से बढ़ कर ऊपर आए हैं। वे दूसरी पार्टी से आए हैं, दूसरी राजनीतिक संस्कृति से आए हैं। इसलिए उनका उस तरह का जुड़ाव प्रदेश के नेताओं-कार्यकर्ताओं से नहीं है जिस तरह का येदियुरप्पा का है। वे बीजेपी में जमीनी स्तर से उठकर ऊपर तक पहुंचे हैं। येदियुरप्पा और अनंत कुमार ने कर्नाटक में बीजेपी को खड़ा किया है। बोम्मई के लिए समस्या यह हो रही है कि मंत्रिमंडल के जो दूसरे सदस्य हैं उनमें ज्यादातर या तो कांग्रेस से आए हैं या जेडीएस से- जिनका बीजेपी की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। बीजेपी की विचारधारा से उनकी उस तरह की ट्रेनिंग नहीं हुई है और न ही उनकी उस तरह की प्रवृत्ति है जैसी कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत येदियुरप्पा की है। येदियुरप्पा ने बीजेपी में आने के बाद बीजेपी की संस्कृति को अपना लिया, बल्कि कहें कि आत्मसात कर लिया है। अगर आपको उनके बारे में पता नहीं है कि वे कांग्रेस में थे तो आपको लगेगा कि वे संघ और बीजेपी से निकले हुए नेता है। इस तरह से विचारधारा के मसले पर उन्होंने अपने को स्थापित कर लिया है और बीजेपी कार्यकर्ताओं में भरोसा जगा दिया है। यही वजह है कि असम में- और असम से बाहर भी- वे पसंद किए जाते हैं। बीजेपी में और बीजेपी से बाहर भी। भले ही राजनीतिक रूप से उनके विरोधी हों लेकिन सब उनकी प्रशंसा करते हैं। बोम्मई की तीसरी समस्या है विचारधारा की। हिंदुत्व की विचारधारा पर उनका उस तरह से भरोसा, उस तरह से ट्रेनिंग, उस तरह से उस संस्कृति में नहीं रहे हैं। उनके लिए विचारधारा एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। उनके लिए भरोसे का, प्रतिबद्धता का मामला नहीं है। इसलिए बीजेपी के- खासतौर से भारतीय युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं- की नाराजगी को आप इस परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं।
समर्थक और कार्यकर्ता बीजेपी से नाराज
अब समस्या पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने है कि क्या उत्तराखंड की तरह यहां भी बदलाव करेंगे। मगर कर्नाटक में बदलाव इतना आसान नहीं होगा क्योंकि कर्नाटक उत्तराखंड नहीं है। कर्नाटक दक्षिण में एकमात्र राज्य है जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यहां लंबे समय से पार्टी पहले या दूसरे नंबर पर बनी हुई है। कांग्रेस को अगर उसने दक्षिण में कहीं चुनौती दी है तो वह कर्नाटक है। केरल में बीजेपी के जो जमीनी कार्यकर्ता हैं उनमें बहुत सारे कर्नाटक से गए हुए हैं। उसके अलावा तमिलनाडु के बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष केएन अन्नामलाई कर्नाटक कैडर के आईपीएस ऑफिसर थे। कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है उसका असर बीजेपी में दूसरे राज्यों में भी होने वाला है। उसका फायदा- उसका नुकसान और राज्यों में भी होने वाला है। प्रवीण नेतारू की हत्या को जिस तरह से राज्य सरकार ने हैंडल किया है उससे बीजेपी के ही कार्यकर्ता नाराज हो गए हैं। बीजेपी का जो कोर वोटर है वही नाराज हो गया है। यह नाराजगी कर्नाटक तक ही सीमित नहीं है, कर्नाटक से बाहर भी जा रही है। इसकी वजह केवल प्रवीण नेतारू की हत्या नहीं है। इसकी शुरुआत कन्हैयालाल से हुई है। उसके बाद जो हत्याएं हुई और उस पर बीजेपी का जो रवैया रहा है वह लोगों को समझ में नहीं आ रहा है। जब मैं लोगों को कह रहा हूं- तो इसका मतलब है बीजेपी के समर्थक और कार्यकर्ता- जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया है। चाहे राज्य सरकार का हो या केंद्र सरकार का, उनका रवैया उन्हें न तो समझ में आ रहा है और न पसंद आ रहा है। बीजेपी के कार्यकर्ता और समर्थक ये समझने में नाकाम हैं और उन्हें समझाने की कोई गंभीर कोशिश भी नहीं की गई कि आखिर पीएफआई पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा रहा है। जब बार-बार खुफिया एजेंसियां, पुलिस प्रशासन, जांच एजेंसियां, एनआईए से लेकर दूसरी एजेंसियां कह रही हैं कि जितनी गतिविधियां हो रही है सब में कहीं न कहीं पीएफआई का हाथ है- तो केंद्र सरकार इस पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा रही है।
