दलित, आदिवासी समाज के चार पूज्य संतों को महामंडलेश्वर पद का पट्टाभिषेक।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
भारत तपस्वियों, संतों और ज्ञानियों का देश है। आत्मा के प्रकाश और व्यवहार के बारे में जितना अध्ययन भारतीयों ने किया है, शायद ही दुनिया का कोई देश होगा जिसने इस दिशा में बड़ा काम किया हो।

इस लोक के अलावा पारलौकिक दुनिया के बारे में भारत में हिन्दू ज्ञानी, तपस्वी और संत बार-बार बताते आए हैं, और इसी अध्ययन का परिणाम है पुनर्जन्म जैसी व्याख्याएं तथा कर्म सिद्धांत। अर्थात् आप जिस प्रकार के कर्म करेंगे और किसी भी विषय में दृढ़ विचार रखेंगे आपका आगामी जन्म भी उसी अनुसार होगा। हालांकि सदियों से चले आ रहे इस ज्ञान को नकारने और सनातन हिन्दू समाज को जातियों में बांटकर देखने का प्रयास भी सतत होता रहा है।

आलोचक यह कहकर हिन्दू समाज को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं कि शोषण के लिए हिन्दुओं में जातियों का निर्माण किया गया है और नीची जातियों को न तो आगे बढ़ने के कोई मार्ग हैं और न ही उनकी मुक्ति। यानी कि सांसारिक जीवन हो अथवा आध्यात्म का मार्ग जो छोटी जाति में पैदा हो गया, उसके साथ हिन्दू समाज अछूत सा व्यवहार करता है। हिन्दू समाज के विरोधियों ने इस बात को लेकर एक लम्बा नैरेटिव भी चला रखा है और इसके हथियार के रूप में ये सभी लोग बाबा साहब आम्बेडकर, ज्योतिबा फुले जैसे महापुरुषों का नाम, भारतीय संविधान को अपनी सुविधानुसार एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। किंतु क्या वास्तव में हिन्दू समाज अछूत धारणा से आबद्ध है, जैसा ये सभी बताने का और आम जन में धारणा पैदा करने का प्रयास करते हैं? यदि गहराई से देखेंगे तो ध्यान में आएगा, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। जातियां भारत में सदियों से एक विशेष गुण को धारण और उसके प्रति संकेत देने का काम करती आई हैं। वस्तुत: जाति गुणवाचक संज्ञा है। भारत हिन्दू समाज में शुरू से ही ये परंपरा रही है ”जाति न पूछो साधु की”।

संत कबीर दास जब यह दोहा लिख रहे होंगे, सोचिए; उनके मन में क्या चल रहा होगा? वे अपने संपूर्ण ज्ञान के आधार पर अपने समय में व्याख्यायित कर रहे थे ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।’ कबीर कहते हैं, सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठा हुआ माना जाता है। साधू से यह कभी नहीं पूछा जाता की वह किस जाति का है। उसका ज्ञान ही, उसका सम्मान करने के लिए पर्याप्त है। जिस प्रकार एक तलवार का मोल का आकलन उसकी धार के आधार पर किया जाता है न कि उसके म्यान के आधार पर ठीक उसी प्रकार, एक साधु की जाति भी तलवार के म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान।

संस्कृत वांग्मय में एक नीति श्लोक है ‘शैले शैले न माणिक्य मौक्तिंकं न गजे गजे। साधवो हि न सर्वत्र चन्दनं न वने वने’।। इसका अर्थ हुआ- न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है। संसार में मनुष्यों की कमी न होने पर भी साधु पुरुष नहीं मिलते। इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नहीं होते। वास्तव में इस नीति श्लोक पर विचार करते हैं तो ध्यान में आता है हमारा समाज ऐसा ही है, हर जगह सरलता से साधु पुरुष नहीं मिलते हैं।

आगे कबीर इसे और अधिक सरल तरीके से समझाते हैं, वे साधु के गुणों की चर्चा करते हैं और कहते हैं कि साधु ऐसा चाहिए, जैसे सूप सुपाय, सार सार को गाहि रहे ,थोथा देई उड़ाय। तात्पर्य साधु या सज्जन पुरुष सूप के समान ही होना चाहिए जो सार सार (अन्न) को बचा कर रखे और थोथा या कचरे को हवा के साथ उड़ा दे। सूप किस पदार्थ का बना है यह महत्वपूर्ण नहीं है। ठीक इसी प्रकार का व्यवहार हिन्दू समाज सदियों से करता आया है। लेकिन फिर भी उस पर कई आरोप मढ़े जाते रहे हैं, जिसमें से एक है कि छोटी जाति में पैदा होनेवाले व्यवहारिक समाज में तो छोड़िए, आत्मा के प्रकाश की जहां बात होती है, कर्म की मुक्तावस्था और चेतना के उत्कर्ष से जहां जीव-जगत का भेद मिट जाता है, वहां भी हिन्दू समाज विभेद पैदा करके ही लोगों को देखता है। परन्तु इस प्रकार का भाव हिन्दू समाज को लेकर रखनेवालों को एक बार यह जरूर भारत की ज्ञान परंपरा को देखना चाहिए।

