प्रदीप सिंह।
आप लोगों ने महाभारत में अभिमन्यु के मारे जाने का प्रसंग तो पढ़ा/सुना होगा। अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फंसाकर किस तरह और किसने मारा यह सब इतिहास (कुछ लोगों के मुताबिक पौराणिक) की बात है। उसका ब्यौरा यहां देने की जरूरत नहीं है। इसका जिक्र विशेष मकसद से किया है। इस सीमित अर्थ में कि अभिमन्यु के मारे जाने के बाद जो हुआ उसने पूरे युद्ध की दिशा बदल दी। वह यह कि उसके बाद महाभारत युद्ध के सारे नियम टूट गए। फिर युद्ध में परम्परा और नैतिकता के सवाल बेमानी हो गए।
अब किसान आंदोलन पर आते हैं। छब्बीस जनवरी को हिंसा का जो तांडव हुआ औऱ उसके बाद मशहूर टूल किट के सामने आने के बाद हिंसा के इस तांडव के पीछे के हाथ ही नहीं चेहरे भी सामने आ रहे हैं। तो इन दोनों घटनाओं का नतीजा क्या हुआ। वही जो महाभारत युद्ध के समय अभिमन्यु के वध के बाद हुआ था। युद्ध के नियम एक बार फिर टूट गए। अभिमन्यु के वध के बाद अर्जुन या पांडवों की सेना न तो हताश हुई थी और न ही पीछे हटी थी। उसके बाद क्या हुआ सबको मालूम है। इन दोंनों घटनाओं के बाद सरकार न तो हताश हुई और न ही पीछे हटी है। ‘पुलिस और कानून अपना काम कर रहे हैं। उसमें हस्तक्षेप की हमें कोई जरूरत नहीं लगती।‘ यह बात कही देश के सर्वोच्च न्यायालय ने।
दाल में कुछ काला
अब जब कानून ने अपना काम शुरू किया तो उन्हीं नियमों की दुहाई दी जा रही है जिसकी आंदोलनकारी और उनके आका धज्जियां उड़ा चुके हैं। इससे हुआ यह है कि जो चेहरे पर्दे के पीछे थे उन्हें अब सामने आना पड़ रहा है। क्या क्या तर्क दिए जा रहे हैं। लाल किला कांड का मुख्य आरोपी दीप सिद्धू फरार हुआ तो कहा गया कि वह भाजपा का आदमी था। अब गिरफ्तार हो गया है तो कांग्रेस से जुड़े वकील अदालत में उसकी पैरवी कर रहे हैं और किसान नेता उसके बचाव में दिखाई दे रहे हैं। टूल किट वाली दिशा रवि की पैरवी कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के वकील बेटे कर रहे हैं। इसके बचाव में कहा जा सकता है कि वकील तो प्रोफेशनल होते हैं, किसी का भी केस ले सकते हैं। पर क्या यह बात इतनी सीधी है? सोच कर देखिए। इस संदर्भ में कि कांग्रेस सहित तमाम लेफ्ट लिबरल टूलकिट के आरोपियों के समर्थन में खुलकर आ गए हैं। अब कोई पर्दादारी नहीं रही। इन लोगों के मुताबिक अभिव्यक्ति की आजादी देश में अराजकता फैलाने की भी छूट देती है। जब एक ही कानून की परिभाषा व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार बदलने लगे तो समझ लीजिए कि दाल में कुछ काला है।
आढ़तियों का ईको सिस्टम
किसानों के नाम पर हो रहे आंदोलन में भी युद्ध के नियम टूट गए हैं। आंदोलन का नैतिक बल चला गया है। जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं देश को पता चल रहा है कि यह आंदोलन कितनी कमजोर जमीन पर खड़ा है। याद कीजिए क्या पूरे आंदोलन के दौरान किसी किसान संगठन के नेता ने बिचौलियों खासतौर से आढ़तियों के चंगुल से किसानों को छुड़ाने की मांग की है? इन आढ़तियों का पूरा एक ईको सिस्टम है। किसान एक बार फसल लेकर मंडी पहुंचता है उसके बाद आढ़तिया तय करता है कि उसके साथ ही नहीं उसकी गाढ़ी कमाई के पैसे के साथ क्या किया जाय। आढ़तिया ही तय करता है कि किसान अपने पैसे से बीज, खाद, कीटनाशक, अपने घर वालों के लिए कपड़े, जूते जैसी घरेलू उपयोग की चीजें किस दूकान से और किससे खरीदेगा। उसका भुगतान वह खुद नहीं करता। आढ़तिया ही उसके पैसों में से करता है। क्यों? क्योंकि ये सारी दूकानें या तो आढ़तियों की होती हैं या उनके चंगू मंगुओं की। अब किसान अपनी फसल की कमाई के पैसों के लिए पूरी तरह से आढ़तिए पर निर्भर हो जाता है। उसके पैसे आढतिया के बैंक खाते में होते हैं जिस पर जाहिर है कि ब्याज वही लेता है।