कार्यकर्ताओं को समझा नहीं पा रही बीजेपी
चाहे उत्तर प्रदेश में कानपुर का उपद्रव हो या प्रयागराज, सहारनपुर का- इसके अलावा राजस्थान, गुजरात या देश में जहां भी सांप्रदायिक तनाव, सांप्रदायिक हिंसा हो रही है- सब में पीएफआई का हाथ नजर आता है। पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने के जवाब में सिर्फ एक ही बात कही जाती है कि तकनीकी मुद्दे हैं- यह देखना पड़ेगा कि अदालत में मामला टिक पाएगा या नहीं। अब ये सब बातें कोई सुनने को तैयार नहीं है। कोई इस बात को मानने को तैयार नहीं है। मान लीजिए कि मामला अदालत में नहीं टिक पाएगा तो अदालत तक तो जाइए, कोशिश तो कीजिए। इतने प्रमाण मिलने के बाद कि पैसा बाहर से आ रहा है, फंडिंग हो रही है, किन-किन देशों से और संगठनों से हो रही है, कैसे पैसे का बंटवारा हो रहा है, पैसे देकर कैसे हत्याओं को अंजाम दिया जा रहा है, सांप्रदायिक दंगा भड़काने की कोशिश हो रही है- ये सब तथ्य होने के बावजूद अगर पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश भी नहीं हो रही है तो यह बीजेपी के लिए गंभीर संकट का विषय है। यह एक निराशा का कारण बन रहा है- खासतौर पर नूपुर शर्मा प्रकरण के बाद से। उस प्रकरण के बाद से बीजेपी समर्थकों को लग रहा है कि इस मुद्दे पर कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी नरम पड़ गई है। इसके क्या कारण हैं, नेतृत्व की कोई रणनीति हो सकती है लेकिन इससे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। अगर आपके पास कोई कारण है तो उसको बताइए। कारण बताए बिना लोग यह मानने, समझने को तैयार नहीं हैं कि आपकी कोई मजबूरी है या आपकी कोई रणनीति है। अगर रणनीति है तो वह दिखाई देनी चाहिए, उसका असर जमीन पर दिखाई देना चाहिए जो कि नहीं दिख रहा है।
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मुस्लिम तुष्टीकरण से क्या हासिल
ये जो घटनाक्रम हो रहा है इनसे सही तरीके से नहीं निपटने के पीछे सरकार की मंशा क्या है, रणनीति क्या है मुझे मालूम नहीं है। मगर जिस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल सर्व-धर्म सम्मेलन में गए जहां सूफी और दूसरे लोग आए थे, वहां पर उनका जाना, जिस तरह के लोग थे वहां पर, उन्होंने जो कुछ बोला उन सबसे भी नाराजगी बढ़ी है। बीजेपी अभी तक कांग्रेस और दूसरी पार्टियों पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही है। मगर आज जो कुछ वह कर रही है उससे लोगों को लग रहा है कि बीजेपी भी उसी रास्ते पर चल रही है। ये जो पसमांदा समाज की बात आई- ये भी लोगों के गले नहीं उतर रही है। यह कैसे मान लिया बीजेपी ने की 80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी कट्टरपंथियों का समर्थन नहीं करती है, वह इस्लाम के उन प्रावधानों का समर्थन नहीं करती है जिसका कटटरपंथी लोग करते हैं। उनमें यह फर्क कैसे जान लिया। दूसरी बात, मुस्लिम तुष्टीकरण से क्या हासिल होने वाला है। न तो सांप्रदायिक सौहार्द हासिल होने वाला है और न वोट मिलने वाला है- तो फिर क्या मिलने वाला है जिसकी वजह से आप यह सब कर रहे हैं। हो सकता है कि आपकी नीयत अच्छी हो- हो सकता है कि आपकी रणनीति अच्छी हो- लेकिन जब तक मालूम नहीं होगा, जानकारी के अभाव में लोगों को जो सामने दिख रहा है उसी पर भरोसा कर रहे हैं। जिस पर वे भरोसा कर रहे हैं वह बीजेपी के लिए भारी नुकसान का कारण बन सकता है- अगर बीजेपी चेती नहीं तो।