First Dalit seer to be ordained as 'Jagadguru'

इसके लिए हम दूर क्यों जाएं। इसी सप्ताह हुए इस ज्ञान और तप के यज्ञ को देख सकते हैं। वैसे तो हिन्दू समाज में ये सभी जानते हैं जो नहीं जानते, यहां वे भी जान लेवें। आद्यगुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा और इसके ज्ञान के प्रकाश को सर्वत्र आलौकित करने के लिए इन अखाड़ों की संरचना निर्मित की थी और तभी से अखाड़ा भारत के साधु-सन्तों का एक ऐसा समूह होता आया है जो कि संकट के समय में राष्ट्र रक्षा और धर्म रक्षा के लिए कार्य करता है। आवश्यकता पड़ने पर अखाड़ों के साधु अपनी शास्त्र विद्या के साथ अस्त्र विद्या का उपयोग भी करते हैं। हालांकि स्वाधीनता के बाद इन अखाड़ों ने अपने सैन्य चरित्र को त्याग दिया।

इन अखाड़ों के तत्कालीन प्रमुख संत ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करेंगे। फिर हुआ भी यही। इस समय देश में 13 अखाड़े हैं। सनातन परंपरा के ये सभी 13 अखाड़े तीन मतों में बंटे दिखते हैं। यह तीन मत हैं, शैव संप्रदाय, वैरागी वैष्णव संप्रदाय और उदासीन संप्रदाय। वस्तुत: शैव वह हैं, जिनके अधिष्ठाता भगवान शिव हैं। वैरागी वैष्णव संप्रदाय श्रीहरि को अभीष्ट मानते हैं। वहीं, उदासीन संप्रदाय प्रकृति को ही ईश्वर मानकर अपना अभीष्ट मानते हैं।

इन्हीं में से एक जूना अखाड़ा देश के बड़े अखाड़ों में से है। इसके पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज हैं। जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर तपस्वी हैं, गहरा अध्यन करते हैं और समाज में अपने पुरुषार्थ से सद्गुण, समरसता और संगठन के लिए समर्पित हैं। यह भी जान लें कि महामंडलेश्वर का पद प्राप्त करने के लिए जूना अखाड़े में पांच वर्षों तक सनातन धर्म के ग्रंथों का गहन अध्ययन, साधुत्व जीवन और परीक्षा पास करनी होती है। इसके बाद ही श्रेष्ठ संतसमाज द्वारा महामंडलेश्वर की उपाधि दी जाती है।

जूना अखाड़ा ने यह दृढ़ता से स्थापित किया है कि महामंडलेश्वर पद के लिए जाति कोई बाधा नहीं है। केवल तप और अध्ययन ही एकमात्र मापदंड है और समाज के सब वर्गों के लोग इसमें सम्मलित हो सकते हैं। अखाड़ा यह मानता आया है कि पद एवं उपाधि जाति से नहीं, योग्यता के आधार पर मिलना चाहिए। और इसी का परिणाम है कि जूना अखाड़ा अपने निर्माण काल से लेकर आज तक समाज में समरसता और श्रेष्ठ संस्कारों के लिए बड़ा और उपयोगी कार्य कर रहा है। इसी क्रम में एक बार फिर जूना अखाड़ा ने अपने चार महामण्डेलश्वरों की घोषणा की है।

संयोग देखिए कि ये सभी अनुसूचित जाति और भारत के जनजाति समाज से आते हैं। जूना अखाड़ा द्वारा इन चार पूज्य संतों को महामंडलेश्वर पद का पट्टाभिषेक कराया गया है। संत श्री शनलदास मंगलदास, दासी जीवन की जगह, गोंडल, राजकोट, संत श्री शामलदास प्रेमदास, कबीर मंदिर, भावनगर, संत श्री किरणदास, वाल्मीकि अखाड़ा, भावनगर और संत श्री कृष्णवदन महाराज, संत अकल साहेब समाधि स्थान, सुरेंद्रनगर अब हिन्दू समाज में समता मूलक समाज की स्थापना के लिए अन्य संतों की तरह ही ज्ञान धारा को प्रवाहित करेंगे। इसलिए जो आज हिन्दू समाज को जातियों, वर्गों में बांटकर इसके पूरे चरित्र को विकृत कर प्रस्तुत करने के में लगे हुए हैं, उनको नकारात्मक धारणाओं और नैरेटिव गढ़ने के पूर्व हिन्दू समाज और संस्कृति का गहन अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)