आढ़तियों के मुंह खून लग चुका
सरकारें भी इस तंत्र को तोड़ नहीं पातीं। साल 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने तय किया कि पंजाब और हरियाणा में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) दूसरी केंद्रीय एजेंसियां और राज्य सरकारें जो खरीद करेंगी उसका पैसा आढ़तिया के खाते में जाने की बजाय सीधे किसान के खाते में जाएगा। आढ़तियों को समझ में आ गया कि उनका पूरा तंत्र बिखर जाएगा। उन्होंने विद्रोह कर दिया कि वे किसान से अनाज खरीदेंगे ही नहीं। उस समय शरद पवार देश के कृषि मंत्री थे और सरदार प्रकाश सिंह बादल पंजाब के मुख्यमंत्री। मामला बिगड़ता देख पवार चंडीगढ़ गए। बादल से बात हुई और केंद्र सरकार को आदेश वापस लेना पड़ा। यह है आढ़तियों की ताकत। उनके मुंह खून लग गया है। तीन कृषि कानूनों के विरोध में भी यह उन्हीं का खड़ा किया हुआ आंदोलन है। पर उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि अब केंद्र में मनमोहन सिंह की नहीं नरेन्द्र मोदी की सरकार है।
लाल किले पर हिंसा के बाद किसान नेताओं ने कहा था कि इन उपद्रवियों से आंदोलनकारियों का कोई संबंध नहीं है। पर जब उपद्रवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई हो रही है तो पंजाब के किसान नेता उनका न सिर्फ बचाव कर रहे हैं बल्कि पुलिस को धमकी दे रहे हैं कि गिरफ्तारी के लिए वह गांव में घुसी तो विरोध होगा। इतना ही नहीं गैंगस्टर लख्खा सिधाना को बाकायदा किसान नेताओं के मंच पर बिठाया जाता है। वहीं से वह धमकी देता है कि पुलिस की हिम्मत हो तो हाथ लगाकर दिखाए।
‘धंधे’ पर चोट
इस हफ्ते केंद्र सरकार ने एक आदेश जारी किया है। एफसीआई, दूसरी एजेंसियों और पंजाब और हरियाणा की राज्य सरकार से कहा है कि इसी सीजन यानी अप्रैल के पहले हफ्ते से होने वाली गेहूं की खरीद का पैसा सीधे किसानों के खाते में जाएगा। वैसे यह व्यवस्था साल 2015-16 से लागू है। पर पंजाब और हरियाणा इससे छूट मांगते रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार ने यह भी कहा कि किस किसान से खरीद हुई है इसका बायोमीट्रिक रिकार्ड होना चाहिए। मतलब समझ रहे हैं। मतलब साफ है कि बिहार और दूसरे राज्यों से सस्ता गेहूं खरीद कर सरकारी एजेंसियों को एमएसपी पर बेचने का धंधा अब नहीं चल पाएगा। सरकार ने इसके साथ ही स्पष्ट किया है कि आढ़तियों की व्यवस्था जारी रहेगी। बस इससे होगा यह कि किसानों और आढ़तियों को अपना अपना पैसा इलेक्ट्रॉनिक मोड और पारदर्शी तरीके से मिल जाएगा। नई ई-प्रोक्योरमेंट व्यवस्था के तहत सरकारी एजेंसियां किसानों को पहले तारीख और समय बताती हैं कि उन्हें किस दिन, किस सबसे नजदीक की मंडी में और कितने बजे अपना अनाज लेकर आना है। किसान अपने अनाज का वजन करवाएगा। आढ़तिया अनाज लेगा। सरकारी एजेंसियां किसान की उपज का पैसा उसके खाते में और आढ़तिया का कमीशन उसके खाते में ट्रासफर कर देंगी।
उपद्रवियों का बचाव
