apka akhbarप्रदीप सिंह ।

जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो गई। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद टूटना ही था और टूट गया। गठबंधन तोड़ने की घोषणा बसपा सुप्रीमो मायावती ने की। अखिलेश यादव अभी चुप्पी साधे हुए हैं। यह चुप्पी शालीनता की है या ठगे जाने के सदमे की यह बाद में पता चलेगा। सिर्फ छह महीने के भीतर ही इस गठबंधन की टूट ने गठबंधन की पूरी राजनीति पर कई तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं। बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा जैसे कई राज्यों में गठबंधन कमजोर जमीन पर खड़े हैं।


 

पहले बात उत्तर प्रदेश की करते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती ने एक जाल बिछाया और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव उसमें खुली आंखों से फंसते गए। पाँजी स्कीम की तरह मायावती ने अखिलेश को सपना दिखाया पूंजी को कई गुना करने का। पहला तीर उपचुनाव में छोड़ा गया और वह निशाने पर लगा। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में खाली हाथ रहने और फिर तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में सिर्फ उन्नीस सीटों पर समिटने से मायावती परेशान थीं। इसके बाद बसपा में भगदड़ मच गई थी। लोग पार्टी छोड़कर जा रहे थे। उन्हें बसपा में अपना भविष्य नहीं दिख रहा था। उप चुनाव में सपा का समर्थन करके मायावती ने दो लक्ष्य हासिल किए। एक, पार्टी में मची भगदड़ को रोक लिया। दूसरा, उत्साही बालक की तरह अखिलेश यादव बसपा की झोली में आकर गिर गए।

मायावती का वास्तविक लक्ष्य उप चुनाव के जरिए हासिल लक्ष्यों से बड़ा था। उन्हें पता था कि अब वे दलितों की नहीं सिर्फ जाटवों की नेता रह गई हैं। यह भी पता था कि ब्राह्मण मतदाता जो 2007 में उनके साथ आया था, वह नहीं आने वाला। दो चुनावों में उन्होंने देख लिया कि अति पिछड़ा वर्ग भी भाजपा से हटने वाला नहीं है। उन्हें एक बड़े वोट बैंक की तलाश थी। वह है, मुसलमान। तीन बार भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बनने और गुजरात दंगे के बाद मोदी की तारीफ के कारण मुसलमान मायावती पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे। सपा से गठबंधन के कारण मुसलमान साथ आ गए। लोकसभा में उनकी सीटें शून्य से दस हो गईं। पर मायवती के लिए यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। उनकी नजर 2022 के विधानसभा चुनाव पर है। साल 2022 के चुनाव में सत्ता की दावेदारी के लिए सपा से गठबंधन तोड़ना जरूरी था। इससे पहले कि सपा हमलावर हो और मायावती को बताए कि वोट ट्रांसफर कराने का उनका तिलिस्म टूट गया है। पहला हमला करना जरूरी था। क्योंकि उन्हें बसपा को अभी प्रदेश की नम्बर दो पार्टी के रूप में स्थापित करना है। मुसलमान वोट लौटकर सपा के पास न जाए। इसलिए उन्होंने अखिलेश पर और हमला बोला। कहा कि अपनी पत्नी और भाई को नहीं जिता पाए। वे दरअसल, मुसलमानों को बता रही थीं कि भाजपा से लड़ने में अखिलेश अक्षम हैं। यादव वोट भी पूरी तरह उनके साथ नहीं है। मायावती सत्ता से बाहर रहने पर कभी उपचुनाव नहीं लड़तीं। पर इस बार विधानसभा की बारह सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में बसपा अपने उम्मीदवार उतारेगी। मायावती इसके जरिए अपनी नई रणनीति का जमीनी परीक्षण करना चाहती हैं।