लाल किले पर हिंसा के बाद किसान नेताओं ने कहा था कि इन उपद्रवियों से आंदोलनकारियों का कोई संबंध नहीं है। पर जब उपद्रवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई हो रही है तो पंजाब के किसान नेता उनका न सिर्फ बचाव कर रहे हैं बल्कि पुलिस को धमकी दे रहे हैं कि गिरफ्तारी के लिए वह गांव में घुसी तो विरोध होगा। इतना ही नहीं गैंगस्टर लख्खा सिधाना को बाकायदा किसान नेताओं के मंच पर बिठाया जाता है। वहीं से वह धमकी देता है कि पुलिस की हिम्मत हो तो हाथ लगाकर दिखाए। पुलिस का रास्ता रोकने के लिए सड़क पर ट्रैक्टर ट्रालियां लगाकर रास्ता जाम किया जाता है। सिधाना पर दिल्ली पुलिस ने ईनाम घोषित कर रखा है। पर पंजाब सरकार और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर कोई असर नहीं होता। कैप्टन बार बार केंद्र सरकार को धमका रहे हैं कि सरकार ने इन आंदोलकारियों की मांग नहीं मानी तो पाकिस्तान उसका फायदा उठा लेगा।
कई मौके मिले
महाभारत में भगवान कृष्ण और पांडवों ने कौरवों को कई अवसर दिए थे जिससे युद्ध को टाला जा सके। किसान नेताओं को भी कम से कम तीन बड़े अवसर मिले। पहला अवसर देश की सर्वोच्च अदालत ने दिया। जब केंद्र सरकार को फटकार लगाई और एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर तीनों कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। किसानों के लिए वह सम्मानजनक रास्ता था। पर किसान नेताओं ने देश के सर्वोच्च न्यायालय का मान भी नहीं रखा। दूसरा अवसर केंद्र सरकार ने दिया। बाइस जनवरी को हुई आखिरी बातचीत में किसानों की ज्यादातर मांगें मानते हुए प्रस्ताव दिया कि सरकार कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने को तैयार है। किसान नेताओं ने इस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया।
अलग-अलग भाषा बोल रहे किसान नेता
किसान नेताओं के लिए तीसरा और शायद सबसे बड़ा अवसर था छब्बीस जनवरी की घटना के बाद। वे अपना और आंदोलन की शुचिता, सम्मान और नैतिकबल बचाने के लिए कह सकते थे कि इस घटना से वे आहत हैं और आंदोलन स्थगित करने की घोषणा करते हैं। साथ ही सरकार के अंतिम प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं। बाकी मांगों को मनवाने के लिए भविष्य़ में फिर आंदोलन करेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हुआ यह कि आंदोलन बदनाम हो गया। आम लोगों का समर्थन घट गया और सहानुभूति खत्म हो गई। आंदोलन का नेतृत्व पंजाब के किसान नेताओं के हाथ से निकलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राकेश टिकैत के हाथ चला गया। अब किसान नेता ही अलग-अलग भाषा में बोल रहे हैं। उनके खेमे में इस बात की भी बेचैनी है कि सरकार बातचीत के लिए बुला ही नहीं रही है।
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना
यह किसान आंदोलन बदनीयती से शुरू हुआ था। इसमें किसानों के अलावा बाकी सभी बातों की चिंता थी। मामला कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाला था। पर यह तीर पलटकर उन्हें ही घायल कर गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार देश के किसानों से संवाद कर रहे हैं। तीनों किसान कानूनों के फायदे बता रहे हैं। अब सवाल है कि देश का आम किसान प्रधानमंत्री की बात पर भरोसा करेगा या हिंसा का रास्ता अपनाने और उन्हें बचाने वालों की बात पर। यह लड़ाई अब बदनीयती और नेकनीयती के बीच चल रही है।