अखिलेश यादव को सत्ता पिता मुलायम सिंह यादव से विरासत में मिली। यह उनकी अर्जित की हुई सत्ता नहीं थी। वे अभी तक 2017 की हार से उबर नहीं पाए हैं। उनका व्यवहार किसी गंभीर राजनेता की बजाय उस बच्चे जैसा है जिसका खिलौना किसी और ने ले लिया हो। उनका अंदाजा ही नहीं है कि सिर्फ सत्ता ही नहीं गई है। पिता और चाचा को हाशिए पर धकेलकर और आरामतलबी की राजनीति से पार्टी भी हाथ से निकल रही है। 2017 में कांग्रेस के साथ समझौता करके उन्होंने मुहं की खाई लेकिन उससे कोई सबक नहीं सीखा। वे बसपा से गठबंधन के लिए ज्यादा व्याकुल नजर आ रहे थे। उधर मायावती चतुर शिकारी की तरह शिकार को खेलने का मौका दे रही थीं।

दरअसल, एक ही प्रदेश के दो क्षेत्रीय दलों का गठबंधन बन नहीं सकता। बन जाय तो ज्यादा देर तक चल नहीं सकता। क्योंकि दोनों के नेताओं की महत्वाकांक्षा क्षेत्रीय होती है। राष्ट्रीय दलों और क्षेत्रीय दलों के गठबंधन भी तभी चलते हैं जब क्षेत्रीय दल के नेता की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा न हो और राष्ट्रीय पार्टी के राज्य के नेताओं की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा नियंत्रण में रहे। बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा का गठबंधन अच्छा चल रहा था। सरकार चलाने में नीतीश कुमार को भाजपा से कोई परेशानी नहीं थी। पर जैसे ही उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा जागी, वे अलग हो गए। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा तो पूरी हुई नहीं और राष्ट्रीय जनता दल के साथ क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा के टकराव में जब कमजोर पड़ने लगे तो फिर भाजपा के खेमे में लौट आए।

किसी भी गठबंधन की कामयाबी, फिर वह क्षेत्रीय दलों का आपसे में हो या राष्ट्रीय दल के साथ, की बुनियादी शर्त होती है कि उनके जनाधार में समरसता। बिहार में नीतीश कुमार और राजद का गठबंधन इसलिए कामयाब हो गया कि दोनों एक ही आँवे से निकले हुए हैं। भाजपा के साथ यह समरसता बनने में करीब दस साल (1995 से 2005) लगे। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल(एस) के गठबंधन में दोनों समस्याएं हैं। वहां कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल की बजाय क्षेत्रीय दल की तरह व्यवहार कर रही है। साथ ही दोनों दलों के जनाधार में समरसता भी नहीं है। बिहार और झारखंड में भाजपा विरोधी गठबंधन की समस्या यही है। पार्टियां अपना वोट तभी ट्रांसफर करा पाती हैं जब दोनों के जनाधार में परस्पर सौहार्द हो। इसलिए गठबंधन वही जो वोटर मन भाए। नेताओं के साथ आने से गठबंधन बन तो जाते हैं लेकिन कामयाब नहीं हो पाते।

क्षेत्रीय दलों खासतौर से उत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों के सामने मोदी-शाह की जोड़ी ने एक नया संकट खड़ा कर दिया है। लगभग सभी क्षेत्रीय दलों की राजनीति जाति पर आधारित है। जाति से भी आगे जाकर परिवार की राजनीति मुख्य ध्येय बन गया है। दूसरी तीसरी पीढ़ी के इन वंशवादियों को जनता अस्वीकार कर रही है। पर कोई सीखने को तैयार नहीं है। छह महीने की समाजवादी पार्टी संगत में मायावती परिवारवाद की बीमारी लेकर आईं। पार्टी के जो समर्पित कार्यकर्ता बहन जी की पालकी उठा रहे थे अब उनके भाई और भतीजे की पालकी उठाएंगे। उन्होंने अभी तक बताया नहीं है कि यह बाबा साहब का बताया रास्ता है या मान्यवर कांशी राम का। इन दलों के नेताओं को इस बात का एहसास ही नहीं है कि मोदी –शाह देश की राजनीति को जाति से परे ले गए हैं। विपक्षी दलों को सबका साथ, सबका विकास से मिले सबका विश्वास की राजनीति की काटखोजना पड़ेगा। पुराने ढ़र्रे की राजनीति से शायद राजनीतिक अस्तित्व तो बचाया जा सकता है। इस राजनीति से भाजपा को पराजित नहीं किया जा सकता।


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